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    ऋग्वेदः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 31 to 35.

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 31.

            कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा।
            कया शचिष्ठया वृता॥ ४.०३१.०१

            कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः।
            दृळ्हा चिदारुजे वसु॥ ४.०३१.०२

            अभी षु णः सखीनामविता जरितॄणाम्।
            शतं भवास्यूतिभिः॥ ४.०३१.०३

            अभी न आ ववृत्स्व चक्रं न वृत्तमर्वतः।
            नियुद्भिश्चर्षणीनाम्॥ ४.०३१.०४

            प्रवता हि क्रतूनामा हा पदेव गच्छसि।
            अभक्षि सूर्ये सचा॥ ४.०३१.०५

            सं यत्त इन्द्र मन्यवः सं चक्राणि दधन्विरे।
            अध त्वे अध सूर्ये॥ ४.०३१.०६

            उत स्मा हि त्वामाहुरिन्मघवानं शचीपते।
            दातारमविदीधयुम्॥ ४.०३१.०७

            उत स्मा सद्य इत्परि शशमानाय सुन्वते।
            पुरू चिन्मंहसे वसु॥ ४.०३१.०८

            नहि ष्मा ते शतं चन राधो वरन्त आमुरः।
            न च्यौत्नानि करिष्यतः॥ ४.०३१.०९

            अस्माँ अवन्तु ते शतमस्मान्सहस्रमूतयः।
            अस्मान्विश्वा अभिष्टयः॥ ४.०३१.१०

            अस्माँ इहा वृणीष्व सख्याय स्वस्तये।
            महो राये दिवित्मते॥ ४.०३१.११

            अस्माँ अविड्ढि विश्वहेन्द्र राया परीणसा।
            अस्मान्विश्वाभिरूतिभिः॥ ४.०३१.१२

            अस्मभ्यं ताँ अपा वृधि व्रजाँ अस्तेव गोमतः।
            नवाभिरिन्द्रोतिभिः॥ ४.०३१.१३

            अस्माकं धृष्णुया रथो द्युमाँ इन्द्रानपच्युतः।
            गव्युरश्वयुरीयते॥ ४.०३१.१४

            अस्माकमुत्तमं कृधि श्रवो देवेषु सूर्य।
            वर्षिष्ठं द्यामिवोपरि॥ ४.०३१.१५


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 32.

            आ तू न इन्द्र वृत्रहन्नस्माकमर्धमा गहि।
            महान्महीभिरूतिभिः॥ ४.०३२.०१

            भृमिश्चिद्घासि तूतुजिरा चित्र चित्रिणीष्वा।
            चित्रं कृणोष्यूतये॥ ४.०३२.०२

            दभ्रेभिश्चिच्छशीयांसं हंसि व्राधन्तमोजसा।
            सखिभिर्ये त्वे सचा॥ ४.०३२.०३

            वयमिन्द्र त्वे सचा वयं त्वाभि नोनुमः।
            अस्माँअस्माँ इदुदव॥ ४.०३२.०४

            स नश्चित्राभिरद्रिवोऽनवद्याभिरूतिभिः।
            अनाधृष्टाभिरा गहि॥ ४.०३२.०५

            भूयामो षु त्वावतः सखाय इन्द्र गोमतः।
            युजो वाजाय घृष्वये॥ ४.०३२.०६

            त्वं ह्येक ईशिष इन्द्र वाजस्य गोमतः।
            स नो यन्धि महीमिषम्॥ ४.०३२.०७

            न त्वा वरन्ते अन्यथा यद्दित्ससि स्तुतो मघम्।
            स्तोतृभ्य इन्द्र गिर्वणः॥ ४.०३२.०८

            अभि त्वा गोतमा गिरानूषत प्र दावने।
            इन्द्र वाजाय घृष्वये॥ ४.०३२.०९

            प्र ते वोचाम वीर्या या मन्दसान आरुजः।
            पुरो दासीरभीत्य॥ ४.०३२.१०

            ता ते गृणन्ति वेधसो यानि चकर्थ पौंस्या।
            सुतेष्विन्द्र गिर्वणः॥ ४.०३२.११

            अवीवृधन्त गोतमा इन्द्र त्वे स्तोमवाहसः।
            ऐषु धा वीरवद्यशः॥ ४.०३२.१२

            यच्चिद्धि शश्वतामसीन्द्र साधारणस्त्वम्।
            तं त्वा वयं हवामहे॥ ४.०३२.१३

            अर्वाचीनो वसो भवास्मे सु मत्स्वान्धसः।
            सोमानामिन्द्र सोमपाः॥ ४.०३२.१४

            अस्माकं त्वा मतीनामा स्तोम इन्द्र यच्छतु।
            अर्वागा वर्तया हरी॥ ४.०३२.१५

