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    ऋग्वेदः मण्डलं ५. Rigveda, Mandala - 5, Sukta - 01 to 05.

        
    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ५. Rigveda, Mandala - 5, Sukta - 1.

            त्वां ह्यग्ने सदमित्समन्यवो देवासो देवमरतिं न्येरिर इति क्रत्वा न्येरिरे।
            अमर्त्यं यजत मर्त्येष्वा देवमादेवं जनत प्रचेतसं विश्वमादेवं जनत प्रचेतसम्॥ ४.००१.०१

            स भ्रातरं वरुणमग्न आ ववृत्स्व देवाँ अच्छा सुमती यज्ञवनसं ज्येष्ठं यज्ञवनसम्।
            ऋतावानमादित्यं चर्षणीधृतं राजानं चर्षणीधृतम्॥ ४.००१.०२

            सखे सखायमभ्या ववृत्स्वाशुं न चक्रं रथ्येव रंह्यास्मभ्यं दस्म रंह्या।
            अग्ने मृळीकं वरुणे सचा विदो मरुत्सु विश्वभानुषु।
            तोकाय तुजे शुशुचान शं कृध्यस्मभ्यं दस्म शं कृधि॥ ४.००१.०३

            त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेळोऽव यासिसीष्ठाः।
            यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत्॥ ४.००१.०४

            स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ।
            अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि॥ ४.००१.०५

            अस्य श्रेष्ठा सुभगस्य संदृग्देवस्य चित्रतमा मर्त्येषु।
            शुचि घृतं न तप्तमघ्न्यायाः स्पार्हा देवस्य मंहनेव धेनोः॥ ४.००१.०६

            त्रिरस्य ता परमा सन्ति सत्या स्पार्हा देवस्य जनिमान्यग्नेः।
            अनन्ते अन्तः परिवीत आगाच्छुचिः शुक्रो अर्यो रोरुचानः॥ ४.००१.०७

            स दूतो विश्वेदभि वष्टि सद्मा होता हिरण्यरथो रंसुजिह्वः।
            रोहिदश्वो वपुष्यो विभावा सदा रण्वः पितुमतीव संसत्॥ ४.००१.०८

            स चेतयन्मनुषो यज्ञबन्धुः प्र तं मह्या रशनया नयन्ति।
            स क्षेत्यस्य दुर्यासु साधन्देवो मर्तस्य सधनित्वमाप॥ ४.००१.०९

            स तू नो अग्निर्नयतु प्रजानन्नच्छा रत्नं देवभक्तं यदस्य।
            धिया यद्विश्वे अमृता अकृण्वन्द्यौष्पिता जनिता सत्यमुक्षन्॥ ४.००१.१०

            स जायत प्रथमः पस्त्यासु महो बुध्ने रजसो अस्य योनौ।
            अपादशीर्षा गुहमानो अन्तायोयुवानो वृषभस्य नीळे॥ ४.००१.११

            प्र शर्ध आर्त प्रथमं विपन्याँ ऋतस्य योना वृषभस्य नीळे।
            स्पार्हो युवा वपुष्यो विभावा सप्त प्रियासोऽजनयन्त वृष्णे॥ ४.००१.१२

            अस्माकमत्र पितरो मनुष्या अभि प्र सेदुरृतमाशुषाणाः।
            अश्मव्रजाः सुदुघा वव्रे अन्तरुदुस्रा आजन्नुषसो हुवानाः॥ ४.००१.१३

            ते मर्मृजत ददृवांसो अद्रिं तदेषामन्ये अभितो वि वोचन्।
            पश्वयन्त्रासो अभि कारमर्चन्विदन्त ज्योतिश्चकृपन्त धीभिः॥ ४.००१.१४

            ते गव्यता मनसा दृध्रमुब्धं गा येमानं परि षन्तमद्रिम्।
            दृळ्हं नरो वचसा दैव्येन व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः॥ ४.००१.१५

            ते मन्वत प्रथमं नाम धेनोस्त्रिः सप्त मातुः परमाणि विन्दन्।
            तज्जानतीरभ्यनूषत व्रा आविर्भुवदरुणीर्यशसा गोः॥ ४.००१.१६

