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    ऋग्वेदः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 16 to 20.

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 16.

            आ सत्यो यातु मघवाँ ऋजीषी द्रवन्त्वस्य हरय उप नः।
            तस्मा इदन्धः सुषुमा सुदक्षमिहाभिपित्वं करते गृणानः॥ ४.०१६.०१

            अव स्य शूराध्वनो नान्तेऽस्मिन्नो अद्य सवने मन्दध्यै।
            शंसात्युक्थमुशनेव वेधाश्चिकितुषे असुर्याय मन्म॥ ४.०१६.०२

            कविर्न निण्यं विदथानि साधन्वृषा यत्सेकं विपिपानो अर्चात्।
            दिव इत्था जीजनत्सप्त कारूनह्ना चिच्चक्रुर्वयुना गृणन्तः॥ ४.०१६.०३

            स्वर्यद्वेदि सुदृशीकमर्कैर्महि ज्योती रुरुचुर्यद्ध वस्तोः।
            अन्धा तमांसि दुधिता विचक्षे नृभ्यश्चकार नृतमो अभिष्टौ॥ ४.०१६.०४

            ववक्ष इन्द्रो अमितमृजीष्युभे आ पप्रौ रोदसी महित्वा।
            अतश्चिदस्य महिमा वि रेच्यभि यो विश्वा भुवना बभूव॥ ४.०१६.०५

            विश्वानि शक्रो नर्याणि विद्वानपो रिरेच सखिभिर्निकामैः।
            अश्मानं चिद्ये बिभिदुर्वचोभिर्व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः॥ ४.०१६.०६

            अपो वृत्रं वव्रिवांसं पराहन्प्रावत्ते वज्रं पृथिवी सचेताः।
            प्रार्णांसि समुद्रियाण्यैनोः पतिर्भवञ्छवसा शूर धृष्णो॥ ४.०१६.०७

            अपो यदद्रिं पुरुहूत दर्दराविर्भुवत्सरमा पूर्व्यं ते।
            स नो नेता वाजमा दर्षि भूरिं गोत्रा रुजन्नङ्गिरोभिर्गृणानः॥ ४.०१६.०८

            अच्छा कविं नृमणो गा अभिष्टौ स्वर्षाता मघवन्नाधमानम्।
            ऊतिभिस्तमिषणो द्युम्नहूतौ नि मायावानब्रह्मा दस्युरर्त॥ ४.०१६.०९

            आ दस्युघ्ना मनसा याह्यस्तं भुवत्ते कुत्सः सख्ये निकामः।
            स्वे योनौ नि षदतं सरूपा वि वां चिकित्सदृतचिद्ध नारी॥ ४.०१६.१०

            यासि कुत्सेन सरथमवस्युस्तोदो वातस्य हर्योरीशानः।
            ऋज्रा वाजं न गध्यं युयूषन्कविर्यदहन्पार्याय भूषात्॥ ४.०१६.११

            कुत्साय शुष्णमशुषं नि बर्हीः प्रपित्वे अह्नः कुयवं सहस्रा।
            सद्यो दस्यून्प्र मृण कुत्स्येन प्र सूरश्चक्रं वृहतादभीके॥ ४.०१६.१२

            त्वं पिप्रुं मृगयं शूशुवांसमृजिश्वने वैदथिनाय रन्धीः।
            पञ्चाशत्कृष्णा नि वपः सहस्रात्कं न पुरो जरिमा वि दर्दः॥ ४.०१६.१३

            सूर उपाके तन्वं दधानो वि यत्ते चेत्यमृतस्य वर्पः।
            मृगो न हस्ती तविषीमुषाणः सिंहो न भीम आयुधानि बिभ्रत्॥ ४.०१६.१४

            इन्द्रं कामा वसूयन्तो अग्मन्स्वर्मीळ्हे न सवने चकानाः।
            श्रवस्यवः शशमानास उक्थैरोको न रण्वा सुदृशीव पुष्टिः॥ ४.०१६.१५

            तमिद्व इन्द्रं सुहवं हुवेम यस्ता चकार नर्या पुरूणि।
            यो मावते जरित्रे गध्यं चिन्मक्षू वाजं भरति स्पार्हराधाः॥ ४.०१६.१६

            तिग्मा यदन्तरशनिः पताति कस्मिञ्चिच्छूर मुहुके जनानाम्।
            घोरा यदर्य समृतिर्भवात्यध स्मा नस्तन्वो बोधि गोपाः॥ ४.०१६.१७

            भुवोऽविता वामदेवस्य धीनां भुवः सखावृको वाजसातौ।
            त्वामनु प्रमतिमा जगन्मोरुशंसो जरित्रे विश्वध स्याः॥ ४.०१६.१८

            एभिर्नृभिरिन्द्र त्वायुभिष्ट्वा मघवद्भिर्मघवन्विश्व आजौ।
            द्यावो न द्युम्नैरभि सन्तो अर्यः क्षपो मदेम शरदश्च पूर्वीः॥ ४.०१६.१९

            एवेदिन्द्राय वृषभाय वृष्णे ब्रह्माकर्म भृगवो न रथम्।
            नू चिद्यथा नः सख्या वियोषदसन्न उग्रोऽविता तनूपाः॥ ४.०१६.२०

            नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः।
            अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः॥ ४.०१६.२१


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 17.