            पुरोळाशं च नो घसो जोषयासे गिरश्च नः।
            वधूयुरिव योषणाम्॥ ४.०३२.१६

            सहस्रं व्यतीनां युक्तानामिन्द्रमीमहे।
            शतं सोमस्य खार्यः॥ ४.०३२.१७

            सहस्रा ते शता वयं गवामा च्यावयामसि।
            अस्मत्रा राध एतु ते॥ ४.०३२.१८

            दश ते कलशानां हिरण्यानामधीमहि।
            भूरिदा असि वृत्रहन्॥ ४.०३२.१९

            भूरिदा भूरि देहि नो मा दभ्रं भूर्या भर।
            भूरि घेदिन्द्र दित्ससि॥ ४.०३२.२०

            भूरिदा ह्यसि श्रुतः पुरुत्रा शूर वृत्रहन्।
            आ नो भजस्व राधसि॥ ४.०३२.२१

            प्र ते बभ्रू विचक्षण शंसामि गोषणो नपात्।
            माभ्यां गा अनु शिश्रथः॥ ४.०३२.२२

            कनीनकेव विद्रधे नवे द्रुपदे अर्भके।
            बभ्रू यामेषु शोभेते॥ ४.०३२.२३

            अरं म उस्रयाम्णेऽरमनुस्रयाम्णे।
            बभ्रू यामेष्वस्रिधा॥ ४.०३२.२४


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 33.

            प्र ऋभुभ्यो दूतमिव वाचमिष्य उपस्तिरे श्वैतरीं धेनुमीळे।
            ये वातजूतास्तरणिभिरेवैः परि द्यां सद्यो अपसो बभूवुः॥ ४.०३३.०१

            यदारमक्रन्नृभवः पितृभ्यां परिविष्टी वेषणा दंसनाभिः।
            आदिद्देवानामुप सख्यमायन्धीरासः पुष्टिमवहन्मनायै॥ ४.०३३.०२

            पुनर्ये चक्रुः पितरा युवाना सना यूपेव जरणा शयाना।
            ते वाजो विभ्वाँ ऋभुरिन्द्रवन्तो मधुप्सरसो नोऽवन्तु यज्ञम्॥ ४.०३३.०३

            यत्संवत्समृभवो गामरक्षन्यत्संवत्समृभवो मा अपिंशन्।
            यत्संवत्समभरन्भासो अस्यास्ताभिः शमीभिरमृतत्वमाशुः॥ ४.०३३.०४

            ज्येष्ठ आह चमसा द्वा करेति कनीयान्त्रीन्कृणवामेत्याह।
            कनिष्ठ आह चतुरस्करेति त्वष्ट ऋभवस्तत्पनयद्वचो वः॥ ४.०३३.०५

            सत्यमूचुर्नर एवा हि चक्रुरनु स्वधामृभवो जग्मुरेताम्।
            विभ्राजमानाँश्चमसाँ अहेवावेनत्त्वष्टा चतुरो ददृश्वान्॥ ४.०३३.०६

            द्वादश द्यून्यदगोह्यस्यातिथ्ये रणन्नृभवः ससन्तः।
            सुक्षेत्राकृण्वन्ननयन्त सिन्धून्धन्वातिष्ठन्नोषधीर्निम्नमापः॥ ४.०३३.०७

            रथं ये चक्रुः सुवृतं नरेष्ठां ये धेनुं विश्वजुवं विश्वरूपाम्।
            त आ तक्षन्त्वृभवो रयिं नः स्ववसः स्वपसः सुहस्ताः॥ ४.०३३.०८

            अपो ह्येषामजुषन्त देवा अभि क्रत्वा मनसा दीध्यानाः।
            वाजो देवानामभवत्सुकर्मेन्द्रस्य ऋभुक्षा वरुणस्य विभ्वा॥ ४.०३३.०९

            ये हरी मेधयोक्था मदन्त इन्द्राय चक्रुः सुयुजा ये अश्वा।
            ते रायस्पोषं द्रविणान्यस्मे धत्त ऋभवः क्षेमयन्तो न मित्रम्॥ ४.०३३.१०

            इदाह्नः पीतिमुत वो मदं धुर्न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः।
            ते नूनमस्मे ऋभवो वसूनि तृतीये अस्मिन्सवने दधात॥ ४.०३३.११


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 34.

