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    ऋग्वेदः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 21 to 25.

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 21.

            आ यात्विन्द्रोऽवस उप न इह स्तुतः सधमादस्तु शूरः।
            वावृधानस्तविषीर्यस्य पूर्वीर्द्यौर्न क्षत्रमभिभूति पुष्यात्॥ ४.०२१.०१

            तस्येदिह स्तवथ वृष्ण्यानि तुविद्युम्नस्य तुविराधसो नॄन्।
            यस्य क्रतुर्विदथ्यो न सम्राट् साह्वान्तरुत्रो अभ्यस्ति कृष्टीः॥ ४.०२१.०२

            आ यात्विन्द्रो दिव आ पृथिव्या मक्षू समुद्रादुत वा पुरीषात्।
            स्वर्णरादवसे नो मरुत्वान्परावतो वा सदनादृतस्य॥ ४.०२१.०३

            स्थूरस्य रायो बृहतो य ईशे तमु ष्टवाम विदथेष्विन्द्रम्।
            यो वायुना जयति गोमतीषु प्र धृष्णुया नयति वस्यो अच्छ॥ ४.०२१.०४

            उप यो नमो नमसि स्तभायन्नियर्ति वाचं जनयन्यजध्यै।
            ऋञ्जसानः पुरुवार उक्थैरेन्द्रं कृण्वीत सदनेषु होता॥ ४.०२१.०५

            धिषा यदि धिषण्यन्तः सरण्यान्सदन्तो अद्रिमौशिजस्य गोहे।
            आ दुरोषाः पास्त्यस्य होता यो नो महान्संवरणेषु वह्निः॥ ४.०२१.०६

            सत्रा यदीं भार्वरस्य वृष्णः सिषक्ति शुष्मः स्तुवते भराय।
            गुहा यदीमौशिजस्य गोहे प्र यद्धिये प्रायसे मदाय॥ ४.०२१.०७

            वि यद्वरांसि पर्वतस्य वृण्वे पयोभिर्जिन्वे अपां जवांसि।
            विदद्गौरस्य गवयस्य गोहे यदी वाजाय सुध्यो वहन्ति॥ ४.०२१.०८

            भद्रा ते हस्ता सुकृतोत पाणी प्रयन्तारा स्तुवते राध इन्द्र।
            का ते निषत्तिः किमु नो ममत्सि किं नोदुदु हर्षसे दातवा उ॥ ४.०२१.०९

            एवा वस्व इन्द्रः सत्यः सम्राड्ढन्ता वृत्रं वरिवः पूरवे कः।
            पुरुष्टुत क्रत्वा नः शग्धि रायो भक्षीय तेऽवसो दैव्यस्य॥ ४.०२१.१०

            नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः।
            अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः॥ ४.०२१.११


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 22.

            यन्न इन्द्रो जुजुषे यच्च वष्टि तन्नो महान्करति शुष्म्या चित्।
            ब्रह्म स्तोमं मघवा सोममुक्था यो अश्मानं शवसा बिभ्रदेति॥ ४.०२२.०१

            वृषा वृषन्धिं चतुरश्रिमस्यन्नुग्रो बाहुभ्यां नृतमः शचीवान्।
            श्रिये परुष्णीमुषमाण ऊर्णां यस्याः पर्वाणि सख्याय विव्ये॥ ४.०२२.०२

            यो देवो देवतमो जायमानो महो वाजेभिर्महद्भिश्च शुष्मैः।
            दधानो वज्रं बाह्वोरुशन्तं द्याममेन रेजयत्प्र भूम॥ ४.०२२.०३

            विश्वा रोधांसि प्रवतश्च पूर्वीर्द्यौरृष्वाज्जनिमन्रेजत क्षाः।
            आ मातरा भरति शुष्म्या गोर्नृवत्परिज्मन्नोनुवन्त वाताः॥ ४.०२२.०४

            ता तू त इन्द्र महतो महानि विश्वेष्वित्सवनेषु प्रवाच्या।
            यच्छूर धृष्णो धृषता दधृष्वानहिं वज्रेण शवसाविवेषीः॥ ४.०२२.०५

            ता तू ते सत्या तुविनृम्ण विश्वा प्र धेनवः सिस्रते वृष्ण ऊध्नः।
            अधा ह त्वद्वृषमणो भियानाः प्र सिन्धवो जवसा चक्रमन्त॥ ४.०२२.०६