            नेशत्तमो दुधितं रोचत द्यौरुद्देव्या उषसो भानुरर्त।
            आ सूर्यो बृहतस्तिष्ठदज्राँ ऋजु मर्तेषु वृजिना च पश्यन्॥ ४.००१.१७

            आदित्पश्चा बुबुधाना व्यख्यन्नादिद्रत्नं धारयन्त द्युभक्तम्।
            विश्वे विश्वासु दुर्यासु देवा मित्र धिये वरुण सत्यमस्तु॥ ४.००१.१८

            अच्छा वोचेय शुशुचानमग्निं होतारं विश्वभरसं यजिष्ठम्।
            शुच्यूधो अतृणन्न गवामन्धो न पूतं परिषिक्तमंशोः॥ ४.००१.१९

            विश्वेषामदितिर्यज्ञियानां विश्वेषामतिथिर्मानुषाणाम्।
            अग्निर्देवानामव आवृणानः सुमृळीको भवतु जातवेदाः॥ ४.००१.२०


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ५. Rigveda, Mandala - 5, Sukta - 2.

            यो मर्त्येष्वमृत ऋतावा देवो देवेष्वरतिर्निधायि।
            होता यजिष्ठो मह्ना शुचध्यै हव्यैरग्निर्मनुष ईरयध्यै॥ ४.००२.०१

            इह त्वं सूनो सहसो नो अद्य जातो जाताँ उभयाँ अन्तरग्ने।
            दूत ईयसे युयुजान ऋष्व ऋजुमुष्कान्वृषणः शुक्राँश्च॥ ४.००२.०२

            अत्या वृधस्नू रोहिता घृतस्नू ऋतस्य मन्ये मनसा जविष्ठा।
            अन्तरीयसे अरुषा युजानो युष्माँश्च देवान्विश आ च मर्तान्॥ ४.००२.०३

            अर्यमणं वरुणं मित्रमेषामिन्द्राविष्णू मरुतो अश्विनोत।
            स्वश्वो अग्ने सुरथः सुराधा एदु वह सुहविषे जनाय॥ ४.००२.०४

            गोमाँ अग्नेऽविमाँ अश्वी यज्ञो नृवत्सखा सदमिदप्रमृष्यः।
            इळावाँ एषो असुर प्रजावान्दीर्घो रयिः पृथुबुध्नः सभावान्॥ ४.००२.०५

            यस्त इध्मं जभरत्सिष्विदानो मूर्धानं वा ततपते त्वाया।
            भुवस्तस्य स्वतवाँः पायुरग्ने विश्वस्मात्सीमघायत उरुष्य॥ ४.००२.०६

            यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत्।
            आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान्॥ ४.००२.०७

            यस्त्वा दोषा य उषसि प्रशंसात्प्रियं वा त्वा कृणवते हविष्मान्।
            अश्वो न स्वे दम आ हेम्यावान्तमंहसः पीपरो दाश्वांसम्॥ ४.००२.०८

            यस्तुभ्यमग्ने अमृताय दाशद्दुवस्त्वे कृणवते यतस्रुक्।
            न स राया शशमानो वि योषन्नैनमंहः परि वरदघायोः॥ ४.००२.०९

            यस्य त्वमग्ने अध्वरं जुजोषो देवो मर्तस्य सुधितं रराणः।
            प्रीतेदसद्धोत्रा सा यविष्ठासाम यस्य विधतो वृधासः॥ ४.००२.१०

            चित्तिमचित्तिं चिनवद्वि विद्वान्पृष्ठेव वीता वृजिना च मर्तान्।
            राये च नः स्वपत्याय देव दितिं च रास्वादितिमुरुष्य॥ ४.००२.११

            कविं शशासुः कवयोऽदब्धा निधारयन्तो दुर्यास्वायोः।
            अतस्त्वं दृश्याँ अग्न एतान्पड्भिः पश्येरद्भुताँ अर्य एवैः॥ ४.००२.१२

            त्वमग्ने वाघते सुप्रणीतिः सुतसोमाय विधते यविष्ठ।
            रत्नं भर शशमानाय घृष्वे पृथु श्चन्द्रमवसे चर्षणिप्राः॥ ४.००२.१३

            अधा ह यद्वयमग्ने त्वाया पड्भिर्हस्तेभिश्चकृमा तनूभिः।
            रथं न क्रन्तो अपसा भुरिजोरृतं येमुः सुध्य आशुषाणाः॥ ४.००२.१४

