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    ऋग्वेदः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 6 to 10.

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 6.

            ऊर्ध्व ऊ षु णो अध्वरस्य होतरग्ने तिष्ठ देवताता यजीयान्।
            त्वं हि विश्वमभ्यसि मन्म प्र वेधसश्चित्तिरसि मनीषाम्॥ ४.००६.०१

            अमूरो होता न्यसादि विक्ष्वग्निर्मन्द्रो विदथेषु प्रचेताः।
            ऊर्ध्वं भानुं सवितेवाश्रेन्मेतेव धूमं स्तभायदुप द्याम्॥ ४.००६.०२

            यता सुजूर्णी रातिनी घृताची प्रदक्षिणिद्देवतातिमुराणः।
            उदु स्वरुर्नवजा नाक्रः पश्वो अनक्ति सुधितः सुमेकः॥ ४.००६.०३

            स्तीर्णे बर्हिषि समिधाने अग्ना ऊर्ध्वो अध्वर्युर्जुजुषाणो अस्थात्।
            पर्यग्निः पशुपा न होता त्रिविष्ट्येति प्रदिव उराणः॥ ४.००६.०४

            परि त्मना मितद्रुरेति होताग्निर्मन्द्रो मधुवचा ऋतावा।
            द्रवन्त्यस्य वाजिनो न शोका भयन्ते विश्वा भुवना यदभ्राट्॥ ४.००६.०५

            भद्रा ते अग्ने स्वनीक संदृग्घोरस्य सतो विषुणस्य चारुः।
            न यत्ते शोचिस्तमसा वरन्त न ध्वस्मानस्तन्वी रेप आ धुः॥ ४.००६.०६

            न यस्य सातुर्जनितोरवारि न मातरापितरा नू चिदिष्टौ।
            अधा मित्रो न सुधितः पावकोऽग्निर्दीदाय मानुषीषु विक्षु॥ ४.००६.०७

            द्विर्यं पञ्च जीजनन्संवसानाः स्वसारो अग्निं मानुषीषु विक्षु।
            उषर्बुधमथर्यो न दन्तं शुक्रं स्वासं परशुं न तिग्मम्॥ ४.००६.०८

            तव त्ये अग्ने हरितो घृतस्ना रोहितास ऋज्वञ्चः स्वञ्चः।
            अरुषासो वृषण ऋजुमुष्का आ देवतातिमह्वन्त दस्माः॥ ४.००६.०९

            ये ह त्ये ते सहमाना अयासस्त्वेषासो अग्ने अर्चयश्चरन्ति।
            श्येनासो न दुवसनासो अर्थं तुविष्वणसो मारुतं न शर्धः॥ ४.००६.१०

            अकारि ब्रह्म समिधान तुभ्यं शंसात्युक्थं यजते व्यू धाः।
            होतारमग्निं मनुषो नि षेदुर्नमस्यन्त उशिजः शंसमायोः॥ ४.००६.११


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 7.

            अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्होता यजिष्ठो अध्वरेष्वीड्यः।
            यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रं विभ्वं विशेविशे॥ ४.००७.०१

            अग्ने कदा त आनुषग्भुवद्देवस्य चेतनम्।
            अधा हि त्वा जगृभ्रिरे मर्तासो विक्ष्वीड्यम्॥ ४.००७.०२

            ऋतावानं विचेतसं पश्यन्तो द्यामिव स्तृभिः।
            विश्वेषामध्वराणां हस्कर्तारं दमेदमे॥ ४.००७.०३

            आशुं दूतं विवस्वतो विश्वा यश्चर्षणीरभि।
            आ जभ्रुः केतुमायवो भृगवाणं विशेविशे॥ ४.००७.०४

            तमीं होतारमानुषक्चिकित्वांसं नि षेदिरे।
            रण्वं पावकशोचिषं यजिष्ठं सप्त धामभिः॥ ४.००७.०५

            तं शश्वतीषु मातृषु वन आ वीतमश्रितम्।
            चित्रं सन्तं गुहा हितं सुवेदं कूचिदर्थिनम्॥ ४.००७.०६

            ससस्य यद्वियुता सस्मिन्नूधन्नृतस्य धामन्रणयन्त देवाः।
            महाँ अग्निर्नमसा रातहव्यो वेरध्वराय सदमिदृतावा॥ ४.००७.०७

            वेरध्वरस्य दूत्यानि विद्वानुभे अन्ता रोदसी संचिकित्वान्।
            दूत ईयसे प्रदिव उराणो विदुष्टरो दिव आरोधनानि॥ ४.००७.०८

            कृष्णं त एम रुशतः पुरो भाश्चरिष्ण्वर्चिर्वपुषामिदेकम्।
            यदप्रवीता दधते ह गर्भं सद्यश्चिज्जातो भवसीदु दूतः॥ ४.००७.०९

            सद्यो जातस्य ददृशानमोजो यदस्य वातो अनुवाति शोचिः।
            वृणक्ति तिग्मामतसेषु जिह्वां स्थिरा चिदन्ना दयते वि जम्भैः॥ ४.००७.१०

            तृषु यदन्ना तृषुणा ववक्ष तृषुं दूतं कृणुते यह्वो अग्निः।
            वातस्य मेळिं सचते निजूर्वन्नाशुं न वाजयते हिन्वे अर्वा॥ ४.००७.११


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 8.

