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    ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं १॥



            ॥ ऋग्वेदः वैदिकस्वरविरहितः मण्डलं १॥


            अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।

            होतारं रत्नधातमम्॥ १.००१.०१

            अग्निः पूर्वेभिरृषिभिरीड्यो नूतनैरुत।

            स देवाँ एह वक्षति॥ १.००१.०२

            अग्निना रयिमश्नवत्पोषमेव दिवेदिवे।

            यशसं वीरवत्तमम्॥ १.००१.०३

            अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि।

            स इद्देवेषु गच्छति॥ १.००१.०४

            अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः।

            देवो देवेभिरा गमत्॥ १.००१.०५

            यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि।

            तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः॥ १.००१.०६

            उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्।

            नमो भरन्त एमसि॥ १.००१.०७

            राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम्।

            वर्धमानं स्वे दमे॥ १.००१.०८

            स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।

            सचस्वा नः स्वस्तये॥ १.००१.०९


            वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृताः।

            तेषां पाहि श्रुधी हवम्॥ १.००२.०१

            वाय उक्थेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितारः।

            सुतसोमा अहर्विदः॥ १.००२.०२

            वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे।

            उरूची सोमपीतये॥ १.००२.०३

            इन्द्रवायू इमे सुता उप प्रयोभिरा गतम्।

            इन्दवो वामुशन्ति हि॥ १.००२.०४

            वायविन्द्रश्च चेतथः सुतानां वाजिनीवसू।

            तावा यातमुप द्रवत्॥ १.००२.०५

            वायविन्द्रश्च सुन्वत आ यातमुप निष्कृतम्।

            मक्ष्वित्था धिया नरा॥ १.००२.०६

            मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम्।

            धियं घृताचीं साधन्ता॥ १.००२.०७

            ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा।

            क्रतुं बृहन्तमाशाथे॥ १.००२.०८

            कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया।

            दक्षं दधाते अपसम्॥ १.००२.०९


            अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती।

            पुरुभुजा चनस्यतम्॥ १.००३.०१

            अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया।

            धिष्ण्या वनतं गिरः॥ १.००३.०२

            दस्रा युवाकवः सुता नासत्या वृक्तबर्हिषः।

            आ यातं रुद्रवर्तनी॥ १.००३.०३

            इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः।

            अण्वीभिस्तना पूतासः॥ १.००३.०४

            इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः।

            उप ब्रह्माणि वाघतः॥ १.००३.०५

            इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिवः।

            सुते दधिष्व नश्चनः॥ १.००३.०६

            ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास आ गत।

            दाश्वांसो दाशुषः सुतम्॥ १.००३.०७

            विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमा गन्त तूर्णयः।

            उस्रा इव स्वसराणि॥ १.००३.०८

            विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासो अद्रुहः।

            मेधं जुषन्त वह्नयः॥ १.००३.०९

            पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती।

            यज्ञं वष्टु धियावसुः॥ १.००३.१०

            चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्।

            यज्ञं दधे सरस्वती॥ १.००३.११

            महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना।

            धियो विश्वा वि राजति॥ १.००३.१२


            सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे।

            जुहूमसि द्यविद्यवि॥ १.००४.०१

            उप नः सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब।

            गोदा इद्रेवतो मदः॥ १.००४.०२

            अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम्।

            मा नो अति ख्य आ गहि॥ १.००४.०३

            परेहि विग्रमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम्।

            यस्ते सखिभ्य आ वरम्॥ १.००४.०४

            उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत।

            दधाना इन्द्र इद्दुवः॥ १.००४.०५

            उत नः सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः।

            स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि॥ १.००४.०६

            एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्।

            पतयन्मन्दयत्सखम्॥ १.००४.०७

            अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभवः।

            प्रावो वाजेषु वाजिनम्॥ १.००४.०८

            तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो।

            धनानामिन्द्र सातये॥ १.००४.०९

            यो रायोऽवनिर्महान्सुपारः सुन्वतः सखा।

            तस्मा इन्द्राय गायत॥ १.००४.१०


            आ त्वेता नि षीदतेन्द्रमभि प्र गायत।

            सखायः स्तोमवाहसः॥ १.००५.०१

            पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम्।

            इन्द्रं सोमे सचा सुते॥ १.००५.०२

            स घा नो योग आ भुवत्स राये स पुरंध्याम्।

            गमद्वाजेभिरा स नः॥ १.००५.०३

            यस्य संस्थे न वृण्वते हरी समत्सु शत्रवः।

            तस्मा इन्द्राय गायत॥ १.००५.०४

            सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये।

            सोमासो दध्याशिरः॥ १.००५.०५

            त्वं सुतस्य पीतये सद्यो वृद्धो अजायथाः।

            इन्द्र ज्यैष्ठ्याय सुक्रतो॥ १.००५.०६

            आ त्वा विशन्त्वाशवः सोमास इन्द्र गिर्वणः।

            शं ते सन्तु प्रचेतसे॥ १.००५.०७

            त्वां स्तोमा अवीवृधन्त्वामुक्था शतक्रतो।

            त्वां वर्धन्तु नो गिरः॥ १.००५.०८

            अक्षितोतिः सनेदिमं वाजमिन्द्रः सहस्रिणम्।

            यस्मिन्विश्वानि पौंस्या॥ १.००५.०९

            मा नो मर्ता अभि द्रुहन्तनूनामिन्द्र गिर्वणः।

            ईशानो यवया वधम्॥ १.००५.१०


            युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः।

            रोचन्ते रोचना दिवि॥ १.००६.०१

            युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे।

            शोणा धृष्णू नृवाहसा॥ १.००६.०२

            केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे।

            समुषद्भिरजायथाः॥ १.००६.०३

            आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे।

            दधाना नाम यज्ञियम्॥ १.००६.०४

            वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्निभिः।

            अविन्द उस्रिया अनु॥ १.००६.०५

            देवयन्तो यथा मतिमच्छा विदद्वसुं गिरः।

            महामनूषत श्रुतम्॥ १.००६.०६

            इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा।

            मन्दू समानवर्चसा॥ १.००६.०७

            अनवद्यैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति।

            गणैरिन्द्रस्य काम्यैः॥ १.००६.०८

            अतः परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि।

            समस्मिन्नृञ्जते गिरः॥ १.००६.०९

            इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि।

            इन्द्रं महो वा रजसः॥ १.००६.१०


            इन्द्रमिद्गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः।

            इन्द्रं वाणीरनूषत॥ १.००७.०१

            इन्द्र इद्धर्योः सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा।

            इन्द्रो वज्री हिरण्ययः॥ १.००७.०२

            इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्यं रोहयद्दिवि।

            वि गोभिरद्रिमैरयत्॥ १.००७.०३

            इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्रप्रधनेषु च।

            उग्र उग्राभिरूतिभिः॥ १.००७.०४

            इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमर्भे हवामहे।

            युजं वृत्रेषु वज्रिणम्॥ १.००७.०५

            स नो वृषन्नमुं चरुं सत्रादावन्नपा वृधि।

            अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः॥ १.००७.०६

            तुञ्जेतुञ्जे य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिणः।

            न विन्धे अस्य सुष्टुतिम्॥ १.००७.०७

            वृषा यूथेव वंसगः कृष्टीरियर्त्योजसा।

            ईशानो अप्रतिष्कुतः॥ १.००७.०८

            य एकश्चर्षणीनां वसूनामिरज्यति।

            इन्द्रः पञ्च क्षितीनाम्॥ १.००७.०९

            इन्द्रं वो विश्वतस्परि हवामहे जनेभ्यः।

            अस्माकमस्तु केवलः॥ १.००७.१०


            एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम्।

            वर्षिष्ठमूतये भर॥ १.००८.०१

            नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै।

            त्वोतासो न्यर्वता॥ १.००८.०२

            इन्द्र त्वोतास आ वयं वज्रं घना ददीमहि।

            जयेम सं युधि स्पृधः॥ १.००८.०३

            वयं शूरेभिरस्तृभिरिन्द्र त्वया युजा वयम्।

            सासह्याम पृतन्यतः॥ १.००८.०४

            महाँ इन्द्रः परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे।

            द्यौर्न प्रथिना शवः॥ १.००८.०५

            समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौ।

            विप्रासो वा धियायवः॥ १.००८.०६

            यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते।

            उर्वीरापो न काकुदः॥ १.००८.०७

            एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही।

            पक्वा शाखा न दाशुषे॥ १.००८.०८

            एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते।

            सद्यश्चित्सन्ति दाशुषे॥ १.००८.०९

            एवा ह्यस्य काम्या स्तोम उक्थं च शंस्या।

            इन्द्राय सोमपीतये॥ १.००८.१०


            इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः।

            महाँ अभिष्टिरोजसा॥ १.००९.०१

            एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने।

            चक्रिं विश्वानि चक्रये॥ १.००९.०२

            मत्स्वा सुशिप्र मन्दिभिः स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे।