            ऋभुर्विभ्वा वाज इन्द्रो नो अच्छेमं यज्ञं रत्नधेयोप यात।
            इदा हि वो धिषणा देव्यह्नामधात्पीतिं सं मदा अग्मता वः॥ ४.०३४.०१

            विदानासो जन्मनो वाजरत्ना उत ऋतुभिरृभवो मादयध्वम्।
            सं वो मदा अग्मत सं पुरंधिः सुवीरामस्मे रयिमेरयध्वम्॥ ४.०३४.०२

            अयं वो यज्ञ ऋभवोऽकारि यमा मनुष्वत्प्रदिवो दधिध्वे।
            प्र वोऽच्छा जुजुषाणासो अस्थुरभूत विश्वे अग्रियोत वाजाः॥ ४.०३४.०३

            अभूदु वो विधते रत्नधेयमिदा नरो दाशुषे मर्त्याय।
            पिबत वाजा ऋभवो ददे वो महि तृतीयं सवनं मदाय॥ ४.०३४.०४

            आ वाजा यातोप न ऋभुक्षा महो नरो द्रविणसो गृणानाः।
            आ वः पीतयोऽभिपित्वे अह्नामिमा अस्तं नवस्व इव ग्मन्॥ ४.०३४.०५

            आ नपातः शवसो यातनोपेमं यज्ञं नमसा हूयमानाः।
            सजोषसः सूरयो यस्य च स्थ मध्वः पात रत्नधा इन्द्रवन्तः॥ ४.०३४.०६

            सजोषा इन्द्र वरुणेन सोमं सजोषाः पाहि गिर्वणो मरुद्भिः।
            अग्रेपाभिरृतुपाभिः सजोषा ग्नास्पत्नीभी रत्नधाभिः सजोषाः॥ ४.०३४.०७

            सजोषस आदित्यैर्मादयध्वं सजोषस ऋभवः पर्वतेभिः।
            सजोषसो दैव्येना सवित्रा सजोषसः सिन्धुभी रत्नधेभिः॥ ४.०३४.०८

            ये अश्विना ये पितरा य ऊती धेनुं ततक्षुरृभवो ये अश्वा।
            ये अंसत्रा य ऋधग्रोदसी ये विभ्वो नरः स्वपत्यानि चक्रुः॥ ४.०३४.०९

            ये गोमन्तं वाजवन्तं सुवीरं रयिं धत्थ वसुमन्तं पुरुक्षुम्।
            ते अग्रेपा ऋभवो मन्दसाना अस्मे धत्त ये च रातिं गृणन्ति॥ ४.०३४.१०

            नापाभूत न वोऽतीतृषामानिःशस्ता ऋभवो यज्ञे अस्मिन्।
            समिन्द्रेण मदथ सं मरुद्भिः सं राजभी रत्नधेयाय देवाः॥ ४.०३४.११


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 35.

            इहोप यात शवसो नपातः सौधन्वना ऋभवो माप भूत।
            अस्मिन्हि वः सवने रत्नधेयं गमन्त्विन्द्रमनु वो मदासः॥ ४.०३५.०१

            आगन्नृभूणामिह रत्नधेयमभूत्सोमस्य सुषुतस्य पीतिः।
            सुकृत्यया यत्स्वपस्यया चँ एकं विचक्र चमसं चतुर्धा॥ ४.०३५.०२

            व्यकृणोत चमसं चतुर्धा सखे वि शिक्षेत्यब्रवीत।
            अथैत वाजा अमृतस्य पन्थां गणं देवानामृभवः सुहस्ताः॥ ४.०३५.०३

            किम्मयः स्विच्चमस एष आस यं काव्येन चतुरो विचक्र।
            अथा सुनुध्वं सवनं मदाय पात ऋभवो मधुनः सोम्यस्य॥ ४.०३५.०४

            शच्याकर्त पितरा युवाना शच्याकर्त चमसं देवपानम्।
            शच्या हरी धनुतरावतष्टेन्द्रवाहावृभवो वाजरत्नाः॥ ४.०३५.०५

            यो वः सुनोत्यभिपित्वे अह्नां तीव्रं वाजासः सवनं मदाय।
            तस्मै रयिमृभवः सर्ववीरमा तक्षत वृषणो मन्दसानाः॥ ४.०३५.०६

            प्रातः सुतमपिबो हर्यश्व माध्यंदिनं सवनं केवलं ते।
            समृभुभिः पिबस्व रत्नधेभिः सखीँर्याँ इन्द्र चकृषे सुकृत्या॥ ४.०३५.०७

            ये देवासो अभवता सुकृत्या श्येना इवेदधि दिवि निषेद।
            ते रत्नं धात शवसो नपातः सौधन्वना अभवतामृतासः॥ ४.०३५.०८

            यत्तृतीयं सवनं रत्नधेयमकृणुध्वं स्वपस्या सुहस्ताः।
            तदृभवः परिषिक्तं व एतत्सं मदेभिरिन्द्रियेभिः पिबध्वम्॥ ४.०३५.०९

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 35.

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