            अत्राह ते हरिवस्ता उ देवीरवोभिरिन्द्र स्तवन्त स्वसारः।
            यत्सीमनु प्र मुचो बद्बधाना दीर्घामनु प्रसितिं स्यन्दयध्यै॥ ४.०२२.०७

            पिपीळे अंशुर्मद्यो न सिन्धुरा त्वा शमी शशमानस्य शक्तिः।
            अस्मद्र्यक्छुशुचानस्य यम्या आशुर्न रश्मिं तुव्योजसं गोः॥ ४.०२२.०८

            अस्मे वर्षिष्ठा कृणुहि ज्येष्ठा नृम्णानि सत्रा सहुरे सहांसि।
            अस्मभ्यं वृत्रा सुहनानि रन्धि जहि वधर्वनुषो मर्त्यस्य॥ ४.०२२.०९

            अस्माकमित्सु शृणुहि त्वमिन्द्रास्मभ्यं चित्राँ उप माहि वाजान्।
            अस्मभ्यं विश्वा इषणः पुरंधीरस्माकं सु मघवन्बोधि गोदाः॥ ४.०२२.१०

            नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः।
            अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः॥ ४.०२२.११


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 23.

            कथा महामवृधत्कस्य होतुर्यज्ञं जुषाणो अभि सोममूधः।
            पिबन्नुशानो जुषमाणो अन्धो ववक्ष ऋष्वः शुचते धनाय॥ ४.०२३.०१

            को अस्य वीरः सधमादमाप समानंश सुमतिभिः को अस्य।
            कदस्य चित्रं चिकिते कदूती वृधे भुवच्छशमानस्य यज्योः॥ ४.०२३.०२

            कथा शृणोति हूयमानमिन्द्रः कथा शृण्वन्नवसामस्य वेद।
            का अस्य पूर्वीरुपमातयो ह कथैनमाहुः पपुरिं जरित्रे॥ ४.०२३.०३

            कथा सबाधः शशमानो अस्य नशदभि द्रविणं दीध्यानः।
            देवो भुवन्नवेदा म ऋतानां नमो जगृभ्वाँ अभि यज्जुजोषत्॥ ४.०२३.०४

            कथा कदस्या उषसो व्युष्टौ देवो मर्तस्य सख्यं जुजोष।
            कथा कदस्य सख्यं सखिभ्यो ये अस्मिन्कामं सुयुजं ततस्रे॥ ४.०२३.०५

            किमादमत्रं सख्यं सखिभ्यः कदा नु ते भ्रात्रं प्र ब्रवाम।
            श्रिये सुदृशो वपुरस्य सर्गाः स्वर्ण चित्रतममिष आ गोः॥ ४.०२३.०६

            द्रुहं जिघांसन्ध्वरसमनिन्द्रां तेतिक्ते तिग्मा तुजसे अनीका।
            ऋणा चिद्यत्र ऋणया न उग्रो दूरे अज्ञाता उषसो बबाधे॥ ४.०२३.०७

            ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीरृतस्य धीतिर्वृजिनानि हन्ति।
            ऋतस्य श्लोको बधिरा ततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः॥ ४.०२३.०८

            ऋतस्य दृळ्हा धरुणानि सन्ति पुरूणि चन्द्रा वपुषे वपूंषि।
            ऋतेन दीर्घमिषणन्त पृक्ष ऋतेन गाव ऋतमा विवेशुः॥ ४.०२३.०९

            ऋतं येमान ऋतमिद्वनोत्यृतस्य शुष्मस्तुरया उ गव्युः।
            ऋताय पृथ्वी बहुले गभीरे ऋताय धेनू परमे दुहाते॥ ४.०२३.१०

            नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः।
            अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः॥ ४.०२३.११


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 24.