            त्वं महाँ इन्द्र तुभ्यं ह क्षा अनु क्षत्रं मंहना मन्यत द्यौः।
            त्वं वृत्रं शवसा जघन्वान्सृजः सिन्धूँरहिना जग्रसानान्॥ ४.०१७.०१

            तव त्विषो जनिमन्रेजत द्यौ रेजद्भूमिर्भियसा स्वस्य मन्योः।
            ऋघायन्त सुभ्वः पर्वतास आर्दन्धन्वानि सरयन्त आपः॥ ४.०१७.०२

            भिनद्गिरिं शवसा वज्रमिष्णन्नाविष्कृण्वानः सहसान ओजः।
            वधीद्वृत्रं वज्रेण मन्दसानः सरन्नापो जवसा हतवृष्णीः॥ ४.०१७.०३

            सुवीरस्ते जनिता मन्यत द्यौरिन्द्रस्य कर्ता स्वपस्तमो भूत्।
            य ईं जजान स्वर्यं सुवज्रमनपच्युतं सदसो न भूम॥ ४.०१७.०४

            य एक इच्च्यावयति प्र भूमा राजा कृष्टीनां पुरुहूत इन्द्रः।
            सत्यमेनमनु विश्वे मदन्ति रातिं देवस्य गृणतो मघोनः॥ ४.०१७.०५

            सत्रा सोमा अभवन्नस्य विश्वे सत्रा मदासो बृहतो मदिष्ठाः।
            सत्राभवो वसुपतिर्वसूनां दत्रे विश्वा अधिथा इन्द्र कृष्टीः॥ ४.०१७.०६

            त्वमध प्रथमं जायमानोऽमे विश्वा अधिथा इन्द्र कृष्टीः।
            त्वं प्रति प्रवत आशयानमहिं वज्रेण मघवन्वि वृश्चः॥ ४.०१७.०७

            सत्राहणं दाधृषिं तुम्रमिन्द्रं महामपारं वृषभं सुवज्रम्।
            हन्ता यो वृत्रं सनितोत वाजं दाता मघानि मघवा सुराधाः॥ ४.०१७.०८

            अयं वृतश्चातयते समीचीर्य आजिषु मघवा शृण्व एकः।
            अयं वाजं भरति यं सनोत्यस्य प्रियासः सख्ये स्याम॥ ४.०१७.०९

            अयं शृण्वे अध जयन्नुत घ्नन्नयमुत प्र कृणुते युधा गाः।
            यदा सत्यं कृणुते मन्युमिन्द्रो विश्वं दृळ्हं भयत एजदस्मात्॥ ४.०१७.१०

            समिन्द्रो गा अजयत्सं हिरण्या समश्विया मघवा यो ह पूर्वीः।
            एभिर्नृभिर्नृतमो अस्य शाकै रायो विभक्ता सम्भरश्च वस्वः॥ ४.०१७.११

            कियत्स्विदिन्द्रो अध्येति मातुः कियत्पितुर्जनितुर्यो जजान।
            यो अस्य शुष्मं मुहुकैरियर्ति वातो न जूतः स्तनयद्भिरभ्रैः॥ ४.०१७.१२

            क्षियन्तं त्वमक्षियन्तं कृणोतीयर्ति रेणुं मघवा समोहम्।
            विभञ्जनुरशनिमाँ इव द्यौरुत स्तोतारं मघवा वसौ धात्॥ ४.०१७.१३

            अयं चक्रमिषणत्सूर्यस्य न्येतशं रीरमत्ससृमाणम्।
            आ कृष्ण ईं जुहुराणो जिघर्ति त्वचो बुध्ने रजसो अस्य योनौ॥ ४.०१७.१४

            असिक्न्यां यजमानो न होता॥ ४.०१७.१५

            गव्यन्त इन्द्रं सख्याय विप्रा अश्वायन्तो वृषणं वाजयन्तः।
            जनीयन्तो जनिदामक्षितोतिमा च्यावयामोऽवते न कोशम्॥ ४.०१७.१६

            त्राता नो बोधि ददृशान आपिरभिख्याता मर्डिता सोम्यानाम्।
            सखा पिता पितृतमः पितॄणां कर्तेमु लोकमुशते वयोधाः॥ ४.०१७.१७