            सचैषु सवनेष्वा॥ १.००९.०३

            असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत।

            अजोषा वृषभं पतिम्॥ १.००९.०४

            सं चोदय चित्रमर्वाग्राध इन्द्र वरेण्यम्।

            असदित्ते विभु प्रभु॥ १.००९.०५

            अस्मान्सु तत्र चोदयेन्द्र राये रभस्वतः।

            तुविद्युम्न यशस्वतः॥ १.००९.०६

            सं गोमदिन्द्र वाजवदस्मे पृथु श्रवो बृहत्।

            विश्वायुर्धेह्यक्षितम्॥ १.००९.०७

            अस्मे धेहि श्रवो बृहद्द्युम्नं सहस्रसातमम्।

            इन्द्र ता रथिनीरिषः॥ १.००९.०८

            वसोरिन्द्रं वसुपतिं गीर्भिर्गृणन्त ऋग्मियम्।

            होम गन्तारमूतये॥ १.००९.०९

            सुतेसुते न्योकसे बृहद्बृहत एदरिः।

            इन्द्राय शूषमर्चति॥ १.००९.१०


            गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः।

            ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे॥ १.०१०.०१

            यत्सानोः सानुमारुहद्भूर्यस्पष्ट कर्त्वम्।

            तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति॥ १.०१०.०२

            युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा।

            अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुपश्रुतिं चर॥ १.०१०.०३

            एहि स्तोमाँ अभि स्वराभि गृणीह्या रुव।

            ब्रह्म च नो वसो सचेन्द्र यज्ञं च वर्धय॥ १.०१०.०४

            उक्थमिन्द्राय शंस्यं वर्धनं पुरुनिष्षिधे।

            शक्रो यथा सुतेषु णो रारणत्सख्येषु च॥ १.०१०.०५

            तमित्सखित्व ईमहे तं राये तं सुवीर्ये।

            स शक्र उत नः शकदिन्द्रो वसु दयमानः॥ १.०१०.०६

            सुविवृतं सुनिरजमिन्द्र त्वादातमिद्यशः।

            गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः॥ १.०१०.०७

            नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः।

            जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मभ्यं धूनुहि॥ १.०१०.०८

            आश्रुत्कर्ण श्रुधी हवं नू चिद्दधिष्व मे गिरः।

            इन्द्र स्तोममिमं मम कृष्वा युजश्चिदन्तरम्॥ १.०१०.०९

            विद्मा हि त्वा वृषन्तमं वाजेषु हवनश्रुतम्।

            वृषन्तमस्य हूमह ऊतिं सहस्रसातमाम्॥ १.०१०.१०

            आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिब।

            नव्यमायुः प्र सू तिर कृधी सहस्रसामृषिम्॥ १.०१०.११

            परि त्वा गिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः।

            वृद्धायुमनु वृद्धयो जुष्टा भवन्तु जुष्टयः॥ १.०१०.१२


            इन्द्रं विश्वा अवीवृधन्समुद्रव्यचसं गिरः।

            रथीतमं रथीनां वाजानां सत्पतिं पतिम्॥ १.०११.०१

            सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते।

            त्वामभि प्र णोनुमो जेतारमपराजितम्॥ १.०११.०२

            पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्यन्त्यूतयः।

            यदी वाजस्य गोमतः स्तोतृभ्यो मंहते मघम्॥ १.०११.०३

            पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत।

            इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता वज्री पुरुष्टुतः॥ १.०११.०४

            त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम्।

            त्वां देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानास आविषुः॥ १.०११.०५

            तवाहं शूर रातिभिः प्रत्यायं सिन्धुमावदन्।

            उपातिष्ठन्त गिर्वणो विदुष्टे तस्य कारवः॥ १.०११.०६

            मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिरः।

            विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां श्रवांस्युत्तिर॥ १.०११.०७