            अधा मातुरुषसः सप्त विप्रा जायेमहि प्रथमा वेधसो नॄन्।
            दिवस्पुत्रा अङ्गिरसो भवेमाद्रिं रुजेम धनिनं शुचन्तः॥ ४.००२.१५

            अधा यथा नः पितरः परासः प्रत्नासो अग्न ऋतमाशुषाणाः।
            शुचीदयन्दीधितिमुक्थशासः क्षामा भिन्दन्तो अरुणीरप व्रन्॥ ४.००२.१६

            सुकर्माणः सुरुचो देवयन्तोऽयो न देवा जनिमा धमन्तः।
            शुचन्तो अग्निं ववृधन्त इन्द्रमूर्वं गव्यं परिषदन्तो अग्मन्॥ ४.००२.१७

            आ यूथेव क्षुमति पश्वो अख्यद्देवानां यज्जनिमान्त्युग्र।
            मर्तानां चिदुर्वशीरकृप्रन्वृधे चिदर्य उपरस्यायोः॥ ४.००२.१८

            अकर्म ते स्वपसो अभूम ऋतमवस्रन्नुषसो विभातीः।
            अनूनमग्निं पुरुधा सुश्चन्द्रं देवस्य मर्मृजतश्चारु चक्षुः॥ ४.००२.१९

            एता ते अग्न उचथानि वेधोऽवोचाम कवये ता जुषस्व।
            उच्छोचस्व कृणुहि वस्यसो नो महो रायः पुरुवार प्र यन्धि॥ ४.००२.२०


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ५. Rigveda, Mandala - 5, Sukta - 3.

            आ वो राजानमध्वरस्य रुद्रं होतारं सत्ययजं रोदस्योः।
            अग्निं पुरा तनयित्नोरचित्ताद्धिरण्यरूपमवसे कृणुध्वम्॥ ४.००३.०१

            अयं योनिश्चकृमा यं वयं ते जायेव पत्य उशती सुवासाः।
            अर्वाचीनः परिवीतो नि षीदेमा उ ते स्वपाक प्रतीचीः॥ ४.००३.०२

            आशृण्वते अदृपिताय मन्म नृचक्षसे सुमृळीकाय वेधः।
            देवाय शस्तिममृताय शंस ग्रावेव सोता मधुषुद्यमीळे॥ ४.००३.०३

            त्वं चिन्नः शम्या अग्ने अस्या ऋतस्य बोध्यृतचित्स्वाधीः।
            कदा त उक्था सधमाद्यानि कदा भवन्ति सख्या गृहे ते॥ ४.००३.०४

            कथा ह तद्वरुणाय त्वमग्ने कथा दिवे गर्हसे कन्न आगः।
            कथा मित्राय मीळ्हुषे पृथिव्यै ब्रवः कदर्यम्णे कद्भगाय॥ ४.००३.०५

            कद्धिष्ण्यासु वृधसानो अग्ने कद्वाताय प्रतवसे शुभंये।
            परिज्मने नासत्याय क्षे ब्रवः कदग्ने रुद्राय नृघ्ने॥ ४.००३.०६

            कथा महे पुष्टिम्भराय पूष्णे कद्रुद्राय सुमखाय हविर्दे।
            कद्विष्णव उरुगायाय रेतो ब्रवः कदग्ने शरवे बृहत्यै॥ ४.००३.०७

            कथा शर्धाय मरुतामृताय कथा सूरे बृहते पृच्छ्यमानः।
            प्रति ब्रवोऽदितये तुराय साधा दिवो जातवेदश्चिकित्वान्॥ ४.००३.०८

            ऋतेन ऋतं नियतमीळ आ गोरामा सचा मधुमत्पक्वमग्ने।
            कृष्णा सती रुशता धासिनैषा जामर्येण पयसा पीपाय॥ ४.००३.०९

            ऋतेन हि ष्मा वृषभश्चिदक्तः पुमाँ अग्निः पयसा पृष्ठ्येन।
            अस्पन्दमानो अचरद्वयोधा वृषा शुक्रं दुदुहे पृश्निरूधः॥ ४.००३.१०

            ऋतेनाद्रिं व्यसन्भिदन्तः समङ्गिरसो नवन्त गोभिः।
            शुनं नरः परि षदन्नुषासमाविः स्वरभवज्जाते अग्नौ॥ ४.००३.११