            दूतं वो विश्ववेदसं हव्यवाहममर्त्यम्।
            यजिष्ठमृञ्जसे गिरा॥ ४.००८.०१

            स हि वेदा वसुधितिं महाँ आरोधनं दिवः।
            स देवाँ एह वक्षति॥ ४.००८.०२

            स वेद देव आनमं देवाँ ऋतायते दमे।
            दाति प्रियाणि चिद्वसु॥ ४.००८.०३

            स होता सेदु दूत्यं चिकित्वाँ अन्तरीयते।
            विद्वाँ आरोधनं दिवः॥ ४.००८.०४

            ते स्याम ये अग्नये ददाशुर्हव्यदातिभिः।
            य ईं पुष्यन्त इन्धते॥ ४.००८.०५

            ते राया ते सुवीर्यैः ससवांसो वि शृण्विरे।
            ये अग्ना दधिरे दुवः॥ ४.००८.०६

            अस्मे रायो दिवेदिवे सं चरन्तु पुरुस्पृहः।
            अस्मे वाजास ईरताम्॥ ४.००८.०७

            स विप्रश्चर्षणीनां शवसा मानुषाणाम्।
            अति क्षिप्रेव विध्यति॥ ४.००८.०८


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 9.

            अग्ने मृळ महाँ असि य ईमा देवयुं जनम्।
            इयेथ बर्हिरासदम्॥ ४.००९.०१

            स मानुषीषु दूळभो विक्षु प्रावीरमर्त्यः।
            दूतो विश्वेषां भुवत्॥ ४.००९.०२

            स सद्म परि णीयते होता मन्द्रो दिविष्टिषु।
            उत पोता नि षीदति॥ ४.००९.०३

            उत ग्ना अग्निरध्वर उतो गृहपतिर्दमे।
            उत ब्रह्मा नि षीदति॥ ४.००९.०४

            वेषि ह्यध्वरीयतामुपवक्ता जनानाम्।
            हव्या च मानुषाणाम्॥ ४.००९.०५

            वेषीद्वस्य दूत्यं यस्य जुजोषो अध्वरम्।
            हव्यं मर्तस्य वोळ्हवे॥ ४.००९.०६

            अस्माकं जोष्यध्वरमस्माकं यज्ञमङ्गिरः।
            अस्माकं शृणुधी हवम्॥ ४.००९.०७

            परि ते दूळभो रथोऽस्माँ अश्नोतु विश्वतः।
            येन रक्षसि दाशुषः॥ ४.००९.०८


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 10.

            अग्ने तमद्याश्वं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रं हृदिस्पृशम्।
            ऋध्यामा त ओहैः॥ ४.०१०.०१

            अधा ह्यग्ने क्रतोर्भद्रस्य दक्षस्य साधोः।
            रथीरृतस्य बृहतो बभूथ॥ ४.०१०.०२

            एभिर्नो अर्कैर्भवा नो अर्वाङ्स्वर्ण ज्योतिः।
            अग्ने विश्वेभिः सुमना अनीकैः॥ ४.०१०.०३

            आभिष्टे अद्य गीर्भिर्गृणन्तोऽग्ने दाशेम।
            प्र ते दिवो न स्तनयन्ति शुष्माः॥ ४.०१०.०४

            तव स्वादिष्ठाग्ने संदृष्टिरिदा चिदह्न इदा चिदक्तोः।
            श्रिये रुक्मो न रोचत उपाके॥ ४.०१०.०५

            घृतं न पूतं तनूररेपाः शुचि हिरण्यम्।
            तत्ते रुक्मो न रोचत स्वधावः॥ ४.०१०.०६

            कृतं चिद्धि ष्मा सनेमि द्वेषोऽग्न इनोषि मर्तात्।
            इत्था यजमानादृतावः॥ ४.०१०.०७

            शिवा नः सख्या सन्तु भ्रात्राग्ने देवेषु युष्मे।
            सा नो नाभिः सदने सस्मिन्नूधन्॥ ४.०१०.०८

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 10.

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