            इन्द्रमीशानमोजसाभि स्तोमा अनूषत।

            सहस्रं यस्य रातय उत वा सन्ति भूयसीः॥ १.०११.०८


            अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम्।

            अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम्॥ १.०१२.०१

            अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम्।

            हव्यवाहं पुरुप्रियम्॥ १.०१२.०२

            अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे।

            असि होता न ईड्यः॥ १.०१२.०३

            ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम्।

            देवैरा सत्सि बर्हिषि॥ १.०१२.०४

            घृताहवन दीदिवः प्रति ष्म रिषतो दह।

            अग्ने त्वं रक्षस्विनः॥ १.०१२.०५

            अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा।

            हव्यवाड्जुह्वास्यः॥ १.०१२.०६

            कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे।

            देवममीवचातनम्॥ १.०१२.०७

            यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति।

            तस्य स्म प्राविता भव॥ १.०१२.०८

            यो अग्निं देववीतये हविष्माँ आविवासति।

            तस्मै पावक मृळय॥ १.०१२.०९

            स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह।

            उप यज्ञं हविश्च नः॥ १.०१२.१०

            स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा।

            रयिं वीरवतीमिषम्॥ १.०१२.११

            अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः।

            इमं स्तोमं जुषस्व नः॥ १.०१२.१२


            सुसमिद्धो न आ वह देवाँ अग्ने हविष्मते।

            होतः पावक यक्षि च॥ १.०१३.०१

            मधुमन्तं तनूनपाद्यज्ञं देवेषु नः कवे।

            अद्या कृणुहि वीतये॥ १.०१३.०२

            नराशंसमिह प्रियमस्मिन्यज्ञ उप ह्वये।

            मधुजिह्वं हविष्कृतम्॥ १.०१३.०३

            अग्ने सुखतमे रथे देवाँ ईळित आ वह।

            असि होता मनुर्हितः॥ १.०१३.०४

            स्तृणीत बर्हिरानुषग्घृतपृष्ठं मनीषिणः।

            यत्रामृतस्य चक्षणम्॥ १.०१३.०५

            वि श्रयन्तामृतावृधो द्वारो देवीरसश्चतः।

            अद्या नूनं च यष्टवे॥ १.०१३.०६

            नक्तोषासा सुपेशसास्मिन्यज्ञ उप ह्वये।

            इदं नो बर्हिरासदे॥ १.०१३.०७

            ता सुजिह्वा उप ह्वये होतारा दैव्या कवी।

            यज्ञं नो यक्षतामिमम्॥ १.०१३.०८

            इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः।

            बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः॥ १.०१३.०९

            इह त्वष्टारमग्रियं विश्वरूपमुप ह्वये।

            अस्माकमस्तु केवलः॥ १.०१३.१०

            अव सृजा वनस्पते देव देवेभ्यो हविः।

            प्र दातुरस्तु चेतनम्॥ १.०१३.११

            स्वाहा यज्ञं कृणोतनेन्द्राय यज्वनो गृहे।

            तत्र देवाँ उप ह्वये॥ १.०१३.१२


            ऐभिरग्ने दुवो गिरो विश्वेभिः सोमपीतये।

            देवेभिर्याहि यक्षि च॥ १.०१४.०१

            आ त्वा कण्वा अहूषत गृणन्ति विप्र ते धियः।

            देवेभिरग्न आ गहि॥ १.०१४.०२

            इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्राग्निं पूषणं भगम्।

            आदित्यान्मारुतं गणम्॥ १.०१४.०३

            प्र वो भ्रियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः।

            द्रप्सा मध्वश्चमूषदः॥ १.०१४.०४

            ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः।

            हविष्मन्तो अरंकृतः॥ १.०१४.०५

            घृतपृष्ठा मनोयुजो ये त्वा वहन्ति वह्नयः।

            आ देवान्सोमपीतये॥ १.०१४.०६

            तान्यजत्राँ ऋतावृधोऽग्ने पत्नीवतस्कृधि।

            मध्वः सुजिह्व पायय॥ १.०१४.०७

            ये यजत्रा य ईड्यास्ते ते पिबन्तु जिह्वया।

            मधोरग्ने वषट्कृति॥ १.०१४.०८

            आकीं सूर्यस्य रोचनाद्विश्वान्देवाँ उषर्बुधः।

            विप्रो होतेह वक्षति॥ १.०१४.०९

            विश्वेभिः सोम्यं मध्वग्न इन्द्रेण वायुना।

            पिबा मित्रस्य धामभिः॥ १.०१४.१०

            त्वं होता मनुर्हितोऽग्ने यज्ञेषु सीदसि।

            सेमं नो अध्वरं यज॥ १.०१४.११

            युक्ष्वा ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहितः।

            ताभिर्देवाँ इहा वह॥ १.०१४.१२


            इन्द्र सोमं पिब ऋतुना त्वा विशन्त्विन्दवः।

            मत्सरासस्तदोकसः॥ १.०१५.०१

            मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद्यज्ञं पुनीतन।

            यूयं हि ष्ठा सुदानवः॥ १.०१५.०२

            अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना।

            त्वं हि रत्नधा असि॥ १.०१५.०३

            अग्ने देवाँ इहा वह सादया योनिषु त्रिषु।

            परि भूष पिब ऋतुना॥ १.०१५.०४

            ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूँरनु।

            तवेद्धि सख्यमस्तृतम्॥ १.०१५.०५

            युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम्।

            ऋतुना यज्ञमाशाथे॥ १.०१५.०६

            द्रविणोदा द्रविणसो ग्रावहस्तासो अध्वरे।

            यज्ञेषु देवमीळते॥ १.०१५.०७

            द्रविणोदा ददातु नो वसूनि यानि शृण्विरे।

            देवेषु ता वनामहे॥ १.०१५.०८

            द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत।

            नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत॥ १.०१५.०९

            यत्त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे।

            अध स्मा नो ददिर्भव॥ १.०१५.१०

            अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिव्रता।

            ऋतुना यज्ञवाहसा॥ १.०१५.११

            गार्हपत्येन सन्त्य ऋतुना यज्ञनीरसि।

            देवान्देवयते यज॥ १.०१५.१२


            आ त्वा वहन्तु हरयो वृषणं सोमपीतये।

            इन्द्र त्वा सूरचक्षसः॥ १.०१६.०१

            इमा धाना घृतस्नुवो हरी इहोप वक्षतः।

            इन्द्रं सुखतमे रथे॥ १.०१६.०२

            इन्द्रं प्रातर्हवामह इन्द्रं प्रयत्यध्वरे।

            इन्द्रं सोमस्य पीतये॥ १.०१६.०३

            उप नः सुतमा गहि हरिभिरिन्द्र केशिभिः।

            सुते हि त्वा हवामहे॥ १.०१६.०४

            सेमं नः स्तोममा गह्युपेदं सवनं सुतम्।

            गौरो न तृषितः पिब॥ १.०१६.०५

            इमे सोमास इन्दवः सुतासो अधि बर्हिषि।

            ताँ इन्द्र सहसे पिब॥ १.०१६.०६

            अयं ते स्तोमो अग्रियो हृदिस्पृगस्तु शंतमः।

            अथा सोमं सुतं पिब॥ १.०१६.०७

            विश्वमित्सवनं सुतमिन्द्रो मदाय गच्छति।

            वृत्रहा सोमपीतये॥ १.०१६.०८

            सेमं नः काममा पृण गोभिरश्वैः शतक्रतो।

            स्तवाम त्वा स्वाध्यः॥ १.०१६.०९


            इन्द्रावरुणयोरहं सम्राजोरव आ वृणे।

            ता नो मृळात ईदृशे॥ १.०१७.०१

            गन्तारा हि स्थोऽवसे हवं विप्रस्य मावतः।

            धर्तारा चर्षणीनाम्॥ १.०१७.०२

            अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ।

            ता वां नेदिष्ठमीमहे॥ १.०१७.०३

            युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम्।

            भूयाम वाजदाव्नाम्॥ १.०१७.०४

            इन्द्रः सहस्रदाव्नां वरुणः शंस्यानाम्।

            क्रतुर्भवत्युक्थ्यः॥ १.०१७.०५

            तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि।

            स्यादुत प्ररेचनम्॥ १.०१७.०६

            इन्द्रावरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे।

            अस्मान्सु जिग्युषस्कृतम्॥ १.०१७.०७

            इन्द्रावरुण नू नु वां सिषासन्तीषु धीष्वा।

            अस्मभ्यं शर्म यच्छतम्॥ १.०१७.०८

            प्र वामश्नोतु सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे।

            यामृधाथे सधस्तुतिम्॥ १.०१७.०९


            सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते।

            कक्षीवन्तं य औशिजः॥ १.०१८.०१

            यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः।

            स नः सिषक्तु यस्तुरः॥ १.०१८.०२

            मा नः शंसो अररुषो धूर्तिः प्रणङ्मर्त्यस्य।

            रक्षा णो ब्रह्मणस्पते॥ १.०१८.०३

            स घा वीरो न रिष्यति यमिन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः।

            सोमो हिनोति मर्त्यम्॥ १.०१८.०४

            त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इन्द्रश्च मर्त्यम्।

            दक्षिणा पात्वंहसः॥ १.०१८.०५

            सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्।

            सनिं मेधामयासिषम्॥ १.०१८.०६

            यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन।

            स धीनां योगमिन्वति॥ १.०१८.०७

            आदृध्नोति हविष्कृतिं प्राञ्चं कृणोत्यध्वरम्।

            होत्रा देवेषु गच्छति॥ १.०१८.०८

            नराशंसं सुधृष्टममपश्यं सप्रथस्तमम्।

            दिवो न सद्ममखसम्॥ १.०१८.०९


            प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे।

            मरुद्भिरग्न आ गहि॥ १.०१९.०१

            नहि देवो न मर्त्यो महस्तव क्रतुं परः।

            मरुद्भिरग्न आ गहि॥ १.०१९.०२

            ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुहः।

            मरुद्भिरग्न आ गहि॥ १.०१९.०३