            ऋतेन देवीरमृता अमृक्ता अर्णोभिरापो मधुमद्भिरग्ने।
            वाजी न सर्गेषु प्रस्तुभानः प्र सदमित्स्रवितवे दधन्युः॥ ४.००३.१२

            मा कस्य यक्षं सदमिद्धुरो गा मा वेशस्य प्रमिनतो मापेः।
            मा भ्रातुरग्ने अनृजोरृणं वेर्मा सख्युर्दक्षं रिपोर्भुजेम॥ ४.००३.१३

            रक्षा णो अग्ने तव रक्षणेभी रारक्षाणः सुमख प्रीणानः।
            प्रति ष्फुर वि रुज वीड्वंहो जहि रक्षो महि चिद्वावृधानम्॥ ४.००३.१४

            एभिर्भव सुमना अग्ने अर्कैरिमान्स्पृश मन्मभिः शूर वाजान्।
            उत ब्रह्माण्यङ्गिरो जुषस्व सं ते शस्तिर्देववाता जरेत॥ ४.००३.१५

            एता विश्वा विदुषे तुभ्यं वेधो नीथान्यग्ने निण्या वचांसि।
            निवचना कवये काव्यान्यशंसिषं मतिभिर्विप्र उक्थैः॥ ४.००३.१६


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ५. Rigveda, Mandala - 5, Sukta - 4.

            कृणुष्व पाजः प्रसितिं न पृथ्वीं याहि राजेवामवाँ इभेन।
            तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूणानोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः॥ ४.००४.०१

            तव भ्रमास आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः।
            तपूंष्यग्ने जुह्वा पतंगानसंदितो वि सृज विष्वगुल्काः॥ ४.००४.०२

            प्रति स्पशो वि सृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्या अदब्धः।
            यो नो दूरे अघशंसो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत्॥ ४.००४.०३

            उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्व न्यमित्राँ ओषतात्तिग्महेते।
            यो नो अरातिं समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यतसं न शुष्कम्॥ ४.००४.०४

            ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने।
            अव स्थिरा तनुहि यातुजूनां जामिमजामिं प्र मृणीहि शत्रून्॥ ४.००४.०५

            स ते जानाति सुमतिं यविष्ठ य ईवते ब्रह्मणे गातुमैरत्।
            विश्वान्यस्मै सुदिनानि रायो द्युम्नान्यर्यो वि दुरो अभि द्यौत्॥ ४.००४.०६

            सेदग्ने अस्तु सुभगः सुदानुर्यस्त्वा नित्येन हविषा य उक्थैः।
            पिप्रीषति स्व आयुषि दुरोणे विश्वेदस्मै सुदिना सासदिष्टिः॥ ४.००४.०७

            अर्चामि ते सुमतिं घोष्यर्वाक्सं ते वावाता जरतामियं गीः।
            स्वश्वास्त्वा सुरथा मर्जयेमास्मे क्षत्राणि धारयेरनु द्यून्॥ ४.००४.०८

            इह त्वा भूर्या चरेदुप त्मन्दोषावस्तर्दीदिवांसमनु द्यून्।
            क्रीळन्तस्त्वा सुमनसः सपेमाभि द्युम्ना तस्थिवांसो जनानाम्॥ ४.००४.०९

            यस्त्वा स्वश्वः सुहिरण्यो अग्न उपयाति वसुमता रथेन।
            तस्य त्राता भवसि तस्य सखा यस्त आतिथ्यमानुषग्जुजोषत्॥ ४.००४.१०

            महो रुजामि बन्धुता वचोभिस्तन्मा पितुर्गोतमादन्वियाय।
            त्वं नो अस्य वचसश्चिकिद्धि होतर्यविष्ठ सुक्रतो दमूनाः॥ ४.००४.११

            अस्वप्नजस्तरणयः सुशेवा अतन्द्रासोऽवृका अश्रमिष्ठाः।
            ते पायवः सध्र्यञ्चो निषद्याग्ने तव नः पान्त्वमूर॥ ४.००४.१२

            ये पायवो मामतेयं ते अग्ने पश्यन्तो अन्धं दुरितादरक्षन्।
            ररक्ष तान्सुकृतो विश्ववेदा दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः॥ ४.००४.१३

            त्वया वयं सधन्यस्त्वोतास्तव प्रणीत्यश्याम वाजान्।
            उभा शंसा सूदय सत्यतातेऽनुष्ठुया कृणुह्यह्रयाण॥ ४.००४.१४

            अया ते अग्ने समिधा विधेम प्रति स्तोमं शस्यमानं गृभाय।
            दहाशसो रक्षसः पाह्यस्मान्द्रुहो निदो मित्रमहो अवद्यात्॥ ४.००४.१५


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 5.