            सखीयतामविता बोधि सखा गृणान इन्द्र स्तुवते वयो धाः।
            वयं ह्या ते चकृमा सबाध आभिः शमीभिर्महयन्त इन्द्र॥ ४.०१७.१८

            स्तुत इन्द्रो मघवा यद्ध वृत्रा भूरीण्येको अप्रतीनि हन्ति।
            अस्य प्रियो जरिता यस्य शर्मन्नकिर्देवा वारयन्ते न मर्ताः॥ ४.०१७.१९

            एवा न इन्द्रो मघवा विरप्शी करत्सत्या चर्षणीधृदनर्वा।
            त्वं राजा जनुषां धेह्यस्मे अधि श्रवो माहिनं यज्जरित्रे॥ ४.०१७.२०

            नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः।
            अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः॥ ४.०१७.२१


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 18.

            अयं पन्था अनुवित्तः पुराणो यतो देवा उदजायन्त विश्वे।
            अतश्चिदा जनिषीष्ट प्रवृद्धो मा मातरममुया पत्तवे कः॥ ४.०१८.०१

            नाहमतो निरया दुर्गहैतत्तिरश्चता पार्श्वान्निर्गमाणि।
            बहूनि मे अकृता कर्त्वानि युध्यै त्वेन सं त्वेन पृच्छै॥ ४.०१८.०२

            परायतीं मातरमन्वचष्ट न नानु गान्यनु नू गमानि।
            त्वष्टुर्गृहे अपिबत्सोममिन्द्रः शतधन्यं चम्वोः सुतस्य॥ ४.०१८.०३

            किं स ऋधक्कृणवद्यं सहस्रं मासो जभार शरदश्च पूर्वीः।
            नही न्वस्य प्रतिमानमस्त्यन्तर्जातेषूत ये जनित्वाः॥ ४.०१८.०४

            अवद्यमिव मन्यमाना गुहाकरिन्द्रं माता वीर्येणा न्यृष्टम्।
            अथोदस्थात्स्वयमत्कं वसान आ रोदसी अपृणाज्जायमानः॥ ४.०१८.०५

            एता अर्षन्त्यललाभवन्तीरृतावरीरिव संक्रोशमानाः।
            एता वि पृच्छ किमिदं भनन्ति कमापो अद्रिं परिधिं रुजन्ति॥ ४.०१८.०६

            किमु ष्विदस्मै निविदो भनन्तेन्द्रस्यावद्यं दिधिषन्त आपः।
            ममैतान्पुत्रो महता वधेन वृत्रं जघन्वाँ असृजद्वि सिन्धून्॥ ४.०१८.०७

            ममच्चन त्वा युवतिः परास ममच्चन त्वा कुषवा जगार।
            ममच्चिदापः शिशवे ममृड्युर्ममच्चिदिन्द्रः सहसोदतिष्ठत्॥ ४.०१८.०८

            ममच्चन ते मघवन्व्यंसो निविविध्वाँ अप हनू जघान।
            अधा निविद्ध उत्तरो बभूवाञ्छिरो दासस्य सं पिणग्वधेन॥ ४.०१८.०९

            गृष्टिः ससूव स्थविरं तवागामनाधृष्यं वृषभं तुम्रमिन्द्रम्।
            अरीळ्हं वत्सं चरथाय माता स्वयं गातुं तन्व इच्छमानम्॥ ४.०१८.१०

            उत माता महिषमन्ववेनदमी त्वा जहति पुत्र देवाः।
            अथाब्रवीद्वृत्रमिन्द्रो हनिष्यन्सखे विष्णो वितरं वि क्रमस्व॥ ४.०१८.११

            कस्ते मातरं विधवामचक्रच्छयुं कस्त्वामजिघांसच्चरन्तम्।
            कस्ते देवो अधि मार्डीक आसीद्यत्प्राक्षिणाः पितरं पादगृह्य॥ ४.०१८.१२

            अवर्त्या शुन आन्त्राणि पेचे न देवेषु विविदे मर्डितारम्।
            अपश्यं जायाममहीयमानामधा मे श्येनो मध्वा जभार॥ ४.०१८.१३


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 19.