            य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा।

            मरुद्भिरग्न आ गहि॥ १.०१९.०४

            ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः।

            मरुद्भिरग्न आ गहि॥ १.०१९.०५

            ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते।

            मरुद्भिरग्न आ गहि॥ १.०१९.०६

            य ईङ्खयन्ति पर्वतान्तिरः समुद्रमर्णवम्।

            मरुद्भिरग्न आ गहि॥ १.०१९.०७

            आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस्तिरः समुद्रमोजसा।

            मरुद्भिरग्न आ गहि॥ १.०१९.०८

            अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सोम्यं मधु।

            मरुद्भिरग्न आ गहि॥ १.०१९.०९


            अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया।

            अकारि रत्नधातमः॥ १.०२०.०१

            य इन्द्राय वचोयुजा ततक्षुर्मनसा हरी।

            शमीभिर्यज्ञमाशत॥ १.०२०.०२

            तक्षन्नासत्याभ्यां परिज्मानं सुखं रथम्।

            तक्षन्धेनुं सबर्दुघाम्॥ १.०२०.०३

            युवाना पितरा पुनः सत्यमन्त्रा ऋजूयवः।

            ऋभवो विष्ट्यक्रत॥ १.०२०.०४

            सं वो मदासो अग्मतेन्द्रेण च मरुत्वता।

            आदित्येभिश्च राजभिः॥ १.०२०.०५

            उत त्यं चमसं नवं त्वष्टुर्देवस्य निष्कृतम्।

            अकर्त चतुरः पुनः॥ १.०२०.०६

            ते नो रत्नानि धत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वते।

            एकमेकं सुशस्तिभिः॥ १.०२०.०७

            अधारयन्त वह्नयोऽभजन्त सुकृत्यया।

            भागं देवेषु यज्ञियम्॥ १.०२०.०८


            इहेन्द्राग्नी उप ह्वये तयोरित्स्तोममुश्मसि।

            ता सोमं सोमपातमा॥ १.०२१.०१

            ता यज्ञेषु प्र शंसतेन्द्राग्नी शुम्भता नरः।

            ता गायत्रेषु गायत॥ १.०२१.०२

            ता मित्रस्य प्रशस्तय इन्द्राग्नी ता हवामहे।

            सोमपा सोमपीतये॥ १.०२१.०३

            उग्रा सन्ता हवामह उपेदं सवनं सुतम्।

            इन्द्राग्नी एह गच्छताम्॥ १.०२१.०४

            ता महान्ता सदस्पती इन्द्राग्नी रक्ष उब्जतम्।

            अप्रजाः सन्त्वत्रिणः॥ १.०२१.०५

            तेन सत्येन जागृतमधि प्रचेतुने पदे।

            इन्द्राग्नी शर्म यच्छतम्॥ १.०२१.०६


            प्रातर्युजा वि बोधयाश्विनावेह गच्छताम्।

            अस्य सोमस्य पीतये॥ १.०२२.०१

            या सुरथा रथीतमोभा देवा दिविस्पृशा।

            अश्विना ता हवामहे॥ १.०२२.०२

            या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती।

            तया यज्ञं मिमिक्षतम्॥ १.०२२.०३

            नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः।

            अश्विना सोमिनो गृहम्॥ १.०२२.०४

            हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुप ह्वये।

            स चेत्ता देवता पदम्॥ १.०२२.०५

            अपां नपातमवसे सवितारमुप स्तुहि।

            तस्य व्रतान्युश्मसि॥ १.०२२.०६

            विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः।

            सवितारं नृचक्षसम्॥ १.०२२.०७

            सखाय आ नि षीदत सविता स्तोम्यो नु नः।

            दाता राधांसि शुम्भति॥ १.०२२.०८

            अग्ने पत्नीरिहा वह देवानामुशतीरुप।

            त्वष्टारं सोमपीतये॥ १.०२२.०९

            आ ग्ना अग्न इहावसे होत्रां यविष्ठ भारतीम्।

            वरूत्रीं धिषणां वह॥ १.०२२.१०

            अभि नो देवीरवसा महः शर्मणा नृपत्नीः।

            अच्छिन्नपत्राः सचन्ताम्॥ १.०२२.११

            इहेन्द्राणीमुप ह्वये वरुणानीं स्वस्तये।

            अग्नायीं सोमपीतये॥ १.०२२.१२

            मही द्यौः पृथिवी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम्।

            पिपृतां नो भरीमभिः॥ १.०२२.१३

            तयोरिद्घृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः।

            गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे॥ १.०२२.१४

            स्योना पृथिवि भवानृक्षरा निवेशनी।

            यच्छा नः शर्म सप्रथः॥ १.०२२.१५

            अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे।

            पृथिव्याः सप्त धामभिः॥ १.०२२.१६

            इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्।

            समूळ्हमस्य पांसुरे॥ १.०२२.१७

            त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।

            अतो धर्माणि धारयन्॥ १.०२२.१८

            विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे।

            इन्द्रस्य युज्यः सखा॥ १.०२२.१९

            तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।

            दिवीव चक्षुराततम्॥ १.०२२.२०

            तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते।

            विष्णोर्यत्परमं पदम्॥ १.०२२.२१


            तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे।

            वायो तान्प्रस्थितान्पिब॥ १.०२३.०१

            उभा देवा दिविस्पृशेन्द्रवायू हवामहे।

            अस्य सोमस्य पीतये॥ १.०२३.०२

            इन्द्रवायू मनोजुवा विप्रा हवन्त ऊतये।

            सहस्राक्षा धियस्पती॥ १.०२३.०३

            मित्रं वयं हवामहे वरुणं सोमपीतये।

            जज्ञाना पूतदक्षसा॥ १.०२३.०४

            ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती।

            ता मित्रावरुणा हुवे॥ १.०२३.०५

            वरुणः प्राविता भुवन्मित्रो विश्वाभिरूतिभिः।

            करतां नः सुराधसः॥ १.०२३.०६

            मरुत्वन्तं हवामह इन्द्रमा सोमपीतये।

            सजूर्गणेन तृम्पतु॥ १.०२३.०७

            इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः।

            विश्वे मम श्रुता हवम्॥ १.०२३.०८

            हत वृत्रं सुदानव इन्द्रेण सहसा युजा।

            मा नो दुःशंस ईशत॥ १.०२३.०९

            विश्वान्देवान्हवामहे मरुतः सोमपीतये।

            उग्रा हि पृश्निमातरः॥ १.०२३.१०

            जयतामिव तन्यतुर्मरुतामेति धृष्णुया।

            यच्छुभं याथना नरः॥ १.०२३.११

            हस्काराद्विद्युतस्पर्यतो जाता अवन्तु नः।

            मरुतो मृळयन्तु नः॥ १.०२३.१२

            आ पूषञ्चित्रबर्हिषमाघृणे धरुणं दिवः।

            आजा नष्टं यथा पशुम्॥ १.०२३.१३

            पूषा राजानमाघृणिरपगूळ्हं गुहा हितम्।

            अविन्दच्चित्रबर्हिषम्॥ १.०२३.१४

            उतो स मह्यमिन्दुभिः षड्युक्ताँ अनुसेषिधत्।

            गोभिर्यवं न चर्कृषत्॥ १.०२३.१५

            अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्।

            पृञ्चतीर्मधुना पयः॥ १.०२३.१६

            अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह।

            ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्॥ १.०२३.१७

            अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः।

            सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः॥ १.०२३.१८

            अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये।

            देवा भवत वाजिनः॥ १.०२३.१९

            अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।

            अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः॥ १.०२३.२०

            आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम।

            ज्योक्च सूर्यं दृशे॥ १.०२३.२१

            इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि।

            यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेप उतानृतम्॥ १.०२३.२२

            आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि।

            पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥ १.०२३.२३

            सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा।

            विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात्सह ऋषिभिः॥ १.०२३.२४


            कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।

            को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥ १.०२४.०१

            अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।

            स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥ १.०२४.०२

            अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्।

            सदावन्भागमीमहे॥ १.०२४.०३

            यश्चिद्धि त इत्था भगः शशमानः पुरा निदः।

            अद्वेषो हस्तयोर्दधे॥ १.०२४.०४

            भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवावसा।

            मूर्धानं राय आरभे॥ १.०२४.०५

            नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः।

            नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम्॥ १.०२४.०६

            अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः।

            नीचीनाः स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥ १.०२४.०७

            उरुं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा उ।

            अपदे पादा प्रतिधातवेऽकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित्॥ १.०२४.०८

            शतं ते राजन्भिषजः सहस्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु।

            बाधस्व दूरे निरृतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुग्ध्यस्मत्॥ १.०२४.०९

            अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः।

            अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति॥ १.०२४.१०

            तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।

            अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः॥ १.०२४.११

            तदिन्नक्तं तद्दिवा मह्यमाहुस्तदयं केतो हृद आ वि चष्टे।

            शुनःशेपो यमह्वद्गृभीतः सो अस्मान्राजा वरुणो मुमोक्तु॥ १.०२४.१२

            शुनःशेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः।

            अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान्॥ १.०२४.१३

            अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहे हविर्भिः।

            क्षयन्नस्मभ्यमसुर प्रचेता राजन्नेनांसि शिश्रथः कृतानि॥ १.०२४.१४

            उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।

            अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम॥ १.०२४.१५


            यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्।

            मिनीमसि द्यविद्यवि॥ १.०२५.०१

            मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः।

            मा हृणानस्य मन्यवे॥ १.०२५.०२

            वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्।

            गीर्भिर्वरुण सीमहि॥ १.०२५.०३

            परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्य‍इष्टये।

            वयो न वसतीरुप॥ १.०२५.०४

            कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे।

            मृळीकायोरुचक्षसम्॥ १.०२५.०५

            तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः।

            धृतव्रताय दाशुषे॥ १.०२५.०६

            वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्।

            वेद नावः समुद्रियः॥ १.०२५.०७

            वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः।

            वेदा य उपजायते॥ १.०२५.०८

            वेद वातस्य वर्तनिमुरोरृष्वस्य बृहतः।

            वेदा ये अध्यासते॥ १.०२५.०९

            नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा।

            साम्राज्याय सुक्रतुः॥ १.०२५.१०

            अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति।

            कृतानि या च कर्त्वा॥ १.०२५.११

            स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्।

            प्र ण आयूंषि तारिषत्॥ १.०२५.१२

            बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्।

            परि स्पशो नि षेदिरे॥ १.०२५.१३

            न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्।

            न देवमभिमातयः॥ १.०२५.१४

            उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या।

            अस्माकमुदरेष्वा॥ १.०२५.१५

            परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु।

            इच्छन्तीरुरुचक्षसम्॥ १.०२५.१६

            सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्।

            होतेव क्षदसे प्रियम्॥ १.०२५.१७

            दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि।

            एता जुषत मे गिरः॥ १.०२५.१८

            इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।

            त्वामवस्युरा चके॥ १.०२५.१९

            त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि।

            स यामनि प्रति श्रुधि॥ १.०२५.२०

            उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत।

            अवाधमानि जीवसे॥ १.०२५.२१


            वसिष्वा हि मियेध्य वस्त्राण्यूर्जां पते।

            सेमं नो अध्वरं यज॥ १.०२६.०१

            नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः।

            अग्ने दिवित्मता वचः॥ १.०२६.०२

            आ हि ष्मा सूनवे पितापिर्यजत्यापये।

            सखा सख्ये वरेण्यः॥ १.०२६.०३

            आ नो बर्ही रिशादसो वरुणो मित्रो अर्यमा।

            सीदन्तु मनुषो यथा॥ १.०२६.०४

            पूर्व्य होतरस्य नो मन्दस्व सख्यस्य च।

            इमा उ षु श्रुधी गिरः॥ १.०२६.०५

            यच्चिद्धि शश्वता तना देवंदेवं यजामहे।

            त्वे इद्धूयते हविः॥ १.०२६.०६

            प्रियो नो अस्तु विश्पतिर्होता मन्द्रो वरेण्यः।

            प्रियाः स्वग्नयो वयम्॥ १.०२६.०७

            स्वग्नयो हि वार्यं देवासो दधिरे च नः।

            स्वग्नयो मनामहे॥ १.०२६.०८

            अथा न उभयेषाममृत मर्त्यानाम्।

            मिथः सन्तु प्रशस्तयः॥ १.०२६.०९

            विश्वेभिरग्ने अग्निभिरिमं यज्ञमिदं वचः।

            चनो धाः सहसो यहो॥ १.०२६.१०


            अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः।

            सम्राजन्तमध्वराणाम्॥ १.०२७.०१

            स घा नः सूनुः शवसा पृथुप्रगामा सुशेवः।

            मीढ्वाँ अस्माकं बभूयात्॥ १.०२७.०२

            स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः।

            पाहि सदमिद्विश्वायुः॥ १.०२७.०३

            इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्।

            अग्ने देवेषु प्र वोचः॥ १.०२७.०४

            आ नो भज परमेष्वा वाजेषु मध्यमेषु।

            शिक्षा वस्वो अन्तमस्य॥ १.०२७.०५

            विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ।

            सद्यो दाशुषे क्षरसि॥ १.०२७.०६

            यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः।

            स यन्ता शश्वतीरिषः॥ १.०२७.०७

            नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित्।

            वाजो अस्ति श्रवाय्यः॥ १.०२७.०८

            स वाजं विश्वचर्षणिरर्वद्भिरस्तु तरुता।

            विप्रेभिरस्तु सनिता॥ १.०२७.०९

            जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय।

            स्तोमं रुद्राय दृशीकम्॥ १.०२७.१०

            स नो महाँ अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः।

            धिये वाजाय हिन्वतु॥ १.०२७.११

            स रेवाँ इव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः।

            उक्थैरग्निर्बृहद्भानुः॥ १.०२७.१२

            नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः।

            यजाम देवान्यदि शक्नवाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः॥ १.०२७.१३


            यत्र ग्रावा पृथुबुध्न ऊर्ध्वो भवति सोतवे।

            उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥ १.०२८.०१

            यत्र द्वाविव जघनाधिषवण्या कृता।

            उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥ १.०२८.०२

            यत्र नार्यपच्यवमुपच्यवं च शिक्षते।

            उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥ १.०२८.०३

            यत्र मन्थां विबध्नते रश्मीन्यमितवा इव।

            उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥ १.०२८.०४

            यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे।

            इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः॥ १.०२८.०५

            उत स्म ते वनस्पते वातो वि वात्यग्रमित्।

            अथो इन्द्राय पातवे सुनु सोममुलूखल॥ १.०२८.०६

            आयजी वाजसातमा ता ह्युच्चा विजर्भृतः।

            हरी इवान्धांसि बप्सता॥ १.०२८.०७

            ता नो अद्य वनस्पती ऋष्वावृष्वेभिः सोतृभिः।

            इन्द्राय मधुमत्सुतम्॥ १.०२८.०८

            उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज।

            नि धेहि गोरधि त्वचि॥ १.०२८.०९


            यच्चिद्धि सत्य सोमपा अनाशस्ता इव स्मसि।

            आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥ १.०२९.०१

            शिप्रिन्वाजानां पते शचीवस्तव दंसना।

            आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥ १.०२९.०२

            नि ष्वापया मिथूदृशा सस्तामबुध्यमाने।

            आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥ १.०२९.०३

            ससन्तु त्या अरातयो बोधन्तु शूर रातयः।

            आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥ १.०२९.०४

            समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया।

            आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥ १.०२९.०५

            पताति कुण्डृणाच्या दूरं वातो वनादधि।

            आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥ १.०२९.०६

            सर्वं परिक्रोशं जहि जम्भया कृकदाश्वम्।

            आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥ १.०२९.०७


            आ व इन्द्रं क्रिविं यथा वाजयन्तः शतक्रतुम्।

            मंहिष्ठं सिञ्च इन्दुभिः॥ १.०३०.०१

            शतं वा यः शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्।

            एदु निम्नं न रीयते॥ १.०३०.०२

            सं यन्मदाय शुष्मिण एना ह्यस्योदरे।

            समुद्रो न व्यचो दधे॥ १.०३०.०३

            अयमु ते समतसि कपोत इव गर्भधिम्।

            वचस्तच्चिन्न ओहसे॥ १.०३०.०४

            स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते।

            विभूतिरस्तु सूनृता॥ १.०३०.०५

            ऊर्ध्वस्तिष्ठा न ऊतयेऽस्मिन्वाजे शतक्रतो।

            समन्येषु ब्रवावहै॥ १.०३०.०६

            योगेयोगे तवस्तरं वाजेवाजे हवामहे।

            सखाय इन्द्रमूतये॥ १.०३०.०७

            आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः।

            वाजेभिरुप नो हवम्॥ १.०३०.०८

            अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्।

            यं ते पूर्वं पिता हुवे॥ १.०३०.०९

            तं त्वा वयं विश्ववारा शास्महे पुरुहूत।

            सखे वसो जरितृभ्यः॥ १.०३०.१०

            अस्माकं शिप्रिणीनां सोमपाः सोमपाव्नाम्।

            सखे वज्रिन्सखीनाम्॥ १.०३०.११

            तथा तदस्तु सोमपाः सखे वज्रिन्तथा कृणु।

            यथा त उश्मसीष्टये॥ १.०३०.१२

            रेवतीर्नः सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजाः।

            क्षुमन्तो याभिर्मदेम॥ १.०३०.१३

            आ घ त्वावान्त्मनाप्तः स्तोतृभ्यो धृष्णवियानः।

            ऋणोरक्षं न चक्र्योः॥ १.०३०.१४

            आ यद्दुवः शतक्रतवा कामं जरितॄणाम्।

            ऋणोरक्षं न शचीभिः॥ १.०३०.१५

            शश्वदिन्द्रः पोप्रुथद्भिर्जिगाय नानदद्भिः शाश्वसद्भिर्धनानि।

            स नो हिरण्यरथं दंसनावान्स नः सनिता सनये स नोऽदात्॥ १.०३०.१६

            आश्विनावश्वावत्येषा यातं शवीरया।

            गोमद्दस्रा हिरण्यवत्॥ १.०३०.१७

            समानयोजनो हि वां रथो दस्रावमर्त्यः।

            समुद्रे अश्विनेयते॥ १.०३०.१८

            न्यघ्न्यस्य मूर्धनि चक्रं रथस्य येमथुः।

            परि द्यामन्यदीयते॥ १.०३०.१९

            कस्त उषः कधप्रिये भुजे मर्तो अमर्त्ये।

            कं नक्षसे विभावरि॥ १.०३०.२०

            वयं हि ते अमन्मह्यान्तादा पराकात्।

            अश्वे न चित्रे अरुषि॥ १.०३०.२१

            त्वं त्येभिरा गहि वाजेभिर्दुहितर्दिवः।

            अस्मे रयिं नि धारय॥ १.०३०.२२


            त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा।

            तव व्रते कवयो विद्मनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टयः॥ १.०३१.०१

            त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम्।

            विभुर्विश्वस्मै भुवनाय मेधिरो द्विमाता शयुः कतिधा चिदायवे॥ १.०३१.०२

            त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वन आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते।

            अरेजेतां रोदसी होतृवूर्येऽसघ्नोर्भारमयजो महो वसो॥ १.०३१.०३

            त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः।

            श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः॥ १.०३१.०४

            त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतस्रुचे भवसि श्रवाय्यः।

            य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुरग्रे विश आविवाससि॥ १.०३१.०५

            त्वमग्ने वृजिनवर्तनिं नरं सक्मन्पिपर्षि विदथे विचर्षणे।

            यः शूरसाता परितक्म्ये धने दभ्रेभिश्चित्समृता हंसि भूयसः॥ १.०३१.०६

            त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे।

            यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये॥ १.०३१.०७

            त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं कारुं कृणुहि स्तवानः।

            ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः॥ १.०३१.०८

            त्वं नो अग्ने पित्रोरुपस्थ आ देवो देवेष्वनवद्य जागृविः।

            तनूकृद्बोधि प्रमतिश्च कारवे त्वं कल्याण वसु विश्वमोपिषे॥ १.०३१.०९

            त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृत्तव जामयो वयम्।

            सं त्वा रायः शतिनः सं सहस्रिणः सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य॥ १.०३१.१०

            त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम्।

            इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते॥ १.०३१.११

            त्वं नो अग्ने तव देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वन्द्य।

            त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषं रक्षमाणस्तव व्रते॥ १.०३१.१२