            वैश्वानराय मीळ्हुषे सजोषाः कथा दाशेमाग्नये बृहद्भाः।
            अनूनेन बृहता वक्षथेनोप स्तभायदुपमिन्न रोधः॥ ४.००५.०१

            मा निन्दत य इमां मह्यं रातिं देवो ददौ मर्त्याय स्वधावान्।
            पाकाय गृत्सो अमृतो विचेता वैश्वानरो नृतमो यह्वो अग्निः॥ ४.००५.०२

            साम द्विबर्हा महि तिग्मभृष्टिः सहस्ररेता वृषभस्तुविष्मान्।
            पदं न गोरपगूळ्हं विविद्वानग्निर्मह्यं प्रेदु वोचन्मनीषाम्॥ ४.००५.०३

            प्र ताँ अग्निर्बभसत्तिग्मजम्भस्तपिष्ठेन शोचिषा यः सुराधाः।
            प्र ये मिनन्ति वरुणस्य धाम प्रिया मित्रस्य चेततो ध्रुवाणि॥ ४.००५.०४

            अभ्रातरो न योषणो व्यन्तः पतिरिपो न जनयो दुरेवाः।
            पापासः सन्तो अनृता असत्या इदं पदमजनता गभीरम्॥ ४.००५.०५

            इदं मे अग्ने कियते पावकामिनते गुरुं भारं न मन्म।
            बृहद्दधाथ धृषता गभीरं यह्वं पृष्ठं प्रयसा सप्तधातु॥ ४.००५.०६

            तमिन्न्वेव समना समानमभि क्रत्वा पुनती धीतिरश्याः।
            ससस्य चर्मन्नधि चारु पृश्नेरग्रे रुप आरुपितं जबारु॥ ४.००५.०७

            प्रवाच्यं वचसः किं मे अस्य गुहा हितमुप निणिग्वदन्ति।
            यदुस्रियाणामप वारिव व्रन्पाति प्रियं रुपो अग्रं पदं वेः॥ ४.००५.०८

            इदमु त्यन्महि महामनीकं यदुस्रिया सचत पूर्व्यं गौः।
            ऋतस्य पदे अधि दीद्यानं गुहा रघुष्यद्रघुयद्विवेद॥ ४.००५.०९

            अध द्युतानः पित्रोः सचासामनुत गुह्यं चारु पृश्नेः।
            मातुष्पदे परमे अन्ति षद्गोर्वृष्णः शोचिषः प्रयतस्य जिह्वा॥ ४.००५.१०

            ऋतं वोचे नमसा पृच्छ्यमानस्तवाशसा जातवेदो यदीदम्।
            त्वमस्य क्षयसि यद्ध विश्वं दिवि यदु द्रविणं यत्पृथिव्याम्॥ ४.००५.११

            किं नो अस्य द्रविणं कद्ध रत्नं वि नो वोचो जातवेदश्चिकित्वान्।
            गुहाध्वनः परमं यन्नो अस्य रेकु पदं न निदाना अगन्म॥ ४.००५.१२

            का मर्यादा वयुना कद्ध वाममच्छा गमेम रघवो न वाजम्।
            कदा नो देवीरमृतस्य पत्नीः सूरो वर्णेन ततनन्नुषासः॥ ४.००५.१३

            अनिरेण वचसा फल्ग्वेन प्रतीत्येन कृधुनातृपासः।
            अधा ते अग्ने किमिहा वदन्त्यनायुधास आसता सचन्ताम्॥ ४.००५.१४

            अस्य श्रिये समिधानस्य वृष्णो वसोरनीकं दम आ रुरोच।
            रुशद्वसानः सुदृशीकरूपः क्षितिर्न राया पुरुवारो अद्यौत्॥ ४.००५.१५

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 5.

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