Header Ads

  • Breaking News

    ऋग्वेदः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 36 to 40.

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 36.

            अनश्वो जातो अनभीशुरुक्थ्यो रथस्त्रिचक्रः परि वर्तते रजः।
            महत्तद्वो देव्यस्य प्रवाचनं द्यामृभवः पृथिवीं यच्च पुष्यथ॥ ४.०३६.०१

            रथं ये चक्रुः सुवृतं सुचेतसोऽविह्वरन्तं मनसस्परि ध्यया।
            ताँ ऊ न्वस्य सवनस्य पीतय आ वो वाजा ऋभवो वेदयामसि॥ ४.०३६.०२

            तद्वो वाजा ऋभवः सुप्रवाचनं देवेषु विभ्वो अभवन्महित्वनम्।
            जिव्री यत्सन्ता पितरा सनाजुरा पुनर्युवाना चरथाय तक्षथ॥ ४.०३६.०३

            एकं वि चक्र चमसं चतुर्वयं निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभिः।
            अथा देवेष्वमृतत्वमानश श्रुष्टी वाजा ऋभवस्तद्व उक्थ्यम्॥ ४.०३६.०४

            ऋभुतो रयिः प्रथमश्रवस्तमो वाजश्रुतासो यमजीजनन्नरः।
            विभ्वतष्टो विदथेषु प्रवाच्यो यं देवासोऽवथा स विचर्षणिः॥ ४.०३६.०५

            स वाज्यर्वा स ऋषिर्वचस्यया स शूरो अस्ता पृतनासु दुष्टरः।
            स रायस्पोषं स सुवीर्यं दधे यं वाजो विभ्वाँ ऋभवो यमाविषुः॥ ४.०३६.०६

            श्रेष्ठं वः पेशो अधि धायि दर्शतं स्तोमो वाजा ऋभवस्तं जुजुष्टन।
            धीरासो हि ष्ठा कवयो विपश्चितस्तान्व एना ब्रह्मणा वेदयामसि॥ ४.०३६.०७

            यूयमस्मभ्यं धिषणाभ्यस्परि विद्वांसो विश्वा नर्याणि भोजना।
            द्युमन्तं वाजं वृषशुष्ममुत्तममा नो रयिमृभवस्तक्षता वयः॥ ४.०३६.०८

            इह प्रजामिह रयिं रराणा इह श्रवो वीरवत्तक्षता नः।
            येन वयं चितयेमात्यन्यान्तं वाजं चित्रमृभवो ददा नः॥ ४.०३६.०९


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 37.

            उप नो वाजा अध्वरमृभुक्षा देवा यात पथिभिर्देवयानैः।
            यथा यज्ञं मनुषो विक्ष्वासु दधिध्वे रण्वाः सुदिनेष्वह्नाम्॥ ४.०३७.०१

            ते वो हृदे मनसे सन्तु यज्ञा जुष्टासो अद्य घृतनिर्णिजो गुः।
            प्र वः सुतासो हरयन्त पूर्णाः क्रत्वे दक्षाय हर्षयन्त पीताः॥ ४.०३७.०२

            त्र्युदायं देवहितं यथा वः स्तोमो वाजा ऋभुक्षणो ददे वः।
            जुह्वे मनुष्वदुपरासु विक्षु युष्मे सचा बृहद्दिवेषु सोमम्॥ ४.०३७.०३

            पीवोअश्वाः शुचद्रथा हि भूतायःशिप्रा वाजिनः सुनिष्काः।
            इन्द्रस्य सूनो शवसो नपातोऽनु वश्चेत्यग्रियं मदाय॥ ४.०३७.०४

            ऋभुमृभुक्षणो रयिं वाजे वाजिन्तमं युजम्।
            इन्द्रस्वन्तं हवामहे सदासातममश्विनम्॥ ४.०३७.०५

            सेदृभवो यमवथ यूयमिन्द्रश्च मर्त्यम्।
            स धीभिरस्तु सनिता मेधसाता सो अर्वता॥ ४.०३७.०६

            वि नो वाजा ऋभुक्षणः पथश्चितन यष्टवे।
            अस्मभ्यं सूरयः स्तुता विश्वा आशास्तरीषणि॥ ४.०३७.०७

            तं नो वाजा ऋभुक्षण इन्द्र नासत्या रयिम्।
            समश्वं चर्षणिभ्य आ पुरु शस्त मघत्तये॥ ४.०३७.०८


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 38.