            त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरोऽनिषङ्गाय चतुरक्ष इध्यसे।

            यो रातहव्योऽवृकाय धायसे कीरेश्चिन्मन्त्रं मनसा वनोषि तम्॥ १.०३१.१३

            त्वमग्न उरुशंसाय वाघते स्पार्हं यद्रेक्णः परमं वनोषि तत्।

            आध्रस्य चित्प्रमतिरुच्यसे पिता प्र पाकं शास्सि प्र दिशो विदुष्टरः॥ १.०३१.१४

            त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः।

            स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः॥ १.०३१.१५

            इमामग्ने शरणिं मीमृषो न इममध्वानं यमगाम दूरात्।

            आपिः पिता प्रमतिः सोम्यानां भृमिरस्यृषिकृन्मर्त्यानाम्॥ १.०३१.१६

            मनुष्वदग्ने अङ्गिरस्वदङ्गिरो ययातिवत्सदने पूर्ववच्छुचे।

            अच्छ याह्या वहा दैव्यं जनमा सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम्॥ १.०३१.१७

            एतेनाग्ने ब्रह्मणा वावृधस्व शक्ती वा यत्ते चकृमा विदा वा।

            उत प्र णेष्यभि वस्यो अस्मान्सं नः सृज सुमत्या वाजवत्या॥ १.०३१.१८


            इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री।

            अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम्॥ १.०३२.०१

            अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष।

            वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः॥ १.०३२.०२

            वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्य।

            आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम्॥ १.०३२.०३

            यदिन्द्राहन्प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिनाः प्रोत मायाः।

            आत्सूर्यं जनयन्द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं न किला विवित्से॥ १.०३२.०४

            अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन।

            स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः॥ १.०३२.०५

            अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम्।

            नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः॥ १.०३२.०६

            अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान।

            वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयद्व्यस्तः॥ १.०३२.०७

            नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः।

            याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव॥ १.०३२.०८

            नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार।

            उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः॥ १.०३२.०९

            अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्।

            वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः॥ १.०३२.१०

            दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः।

            अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार॥ १.०३२.११

            अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एकः।

            अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून्॥ १.०३२.१२

            नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरद्ध्रादुनिं च।

            इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये॥ १.०३२.१३

            अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत्।

            नव च यन्नवतिं च स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि॥ १.०३२.१४

            इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गिणो वज्रबाहुः।

            सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान्न नेमिः परि ता बभूव॥ १.०३२.१५


            एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति।

            अनामृणः कुविदादस्य रायो गवां केतं परमावर्जते नः॥ १.०३३.०१

            उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि।

            इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कैर्यः स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन्॥ १.०३३.०२

            नि सर्वसेन इषुधीँरसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि।

            चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध॥ १.०३३.०३

            वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र।

            धनोरधि विषुणक्ते व्यायन्नयज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः॥ १.०३३.०४

            परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभिः स्पर्धमानाः।

            प्र यद्दिवो हरिवः स्थातरुग्र निरव्रताँ अधमो रोदस्योः॥ १.०३३.०५

            अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्वाः।

            वृषायुधो न वध्रयो निरष्टाः प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन्॥ १.०३३.०६

            त्वमेतान्रुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे।

            अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वतः स्तुवतः शंसमावः॥ १.०३३.०७

            चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः।

            न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण॥ १.०३३.०८

            परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम्।

            अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्र॥ १.०३३.०९

            न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन्।

            युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत्॥ १.०३३.१०

            अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम्।

            सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून्॥ १.०३३.११

            न्याविध्यदिलीबिशस्य दृळ्हा वि शृङ्गिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः।

            यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम्॥ १.०३३.१२

            अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत्।

            सं वज्रेणासृजद्वृत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः॥ १.०३३.१३

            आवः कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्प्रावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम्।

            शफच्युतो रेणुर्नक्षत द्यामुच्छ्वैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ॥ १.०३३.१४

            आवः शमं वृषभं तुग्र्यासु क्षेत्रजेषे मघवञ्छ्वित्र्यं गाम्।

            ज्योक्चिदत्र तस्थिवांसो अक्रञ्छत्रूयतामधरा वेदनाकः॥ १.०३३.१५


            त्रिश्चिन्नो अद्या भवतं नवेदसा विभुर्वां याम उत रातिरश्विना।

            युवोर्हि यन्त्रं हिम्येव वाससोऽभ्यायंसेन्या भवतं मनीषिभिः॥ १.०३४.०१

            त्रयः पवयो मधुवाहने रथे सोमस्य वेनामनु विश्व इद्विदुः।

            त्रयः स्कम्भासः स्कभितास आरभे त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा॥ १.०३४.०२

            समाने अहन्त्रिरवद्यगोहना त्रिरद्य यज्ञं मधुना मिमिक्षतम्।

            त्रिर्वाजवतीरिषो अश्विना युवं दोषा अस्मभ्यमुषसश्च पिन्वतम्॥ १.०३४.०३

            त्रिर्वर्तिर्यातं त्रिरनुव्रते जने त्रिः सुप्राव्ये त्रेधेव शिक्षतम्।

            त्रिर्नान्द्यं वहतमश्विना युवं त्रिः पृक्षो अस्मे अक्षरेव पिन्वतम्॥ १.०३४.०४

            त्रिर्नो रयिं वहतमश्विना युवं त्रिर्देवताता त्रिरुतावतं धियः।

            त्रिः सौभगत्वं त्रिरुत श्रवांसि नस्त्रिष्ठं वां सूरे दुहिता रुहद्रथम्॥ १.०३४.०५

            त्रिर्नो अश्विना दिव्यानि भेषजा त्रिः पार्थिवानि त्रिरु दत्तमद्भ्यः।

            ओमानं शंयोर्ममकाय सूनवे त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती॥ १.०३४.०६

            त्रिर्नो अश्विना यजता दिवेदिवे परि त्रिधातु पृथिवीमशायतम्।

            तिस्रो नासत्या रथ्या परावत आत्मेव वातः स्वसराणि गच्छतम्॥ १.०३४.०७

            त्रिरश्विना सिन्धुभिः सप्तमातृभिस्त्रय आहावास्त्रेधा हविष्कृतम्।

            तिस्रः पृथिवीरुपरि प्रवा दिवो नाकं रक्षेथे द्युभिरक्तुभिर्हितम्॥ १.०३४.०८

            क्व त्री चक्रा त्रिवृतो रथस्य क्व त्रयो वन्धुरो ये सनीळाः।

            कदा योगो वाजिनो रासभस्य येन यज्ञं नासत्योपयाथः॥ १.०३४.०९

            आ नासत्या गच्छतं हूयते हविर्मध्वः पिबतं मधुपेभिरासभिः।

            युवोर्हि पूर्वं सवितोषसो रथमृताय चित्रं घृतवन्तमिष्यति॥ १.०३४.१०

            आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातं मधुपेयमश्विना।

            प्रायुस्तारिष्टं नी रपांसि मृक्षतं सेधतं द्वेषो भवतं सचाभुवा॥ १.०३४.११

            आ नो अश्विना त्रिवृता रथेनार्वाञ्चं रयिं वहतं सुवीरम्।

            शृण्वन्ता वामवसे जोहवीमि वृधे च नो भवतं वाजसातौ॥ १.०३४.१२


            ह्वयाम्यग्निं प्रथमं स्वस्तये ह्वयामि मित्रावरुणाविहावसे।

            ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं ह्वयामि देवं सवितारमूतये॥ १.०३५.०१

            आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।

            हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ १.०३५.०२

            याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम्।

            आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः॥ १.०३५.०३

            अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम्।

            आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः॥ १.०३५.०४

            वि जनाञ्छ्यावाः शितिपादो अख्यन्रथं हिरण्यप्र‍उगं वहन्तः।

            शश्वद्विशः सवितुर्दैव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः॥ १.०३५.०५

            तिस्रो द्यावः सवितुर्द्वा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट्।

            आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत्॥ १.०३५.०६

            वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः।

            क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान॥ १.०३५.०७

            अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून्।

            हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि॥ १.०३५.०८

            हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते।

            अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति॥ १.०३५.०९

            हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ्।

            अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषं गृणानः॥ १.०३५.१०

            ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोऽरेणवः सुकृता अन्तरिक्षे।

            तेभिर्नो अद्य पथिभिः सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव॥ १.०३५.११


