Header Ads

  • Breaking News

    ऋग्वेदः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 51 to 55.

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 51.

            इदमु त्यत्पुरुतमं पुरस्ताज्ज्योतिस्तमसो वयुनावदस्थात्।
            नूनं दिवो दुहितरो विभातीर्गातुं कृणवन्नुषसो जनाय॥ ४.०५१.०१

            अस्थुरु चित्रा उषसः पुरस्तान्मिता इव स्वरवोऽध्वरेषु।
            व्यू व्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीरव्रञ्छुचयः पावकाः॥ ४.०५१.०२

            उच्छन्तीरद्य चितयन्त भोजान्राधोदेयायोषसो मघोनीः।
            अचित्रे अन्तः पणयः ससन्त्वबुध्यमानास्तमसो विमध्ये॥ ४.०५१.०३

            कुवित्स देवीः सनयो नवो वा यामो बभूयादुषसो वो अद्य।
            येना नवग्वे अङ्गिरे दशग्वे सप्तास्ये रेवती रेवदूष॥ ४.०५१.०४

            यूयं हि देवीरृतयुग्भिरश्वैः परिप्रयाथ भुवनानि सद्यः।
            प्रबोधयन्तीरुषसः ससन्तं द्विपाच्चतुष्पाच्चरथाय जीवम्॥ ४.०५१.०५

            क्व स्विदासां कतमा पुराणी यया विधाना विदधुरृभूणाम्।
            शुभं यच्छुभ्रा उषसश्चरन्ति न वि ज्ञायन्ते सदृशीरजुर्याः॥ ४.०५१.०६

            ता घा ता भद्रा उषसः पुरासुरभिष्टिद्युम्ना ऋतजातसत्याः।
            यास्वीजानः शशमान उक्थैः स्तुवञ्छंसन्द्रविणं सद्य आप॥ ४.०५१.०७

            ता आ चरन्ति समना पुरस्तात्समानतः समना पप्रथानाः।
            ऋतस्य देवीः सदसो बुधाना गवां न सर्गा उषसो जरन्ते॥ ४.०५१.०८

            ता इन्न्वेव समना समानीरमीतवर्णा उषसश्चरन्ति।
            गूहन्तीरभ्वमसितं रुशद्भिः शुक्रास्तनूभिः शुचयो रुचानाः॥ ४.०५१.०९

            रयिं दिवो दुहितरो विभातीः प्रजावन्तं यच्छतास्मासु देवीः।
            स्योनादा वः प्रतिबुध्यमानाः सुवीर्यस्य पतयः स्याम॥ ४.०५१.१०

            तद्वो दिवो दुहितरो विभातीरुप ब्रुव उषसो यज्ञकेतुः।
            वयं स्याम यशसो जनेषु तद्द्यौश्च धत्तां पृथिवी च देवी॥ ४.०५१.११


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 52.

            प्रति ष्या सूनरी जनी व्युच्छन्ती परि स्वसुः।
            दिवो अदर्शि दुहिता॥ ४.०५२.०१

            अश्वेव चित्रारुषी माता गवामृतावरी।
            सखाभूदश्विनोरुषाः॥ ४.०५२.०२

            उत सखास्यश्विनोरुत माता गवामसि।
            उतोषो वस्व ईशिषे॥ ४.०५२.०३

            यावयद्द्वेषसं त्वा चिकित्वित्सूनृतावरि।
            प्रति स्तोमैरभुत्स्महि॥ ४.०५२.०४

            प्रति भद्रा अदृक्षत गवां सर्गा न रश्मयः।
            ओषा अप्रा उरु ज्रयः॥ ४.०५२.०५

            आपप्रुषी विभावरि व्यावर्ज्योतिषा तमः।
            उषो अनु स्वधामव॥ ४.०५२.०६

            आ द्यां तनोषि रश्मिभिरान्तरिक्षमुरु प्रियम्।
            उषः शुक्रेण शोचिषा॥ ४.०५२.०७


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 53.

            तद्देवस्य सवितुर्वार्यं महद्वृणीमहे असुरस्य प्रचेतसः।
            छर्दिर्येन दाशुषे यच्छति त्मना तन्नो महाँ उदयान्देवो अक्तुभिः॥ ४.०५३.०१

            दिवो धर्ता भुवनस्य प्रजापतिः पिशङ्गं द्रापिं प्रति मुञ्चते कविः।
            विचक्षणः प्रथयन्नापृणन्नुर्वजीजनत्सविता सुम्नमुक्थ्यम्॥ ४.०५३.०२

            आप्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा श्लोकं देवः कृणुते स्वाय धर्मणे।
            प्र बाहू अस्राक्सविता सवीमनि निवेशयन्प्रसुवन्नक्तुभिर्जगत्॥ ४.०५३.०३

            अदाभ्यो भुवनानि प्रचाकशद्व्रतानि देवः सविताभि रक्षते।
            प्रास्राग्बाहू भुवनस्य प्रजाभ्यो धृतव्रतो महो अज्मस्य राजति॥ ४.०५३.०४