            एवा त्वामिन्द्र वज्रिन्नत्र विश्वे देवासः सुहवास ऊमाः।
            महामुभे रोदसी वृद्धमृष्वं निरेकमिद्वृणते वृत्रहत्ये॥ ४.०१९.०१

            अवासृजन्त जिव्रयो न देवा भुवः सम्राळिन्द्र सत्ययोनिः।
            अहन्नहिं परिशयानमर्णः प्र वर्तनीररदो विश्वधेनाः॥ ४.०१९.०२

            अतृप्णुवन्तं वियतमबुध्यमबुध्यमानं सुषुपाणमिन्द्र।
            सप्त प्रति प्रवत आशयानमहिं वज्रेण वि रिणा अपर्वन्॥ ४.०१९.०३

            अक्षोदयच्छवसा क्षाम बुध्नं वार्ण वातस्तविषीभिरिन्द्रः।
            दृळ्हान्यौभ्नादुशमान ओजोऽवाभिनत्ककुभः पर्वतानाम्॥ ४.०१९.०४

            अभि प्र दद्रुर्जनयो न गर्भं रथा इव प्र ययुः साकमद्रयः।
            अतर्पयो विसृत उब्ज ऊर्मीन्त्वं वृताँ अरिणा इन्द्र सिन्धून्॥ ४.०१९.०५

            त्वं महीमवनिं विश्वधेनां तुर्वीतये वय्याय क्षरन्तीम्।
            अरमयो नमसैजदर्णः सुतरणाँ अकृणोरिन्द्र सिन्धून्॥ ४.०१९.०६

            प्राग्रुवो नभन्वो न वक्वा ध्वस्रा अपिन्वद्युवतीरृतज्ञाः।
            धन्वान्यज्राँ अपृणक्तृषाणाँ अधोगिन्द्रः स्तर्यो दंसुपत्नीः॥ ४.०१९.०७

            पूर्वीरुषसः शरदश्च गूर्ता वृत्रं जघन्वाँ असृजद्वि सिन्धून्।
            परिष्ठिता अतृणद्बद्बधानाः सीरा इन्द्रः स्रवितवे पृथिव्या॥ ४.०१९.०८

            वम्रीभिः पुत्रमग्रुवो अदानं निवेशनाद्धरिव आ जभर्थ।
            व्यन्धो अख्यदहिमाददानो निर्भूदुखच्छित्समरन्त पर्व॥ ४.०१९.०९

            प्र ते पूर्वाणि करणानि विप्राविद्वाँ आह विदुषे करांसि।
            यथायथा वृष्ण्यानि स्वगूर्तापांसि राजन्नर्याविवेषीः॥ ४.०१९.१०

            नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः।
            अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः॥ ४.०१९.११


    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 20.

            आ न इन्द्रो दूरादा न आसादभिष्टिकृदवसे यासदुग्रः।
            ओजिष्ठेभिर्नृपतिर्वज्रबाहुः संगे समत्सु तुर्वणिः पृतन्यून्॥ ४.०२०.०१

            आ न इन्द्रो हरिभिर्यात्वच्छार्वाचीनोऽवसे राधसे च।
            तिष्ठाति वज्री मघवा विरप्शीमं यज्ञमनु नो वाजसातौ॥ ४.०२०.०२

            इमं यज्ञं त्वमस्माकमिन्द्र पुरो दधत्सनिष्यसि क्रतुं नः।
            श्वघ्नीव वज्रिन्सनये धनानां त्वया वयमर्य आजिं जयेम॥ ४.०२०.०३

            उशन्नु षु णः सुमना उपाके सोमस्य नु सुषुतस्य स्वधावः।
            पा इन्द्र प्रतिभृतस्य मध्वः समन्धसा ममदः पृष्ठ्येन॥ ४.०२०.०४

            वि यो ररप्श ऋषिभिर्नवेभिर्वृक्षो न पक्वः सृण्यो न जेता।
            मर्यो न योषामभि मन्यमानोऽच्छा विवक्मि पुरुहूतमिन्द्रम्॥ ४.०२०.०५

            गिरिर्न यः स्वतवाँ ऋष्व इन्द्रः सनादेव सहसे जात उग्रः।
            आदर्ता वज्रं स्थविरं न भीम उद्नेव कोशं वसुना न्यृष्टम्॥ ४.०२०.०६

            न यस्य वर्ता जनुषा न्वस्ति न राधस आमरीता मघस्य।
            उद्वावृषाणस्तविषीव उग्रास्मभ्यं दद्धि पुरुहूत रायः॥ ४.०२०.०७

            ईक्षे रायः क्षयस्य चर्षणीनामुत व्रजमपवर्तासि गोनाम्।
            शिक्षानरः समिथेषु प्रहावान्वस्वो राशिमभिनेतासि भूरिम्॥ ४.०२०.०८

            कया तच्छृण्वे शच्या शचिष्ठो यया कृणोति मुहु का चिदृष्वः।
            पुरु दाशुषे विचयिष्ठो अंहोऽथा दधाति द्रविणं जरित्रे॥ ४.०२०.०९

            मा नो मर्धीरा भरा दद्धि तन्नः प्र दाशुषे दातवे भूरि यत्ते।
            नव्ये देष्णे शस्ते अस्मिन्त उक्थे प्र ब्रवाम वयमिन्द्र स्तुवन्तः॥ ४.०२०.१०

            नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः।
            अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः॥ ४.०२०.११

    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं ४. Rigveda, Mandala - 4, Sukta - 20.

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