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    ऋग्वेदः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 46 to 50.

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 46.

            अग्रं पिबा मधूनां सुतं वायो दिविष्टिषु।
            त्वं हि पूर्वपा असि॥ ४.०४६.०१

            शतेना नो अभिष्टिभिर्नियुत्वाँ इन्द्रसारथिः।
            वायो सुतस्य तृम्पतम्॥ ४.०४६.०२

            आ वां सहस्रं हरय इन्द्रवायू अभि प्रयः।
            वहन्तु सोमपीतये॥ ४.०४६.०३

            रथं हिरण्यवन्धुरमिन्द्रवायू स्वध्वरम्।
            आ हि स्थाथो दिविस्पृशम्॥ ४.०४६.०४

            रथेन पृथुपाजसा दाश्वांसमुप गच्छतम्।
            इन्द्रवायू इहा गतम्॥ ४.०४६.०५

            इन्द्रवायू अयं सुतस्तं देवेभिः सजोषसा।
            पिबतं दाशुषो गृहे॥ ४.०४६.०६

            इह प्रयाणमस्तु वामिन्द्रवायू विमोचनम्।
            इह वां सोमपीतये॥ ४.०४६.०७


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 47.

            वायो शुक्रो अयामि ते मध्वो अग्रं दिविष्टिषु।
            आ याहि सोमपीतये स्पार्हो देव नियुत्वता॥ ४.०४७.०१

            इन्द्रश्च वायवेषां सोमानां पीतिमर्हथः।
            युवां हि यन्तीन्दवो निम्नमापो न सध्र्यक्॥ ४.०४७.०२

            वायविन्द्रश्च शुष्मिणा सरथं शवसस्पती।
            नियुत्वन्ता न ऊतय आ यातं सोमपीतये॥ ४.०४७.०३

            या वां सन्ति पुरुस्पृहो नियुतो दाशुषे नरा।
            अस्मे ता यज्ञवाहसेन्द्रवायू नि यच्छतम्॥ ४.०४७.०४


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 48.

            विहि होत्रा अवीता विपो न रायो अर्यः।
            वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये॥ ४.०४८.०१

            निर्युवाणो अशस्तीर्नियुत्वाँ इन्द्रसारथिः।
            वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये॥ ४.०४८.०२

            अनु कृष्णे वसुधिती येमाते विश्वपेशसा।
            वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये॥ ४.०४८.०३

            वहन्तु त्वा मनोयुजो युक्तासो नवतिर्नव।
            वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये॥ ४.०४८.०४

            वायो शतं हरीणां युवस्व पोष्याणाम्।
            उत वा ते सहस्रिणो रथ आ यातु पाजसा॥ ४.०४८.०५


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 49.

            इदं वामास्ये हविः प्रियमिन्द्राबृहस्पती।
            उक्थं मदश्च शस्यते॥ ४.०४९.०१

            अयं वां परि षिच्यते सोम इन्द्राबृहस्पती।
            चारुर्मदाय पीतये॥ ४.०४९.०२

            आ न इन्द्राबृहस्पती गृहमिन्द्रश्च गच्छतम्।
            सोमपा सोमपीतये॥ ४.०४९.०३

            अस्मे इन्द्राबृहस्पती रयिं धत्तं शतग्विनम्।
            अश्वावन्तं सहस्रिणम्॥ ४.०४९.०४

            इन्द्राबृहस्पती वयं सुते गीर्भिर्हवामहे।
            अस्य सोमस्य पीतये॥ ४.०४९.०५

            सोममिन्द्राबृहस्पती पिबतं दाशुषो गृहे।
            मादयेथां तदोकसा॥ ४.०४९.०६


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 50.

            यस्तस्तम्भ सहसा वि ज्मो अन्तान्बृहस्पतिस्त्रिषधस्थो रवेण।
            तं प्रत्नास ऋषयो दीध्यानाः पुरो विप्रा दधिरे मन्द्रजिह्वम्॥ ४.०५०.०१

            धुनेतयः सुप्रकेतं मदन्तो बृहस्पते अभि ये नस्ततस्रे।
            पृषन्तं सृप्रमदब्धमूर्वं बृहस्पते रक्षतादस्य योनिम्॥ ४.०५०.०२

            बृहस्पते या परमा परावदत आ त ऋतस्पृशो नि षेदुः।
            तुभ्यं खाता अवता अद्रिदुग्धा मध्वः श्चोतन्त्यभितो विरप्शम्॥ ४.०५०.०३

            बृहस्पतिः प्रथमं जायमानो महो ज्योतिषः परमे व्योमन्।
            सप्तास्यस्तुविजातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत्तमांसि॥ ४.०५०.०४

            स सुष्टुभा स ऋक्वता गणेन वलं रुरोज फलिगं रवेण।
            बृहस्पतिरुस्रिया हव्यसूदः कनिक्रदद्वावशतीरुदाजत्॥ ४.०५०.०५

            एवा पित्रे विश्वदेवाय वृष्णे यज्ञैर्विधेम नमसा हविर्भिः।
            बृहस्पते सुप्रजा वीरवन्तो वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥ ४.०५०.०६

            स इद्राजा प्रतिजन्यानि विश्वा शुष्मेण तस्थावभि वीर्येण।
            बृहस्पतिं यः सुभृतं बिभर्ति वल्गूयति वन्दते पूर्वभाजम्॥ ४.०५०.०७

            स इत्क्षेति सुधित ओकसि स्वे तस्मा इळा पिन्वते विश्वदानीम्।
            तस्मै विशः स्वयमेवा नमन्ते यस्मिन्ब्रह्मा राजनि पूर्व एति॥ ४.०५०.०८

            अप्रतीतो जयति सं धनानि प्रतिजन्यान्युत या सजन्या।
            अवस्यवे यो वरिवः कृणोति ब्रह्मणे राजा तमवन्ति देवाः॥ ४.०५०.०९

            इन्द्रश्च सोमं पिबतं बृहस्पतेऽस्मिन्यज्ञे मन्दसाना वृषण्वसू।
            आ वां विशन्त्विन्दवः स्वाभुवोऽस्मे रयिं सर्ववीरं नि यच्छतम्॥ ४.०५०.१०

            बृहस्पत इन्द्र वर्धतं नः सचा सा वां सुमतिर्भूत्वस्मे।
            अविष्टं धियो जिगृतं पुरंधीर्जजस्तमर्यो वनुषामरातीः॥ ४.०५०.११

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 50.

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