            त्रिरन्तरिक्षं सविता महित्वना त्री रजांसि परिभुस्त्रीणि रोचना।
            तिस्रो दिवः पृथिवीस्तिस्र इन्वति त्रिभिर्व्रतैरभि नो रक्षति त्मना॥ ४.०५३.०५

            बृहत्सुम्नः प्रसवीता निवेशनो जगतः स्थातुरुभयस्य यो वशी।
            स नो देवः सविता शर्म यच्छत्वस्मे क्षयाय त्रिवरूथमंहसः॥ ४.०५३.०६

            आगन्देव ऋतुभिर्वर्धतु क्षयं दधातु नः सविता सुप्रजामिषम्।
            स नः क्षपाभिरहभिश्च जिन्वतु प्रजावन्तं रयिमस्मे समिन्वतु॥ ४.०५३.०७


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 54.

            अभूद्देवः सविता वन्द्यो नु न इदानीमह्न उपवाच्यो नृभिः।
            वि यो रत्ना भजति मानवेभ्यः श्रेष्ठं नो अत्र द्रविणं यथा दधत्॥ ४.०५४.०१

            देवेभ्यो हि प्रथमं यज्ञियेभ्योऽमृतत्वं सुवसि भागमुत्तमम्।
            आदिद्दामानं सवितर्व्यूर्णुषेऽनूचीना जीविता मानुषेभ्यः॥ ४.०५४.०२

            अचित्ती यच्चकृमा दैव्ये जने दीनैर्दक्षैः प्रभूती पूरुषत्वता।
            देवेषु च सवितर्मानुषेषु च त्वं नो अत्र सुवतादनागसः॥ ४.०५४.०३

            न प्रमिये सवितुर्दैव्यस्य तद्यथा विश्वं भुवनं धारयिष्यति।
            यत्पृथिव्या वरिमन्ना स्वङ्गुरिर्वर्ष्मन्दिवः सुवति सत्यमस्य तत्॥ ४.०५४.०४

            इन्द्रज्येष्ठान्बृहद्भ्यः पर्वतेभ्यः क्षयाँ एभ्यः सुवसि पस्त्यावतः।
            यथायथा पतयन्तो वियेमिर एवैव तस्थुः सवितः सवाय ते॥ ४.०५४.०५

            ये ते त्रिरहन्सवितः सवासो दिवेदिवे सौभगमासुवन्ति।
            इन्द्रो द्यावापृथिवी सिन्धुरद्भिरादित्यैर्नो अदितिः शर्म यंसत्॥ ४.०५४.०६


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 55.

            को वस्त्राता वसवः को वरूता द्यावाभूमी अदिते त्रासीथां नः।
            सहीयसो वरुण मित्र मर्तात्को वोऽध्वरे वरिवो धाति देवाः॥ ४.०५५.०१

            प्र ये धामानि पूर्व्याण्यर्चान्वि यदुच्छान्वियोतारो अमूराः।
            विधातारो वि ते दधुरजस्रा ऋतधीतयो रुरुचन्त दस्माः॥ ४.०५५.०२

            प्र पस्त्यामदितिं सिन्धुमर्कैः स्वस्तिमीळे सख्याय देवीम्।
            उभे यथा नो अहनी निपात उषासानक्ता करतामदब्धे॥ ४.०५५.०३

            व्यर्यमा वरुणश्चेति पन्थामिषस्पतिः सुवितं गातुमग्निः।
            इन्द्राविष्णू नृवदु षु स्तवाना शर्म नो यन्तममवद्वरूथम्॥ ४.०५५.०४

            आ पर्वतस्य मरुतामवांसि देवस्य त्रातुरव्रि भगस्य।
            पात्पतिर्जन्यादंहसो नो मित्रो मित्रियादुत न उरुष्येत्॥ ४.०५५.०५

            नू रोदसी अहिना बुध्न्येन स्तुवीत देवी अप्येभिरिष्टैः।
            समुद्रं न संचरणे सनिष्यवो घर्मस्वरसो नद्यो अप व्रन्॥ ४.०५५.०६

            देवैर्नो देव्यदितिर्नि पातु देवस्त्राता त्रायतामप्रयुच्छन्।
            नहि मित्रस्य वरुणस्य धासिमर्हामसि प्रमियं सान्वग्नेः॥ ४.०५५.०७

            अग्निरीशे वसव्यस्याग्निर्महः सौभगस्य।
            तान्यस्मभ्यं रासते॥ ४.०५५.०८

            उषो मघोन्या वह सूनृते वार्या पुरु।
            अस्मभ्यं वाजिनीवति॥ ४.०५५.०९

            तत्सु नः सविता भगो वरुणो मित्रो अर्यमा।
            इन्द्रो नो राधसा गमत्॥ ४.०५५.१०

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 55.

    No comments

    Post Top Ad

    Post Bottom Ad