            का सुष्टुतिः शवसः सूनुमिन्द्रमर्वाचीनं राधस आ ववर्तत्।
            ददिर्हि वीरो गृणते वसूनि स गोपतिर्निष्षिधां नो जनासः॥ ४.०२४.०१

            स वृत्रहत्ये हव्यः स ईड्यः स सुष्टुत इन्द्रः सत्यराधाः।
            स यामन्ना मघवा मर्त्याय ब्रह्मण्यते सुष्वये वरिवो धात्॥ ४.०२४.०२

            तमिन्नरो वि ह्वयन्ते समीके रिरिक्वांसस्तन्वः कृण्वत त्राम्।
            मिथो यत्त्यागमुभयासो अग्मन्नरस्तोकस्य तनयस्य सातौ॥ ४.०२४.०३

            क्रतूयन्ति क्षितयो योग उग्राशुषाणासो मिथो अर्णसातौ।
            सं यद्विशोऽववृत्रन्त युध्मा आदिन्नेम इन्द्रयन्ते अभीके॥ ४.०२४.०४

            आदिद्ध नेम इन्द्रियं यजन्त आदित्पक्तिः पुरोळाशं रिरिच्यात्।
            आदित्सोमो वि पपृच्यादसुष्वीनादिज्जुजोष वृषभं यजध्यै॥ ४.०२४.०५

            कृणोत्यस्मै वरिवो य इत्थेन्द्राय सोममुशते सुनोति।
            सध्रीचीनेन मनसाविवेनन्तमित्सखायं कृणुते समत्सु॥ ४.०२४.०६

            य इन्द्राय सुनवत्सोममद्य पचात्पक्तीरुत भृज्जाति धानाः।
            प्रति मनायोरुचथानि हर्यन्तस्मिन्दधद्वृषणं शुष्ममिन्द्रः॥ ४.०२४.०७

            यदा समर्यं व्यचेदृघावा दीर्घं यदाजिमभ्यख्यदर्यः।
            अचिक्रदद्वृषणं पत्न्यच्छा दुरोण आ निशितं सोमसुद्भिः॥ ४.०२४.०८

            भूयसा वस्नमचरत्कनीयोऽविक्रीतो अकानिषं पुनर्यन्।
            स भूयसा कनीयो नारिरेचीद्दीना दक्षा वि दुहन्ति प्र वाणम्॥ ४.०२४.०९

            क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः।
            यदा वृत्राणि जङ्घनदथैनं मे पुनर्ददत्॥ ४.०२४.१०

            नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः।
            अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः॥ ४.०२४.११


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 25.

            को अद्य नर्यो देवकाम उशन्निन्द्रस्य सख्यं जुजोष।
            को वा महेऽवसे पार्याय समिद्धे अग्नौ सुतसोम ईट्टे॥ ४.०२५.०१

            को नानाम वचसा सोम्याय मनायुर्वा भवति वस्त उस्राः।
            क इन्द्रस्य युज्यं कः सखित्वं को भ्रात्रं वष्टि कवये क ऊती॥ ४.०२५.०२

            को देवानामवो अद्या वृणीते क आदित्याँ अदितिं ज्योतिरीट्टे।
            कस्याश्विनाविन्द्रो अग्निः सुतस्यांशोः पिबन्ति मनसाविवेनम्॥ ४.०२५.०३

            तस्मा अग्निर्भारतः शर्म यंसज्ज्योक्पश्यात्सूर्यमुच्चरन्तम्।
            य इन्द्राय सुनवामेत्याह नरे नर्याय नृतमाय नृणाम्॥ ४.०२५.०४

            न तं जिनन्ति बहवो न दभ्रा उर्वस्मा अदितिः शर्म यंसत्।
            प्रियः सुकृत्प्रिय इन्द्रे मनायुः प्रियः सुप्रावीः प्रियो अस्य सोमी॥ ४.०२५.०५

            सुप्राव्यः प्राशुषाळेष वीरः सुष्वेः पक्तिं कृणुते केवलेन्द्रः।
            नासुष्वेरापिर्न सखा न जामिर्दुष्प्राव्योऽवहन्तेदवाचः॥ ४.०२५.०६

            न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रोऽसुन्वता सुतपाः सं गृणीते।
            आस्य वेदः खिदति हन्ति नग्नं वि सुष्वये पक्तये केवलो भूत्॥ ४.०२५.०७

            इन्द्रं परेऽवरे मध्यमास इन्द्रं यान्तोऽवसितास इन्द्रम्।
            इन्द्रं क्षियन्त उत युध्यमाना इन्द्रं नरो वाजयन्तो हवन्ते॥ ४.०२५.०८

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 25.

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