            उतो हि वां दात्रा सन्ति पूर्वा या पूरुभ्यस्त्रसदस्युर्नितोशे।
            क्षेत्रासां ददथुरुर्वरासां घनं दस्युभ्यो अभिभूतिमुग्रम्॥ ४.०३८.०१

            उत वाजिनं पुरुनिष्षिध्वानं दधिक्रामु ददथुर्विश्वकृष्टिम्।
            ऋजिप्यं श्येनं प्रुषितप्सुमाशुं चर्कृत्यमर्यो नृपतिं न शूरम्॥ ४.०३८.०२

            यं सीमनु प्रवतेव द्रवन्तं विश्वः पूरुर्मदति हर्षमाणः।
            पड्भिर्गृध्यन्तं मेधयुं न शूरं रथतुरं वातमिव ध्रजन्तम्॥ ४.०३८.०३

            यः स्मारुन्धानो गध्या समत्सु सनुतरश्चरति गोषु गच्छन्।
            आविरृजीको विदथा निचिक्यत्तिरो अरतिं पर्याप आयोः॥ ४.०३८.०४

            उत स्मैनं वस्त्रमथिं न तायुमनु क्रोशन्ति क्षितयो भरेषु।
            नीचायमानं जसुरिं न श्येनं श्रवश्चाच्छा पशुमच्च यूथम्॥ ४.०३८.०५

            उत स्मासु प्रथमः सरिष्यन्नि वेवेति श्रेणिभी रथानाम्।
            स्रजं कृण्वानो जन्यो न शुभ्वा रेणुं रेरिहत्किरणं ददश्वान्॥ ४.०३८.०६

            उत स्य वाजी सहुरिरृतावा शुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये।
            तुरं यतीषु तुरयन्नृजिप्योऽधि भ्रुवोः किरते रेणुमृञ्जन्॥ ४.०३८.०७

            उत स्मास्य तन्यतोरिव द्योरृघायतो अभियुजो भयन्ते।
            यदा सहस्रमभि षीमयोधीद्दुर्वर्तुः स्मा भवति भीम ऋञ्जन्॥ ४.०३८.०८

            उत स्मास्य पनयन्ति जना जूतिं कृष्टिप्रो अभिभूतिमाशोः।
            उतैनमाहुः समिथे वियन्तः परा दधिक्रा असरत्सहस्रैः॥ ४.०३८.०९

            आ दधिक्राः शवसा पञ्च कृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान।
            सहस्रसाः शतसा वाज्यर्वा पृणक्तु मध्वा समिमा वचांसि॥ ४.०३८.१०


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 39.

            आशुं दधिक्रां तमु नु ष्टवाम दिवस्पृथिव्या उत चर्किराम।
            उच्छन्तीर्मामुषसः सूदयन्त्वति विश्वानि दुरितानि पर्षन्॥ ४.०३९.०१

            महश्चर्कर्म्यर्वतः क्रतुप्रा दधिक्राव्णः पुरुवारस्य वृष्णः।
            यं पूरुभ्यो दीदिवांसं नाग्निं ददथुर्मित्रावरुणा ततुरिम्॥ ४.०३९.०२

            यो अश्वस्य दधिक्राव्णो अकारीत्समिद्धे अग्ना उषसो व्युष्टौ।
            अनागसं तमदितिः कृणोतु स मित्रेण वरुणेना सजोषाः॥ ४.०३९.०३

            दधिक्राव्ण इष ऊर्जो महो यदमन्महि मरुतां नाम भद्रम्।
            स्वस्तये वरुणं मित्रमग्निं हवामह इन्द्रं वज्रबाहुम्॥ ४.०३९.०४

            इन्द्रमिवेदुभये वि ह्वयन्त उदीराणा यज्ञमुपप्रयन्तः।
            दधिक्रामु सूदनं मर्त्याय ददथुर्मित्रावरुणा नो अश्वम्॥ ४.०३९.०५

            दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।
            सुरभि नो मुखा करत्प्र ण आयूंषि तारिषत्॥ ४.०३९.०६


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 40.

            दधिक्राव्ण इदु नु चर्किराम विश्वा इन्मामुषसः सूदयन्तु।
            अपामग्नेरुषसः सूर्यस्य बृहस्पतेराङ्गिरसस्य जिष्णोः॥ ४.०४०.०१

            सत्वा भरिषो गविषो दुवन्यसच्छ्रवस्यादिष उषसस्तुरण्यसत्।
            सत्यो द्रवो द्रवरः पतंगरो दधिक्रावेषमूर्जं स्वर्जनत्॥ ४.०४०.०२

            उत स्मास्य द्रवतस्तुरण्यतः पर्णं न वेरनु वाति प्रगर्धिनः।
            श्येनस्येव ध्रजतो अङ्कसं परि दधिक्राव्णः सहोर्जा तरित्रतः॥ ४.०४०.०३

            उत स्य वाजी क्षिपणिं तुरण्यति ग्रीवायां बद्धो अपिकक्ष आसनि।
            क्रतुं दधिक्रा अनु संतवीत्वत्पथामङ्कांस्यन्वापनीफणत्॥ ४.०४०.०४

            हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्।
            नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम्॥ ४.०४०.०५

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 40.

    No comments

    Post Top Ad

    Post Bottom Ad