            प्र वो यह्वं पुरूणां विशां देवयतीनाम्।

            अग्निं सूक्तेभिर्वचोभिरीमहे यं सीमिदन्य ईळते॥ १.०३६.०१

            जनासो अग्निं दधिरे सहोवृधं हविष्मन्तो विधेम ते।

            स त्वं नो अद्य सुमना इहाविता भवा वाजेषु सन्त्य॥ १.०३६.०२

            प्र त्वा दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम्।

            महस्ते सतो वि चरन्त्यर्चयो दिवि स्पृशन्ति भानवः॥ १.०३६.०३

            देवासस्त्वा वरुणो मित्रो अर्यमा सं दूतं प्रत्नमिन्धते।

            विश्वं सो अग्ने जयति त्वया धनं यस्ते ददाश मर्त्यः॥ १.०३६.०४

            मन्द्रो होता गृहपतिरग्ने दूतो विशामसि।

            त्वे विश्वा संगतानि व्रता ध्रुवा यानि देवा अकृण्वत॥ १.०३६.०५

            त्वे इदग्ने सुभगे यविष्ठ्य विश्वमा हूयते हविः।

            स त्वं नो अद्य सुमना उतापरं यक्षि देवान्सुवीर्या॥ १.०३६.०६

            तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते।

            होत्राभिरग्निं मनुषः समिन्धते तितिर्वांसो अति स्रिधः॥ १.०३६.०७

            घ्नन्तो वृत्रमतरन्रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे।

            भुवत्कण्वे वृषा द्युम्न्याहुतः क्रन्ददश्वो गविष्टिषु॥ १.०३६.०८

            सं सीदस्व महाँ असि शोचस्व देववीतमः।

            वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम्॥ १.०३६.०९

            यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठं हव्यवाहन।

            यं कण्वो मेध्यातिथिर्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुतः॥ १.०३६.१०

            यमग्निं मेध्यातिथिः कण्व ईध ऋतादधि।

            तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस्तमग्निं वर्धयामसि॥ १.०३६.११

            रायस्पूर्धि स्वधावोऽस्ति हि तेऽग्ने देवेष्वाप्यम्।

            त्वं वाजस्य श्रुत्यस्य राजसि स नो मृळ महाँ असि॥ १.०३६.१२

            ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता।

            ऊर्ध्वो वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे॥ १.०३६.१३

            ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह।

            कृधी न ऊर्ध्वाञ्चरथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः॥ १.०३६.१४

            पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः।

            पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य॥ १.०३६.१५

            घनेव विष्वग्वि जह्यराव्णस्तपुर्जम्भ यो अस्मध्रुक्।

            यो मर्त्यः शिशीते अत्यक्तुभिर्मा नः स रिपुरीशत॥ १.०३६.१६

            अग्निर्वव्ने सुवीर्यमग्निः कण्वाय सौभगम्।

            अग्निः प्रावन्मित्रोत मेध्यातिथिमग्निः साता उपस्तुतम्॥ १.०३६.१७

            अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेवं हवामहे।

            अग्निर्नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सहः॥ १.०३६.१८

            नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते।

            दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः॥ १.०३६.१९

            त्वेषासो अग्नेरमवन्तो अर्चयो भीमासो न प्रतीतये।

            रक्षस्विनः सदमिद्यातुमावतो विश्वं समत्रिणं दह॥ १.०३६.२०


            क्रीळं वः शर्धो मारुतमनर्वाणं रथेशुभम्।

            कण्वा अभि प्र गायत॥ १.०३७.०१

            ये पृषतीभिरृष्टिभिः साकं वाशीभिरञ्जिभिः।

            अजायन्त स्वभानवः॥ १.०३७.०२

            इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान्।

            नि यामञ्चित्रमृञ्जते॥ १.०३७.०३

            प्र वः शर्धाय घृष्वये त्वेषद्युम्नाय शुष्मिणे।

            देवत्तं ब्रह्म गायत॥ १.०३७.०४

            प्र शंसा गोष्वघ्न्यं क्रीळं यच्छर्धो मारुतम्।

            जम्भे रसस्य वावृधे॥ १.०३७.०५

            को वो वर्षिष्ठ आ नरो दिवश्च ग्मश्च धूतयः।

            यत्सीमन्तं न धूनुथ॥ १.०३७.०६

            नि वो यामाय मानुषो दध्र उग्राय मन्यवे।

            जिहीत पर्वतो गिरिः॥ १.०३७.०७

            येषामज्मेषु पृथिवी जुजुर्वाँ इव विश्पतिः।

            भिया यामेषु रेजते॥ १.०३७.०८

            स्थिरं हि जानमेषां वयो मातुर्निरेतवे।

            यत्सीमनु द्विता शवः॥ १.०३७.०९

            उदु त्ये सूनवो गिरः काष्ठा अज्मेष्वत्नत।

            वाश्रा अभिज्ञु यातवे॥ १.०३७.१०

            त्यं चिद्घा दीर्घं पृथुं मिहो नपातममृध्रम्।

            प्र च्यावयन्ति यामभिः॥ १.०३७.११

            मरुतो यद्ध वो बलं जनाँ अचुच्यवीतन।

            गिरीँरचुच्यवीतन॥ १.०३७.१२

            यद्ध यान्ति मरुतः सं ह ब्रुवतेऽध्वन्ना।

            शृणोति कश्चिदेषाम्॥ १.०३७.१३

            प्र यात शीभमाशुभिः सन्ति कण्वेषु वो दुवः।

            तत्रो षु मादयाध्वै॥ १.०३७.१४

            अस्ति हि ष्मा मदाय वः स्मसि ष्मा वयमेषाम्।

            विश्वं चिदायुर्जीवसे॥ १.०३७.१५


            कद्ध नूनं कधप्रियः पिता पुत्रं न हस्तयोः।

            दधिध्वे वृक्तबर्हिषः॥ १.०३८.०१

            क्व नूनं कद्वो अर्थं गन्ता दिवो न पृथिव्याः।

            क्व वो गावो न रण्यन्ति॥ १.०३८.०२

            क्व वः सुम्ना नव्यांसि मरुतः क्व सुविता।

            क्वो विश्वानि सौभगा॥ १.०३८.०३

            यद्यूयं पृश्निमातरो मर्तासः स्यातन।

            स्तोता वो अमृतः स्यात्॥ १.०३८.०४

            मा वो मृगो न यवसे जरिता भूदजोष्यः।

            पथा यमस्य गादुप॥ १.०३८.०५

            मो षु णः परापरा निरृतिर्दुर्हणा वधीत्।

            पदीष्ट तृष्णया सह॥ १.०३८.०६

            सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः।

            मिहं कृण्वन्त्यवाताम्॥ १.०३८.०७

            वाश्रेव विद्युन्मिमाति वत्सं न माता सिषक्ति।

            यदेषां वृष्टिरसर्जि॥ १.०३८.०८

            दिवा चित्तमः कृण्वन्ति पर्जन्येनोदवाहेन।

            यत्पृथिवीं व्युन्दन्ति॥ १.०३८.०९

            अध स्वनान्मरुतां विश्वमा सद्म पार्थिवम्।

            अरेजन्त प्र मानुषाः॥ १.०३८.१०

            मरुतो वीळुपाणिभिश्चित्रा रोधस्वतीरनु।

            यातेमखिद्रयामभिः॥ १.०३८.११

            स्थिरा वः सन्तु नेमयो रथा अश्वास एषाम्।

            सुसंस्कृता अभीशवः॥ १.०३८.१२

            अच्छा वदा तना गिरा जरायै ब्रह्मणस्पतिम्।

            अग्निं मित्रं न दर्शतम्॥ १.०३८.१३

            मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्य इव ततनः।

            गाय गायत्रमुक्थ्यम्॥ १.०३८.१४

            वन्दस्व मारुतं गणं त्वेषं पनस्युमर्किणम्।

            अस्मे वृद्धा असन्निह॥ १.०३८.१५


            प्र यदित्था परावतः शोचिर्न मानमस्यथ।

            कस्य क्रत्वा मरुतः कस्य वर्पसा कं याथ कं ह धूतयः॥ १.०३९.०१

            स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुदे वीळू उत प्रतिष्कभे।

            युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिनः॥ १.०३९.०२

            परा ह यत्स्थिरं हथ नरो वर्तयथा गुरु।

            वि याथन वनिनः पृथिव्या व्याशाः पर्वतानाम्॥ १.०३९.०३

            नहि वः शत्रुर्विविदे अधि द्यवि न भूम्यां रिशादसः।

            युष्माकमस्तु तविषी तना युजा रुद्रासो नू चिदाधृषे॥ १.०३९.०४

            प्र वेपयन्ति पर्वतान्वि विञ्चन्ति वनस्पतीन्।

            प्रो आरत मरुतो दुर्मदा इव देवासः सर्वया विशा॥ १.०३९.०५

            उपो रथेषु पृषतीरयुग्ध्वं प्रष्टिर्वहति रोहितः।

            आ वो यामाय पृथिवी चिदश्रोदबीभयन्त मानुषाः॥ १.०३९.०६

            आ वो मक्षू तनाय कं रुद्रा अवो वृणीमहे।

            गन्ता नूनं नोऽवसा यथा पुरेत्था कण्वाय बिभ्युषे॥ १.०३९.०७

            युष्मेषितो मरुतो मर्त्येषित आ यो नो अभ्व ईषते।

            वि तं युयोत शवसा व्योजसा वि युष्माकाभिरूतिभिः॥ १.०३९.०८

            असामि हि प्रयज्यवः कण्वं दद प्रचेतसः।

            असामिभिर्मरुत आ न ऊतिभिर्गन्ता वृष्टिं न विद्युतः॥ १.०३९.०९

            असाम्योजो बिभृथा सुदानवोऽसामि धूतयः शवः।

            ऋषिद्विषे मरुतः परिमन्यव इषुं न सृजत द्विषम्॥ १.०३९.१०


            उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे।

            उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा॥ १.०४०.०१

            त्वामिद्धि सहसस्पुत्र मर्त्य उपब्रूते धने हिते।

            सुवीर्यं मरुत आ स्वश्व्यं दधीत यो व आचके॥ १.०४०.०२

            प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता।

            अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः॥ १.०४०.०३

            यो वाघते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रवः।

            तस्मा इळां सुवीरामा यजामहे सुप्रतूर्तिमनेहसम्॥ १.०४०.०४

            प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम्।

            यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे॥ १.०४०.०५

            तमिद्वोचेमा विदथेषु शम्भुवं मन्त्रं देवा अनेहसम्।

            इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेद्वामा वो अश्नवत्॥ १.०४०.०६

            को देवयन्तमश्नवज्जनं को वृक्तबर्हिषम्।

            प्रप्र दाश्वान्पस्त्याभिरस्थितान्तर्वावत्क्षयं दधे॥ १.०४०.०७

            उप क्षत्रं पृञ्चीत हन्ति राजभिर्भये चित्सुक्षितिं दधे।

            नास्य वर्ता न तरुता महाधने नार्भे अस्ति वज्रिणः॥ १.०४०.०८


            यं रक्षन्ति प्रचेतसो वरुणो मित्रो अर्यमा।

            नू चित्स दभ्यते जनः॥ १.०४१.०१

            यं बाहुतेव पिप्रति पान्ति मर्त्यं रिषः।

            अरिष्टः सर्व एधते॥ १.०४१.०२

            वि दुर्गा वि द्विषः पुरो घ्नन्ति राजान एषाम्।

            नयन्ति दुरिता तिरः॥ १.०४१.०३

            सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते।

            नात्रावखादो अस्ति वः॥ १.०४१.०४

            यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा।

            प्र वः स धीतये नशत्॥ १.०४१.०५

            स रत्नं मर्त्यो वसु विश्वं तोकमुत त्मना।

            अच्छा गच्छत्यस्तृतः॥ १.०४१.०६

            कथा राधाम सखायः स्तोमं मित्रस्यार्यम्णः।

            महि प्सरो वरुणस्य॥ १.०४१.०७

            मा वो घ्नन्तं मा शपन्तं प्रति वोचे देवयन्तम्।

            सुम्नैरिद्व आ विवासे॥ १.०४१.०८

            चतुरश्चिद्ददमानाद्बिभीयादा निधातोः।

            न दुरुक्ताय स्पृहयेत्॥ १.०४१.०९


            सं पूषन्नध्वनस्तिर व्यंहो विमुचो नपात्।

            सक्ष्वा देव प्र णस्पुरः॥ १.०४२.०१

            यो नः पूषन्नघो वृको दुःशेव आदिदेशति।

            अप स्म तं पथो जहि॥ १.०४२.०२

            अप त्यं परिपन्थिनं मुषीवाणं हुरश्चितम्।

            दूरमधि स्रुतेरज॥ १.०४२.०३

            त्वं तस्य द्वयाविनोऽघशंसस्य कस्य चित्।

            पदाभि तिष्ठ तपुषिम्॥ १.०४२.०४

            आ तत्ते दस्र मन्तुमः पूषन्नवो वृणीमहे।

            येन पितॄनचोदयः॥ १.०४२.०५

            अधा नो विश्वसौभग हिरण्यवाशीमत्तम।

            धनानि सुषणा कृधि॥ १.०४२.०६

            अति नः सश्चतो नय सुगा नः सुपथा कृणु।

            पूषन्निह क्रतुं विदः॥ १.०४२.०७

            अभि सूयवसं नय न नवज्वारो अध्वने।

            पूषन्निह क्रतुं विदः॥ १.०४२.०८

            शग्धि पूर्धि प्र यंसि च शिशीहि प्रास्युदरम्।

            पूषन्निह क्रतुं विदः॥ १.०४२.०९

            न पूषणं मेथामसि सूक्तैरभि गृणीमसि।

            वसूनि दस्ममीमहे॥ १.०४२.१०


            कद्रुद्राय प्रचेतसे मीळ्हुष्टमाय तव्यसे।

            वोचेम शंतमं हृदे॥ १.०४३.०१

            यथा नो अदितिः करत्पश्वे नृभ्यो यथा गवे।

            यथा तोकाय रुद्रियम्॥ १.०४३.०२

            यथा नो मित्रो वरुणो यथा रुद्रश्चिकेतति।

            यथा विश्वे सजोषसः॥ १.०४३.०३

            गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलाषभेषजम्।

            तच्छंयोः सुम्नमीमहे॥ १.०४३.०४

            यः शुक्र इव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते।

            श्रेष्ठो देवानां वसुः॥ १.०४३.०५

            शं नः करत्यर्वते सुगं मेषाय मेष्ये।

            नृभ्यो नारिभ्यो गवे॥ १.०४३.०६

            अस्मे सोम श्रियमधि नि धेहि शतस्य नृणाम्।

            महि श्रवस्तुविनृम्णम्॥ १.०४३.०७

            मा नः सोमपरिबाधो मारातयो जुहुरन्त।

            आ न इन्दो वाजे भज॥ १.०४३.०८

            यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन्धामन्नृतस्य।

            मूर्धा नाभा सोम वेन आभूषन्तीः सोम वेदः॥ १.०४३.०९


            अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य।

            आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः॥ १.०४४.०१

            जुष्टो हि दूतो असि हव्यवाहनोऽग्ने रथीरध्वराणाम्।

            सजूरश्विभ्यामुषसा सुवीर्यमस्मे धेहि श्रवो बृहत्॥ १.०४४.०२

            अद्या दूतं वृणीमहे वसुमग्निं पुरुप्रियम्।

            धूमकेतुं भाऋजीकं व्युष्टिषु यज्ञानामध्वरश्रियम्॥ १.०४४.०३

            श्रेष्ठं यविष्ठमतिथिं स्वाहुतं जुष्टं जनाय दाशुषे।

            देवाँ अच्छा यातवे जातवेदसमग्निमीळे व्युष्टिषु॥ १.०४४.०४

            स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन।

            अग्ने त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन॥ १.०४४.०५

            सुशंसो बोधि गृणते यविष्ठ्य मधुजिह्वः स्वाहुतः।

            प्रस्कण्वस्य प्रतिरन्नायुर्जीवसे नमस्या दैव्यं जनम्॥ १.०४४.०६

            होतारं विश्ववेदसं सं हि त्वा विश इन्धते।

            स आ वह पुरुहूत प्रचेतसोऽग्ने देवाँ इह द्रवत्॥ १.०४४.०७

            सवितारमुषसमश्विना भगमग्निं व्युष्टिषु क्षपः।

            कण्वासस्त्वा सुतसोमास इन्धते हव्यवाहं स्वध्वर॥ १.०४४.०८

            पतिर्ह्यध्वराणामग्ने दूतो विशामसि।

            उषर्बुध आ वह सोमपीतये देवाँ अद्य स्वर्दृशः॥ १.०४४.०९

            अग्ने पूर्वा अनूषसो विभावसो दीदेथ विश्वदर्शतः।

            असि ग्रामेष्वविता पुरोहितोऽसि यज्ञेषु मानुषः॥ १.०४४.१०

            नि त्वा यज्ञस्य साधनमग्ने होतारमृत्विजम्।

            मनुष्वद्देव धीमहि प्रचेतसं जीरं दूतममर्त्यम्॥ १.०४४.११

            यद्देवानां मित्रमहः पुरोहितोऽन्तरो यासि दूत्यम्।

            सिन्धोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽग्नेर्भ्राजन्ते अर्चयः॥ १.०४४.१२

            श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः।

            आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम्॥ १.०४४.१३

            शृण्वन्तु स्तोमं मरुतः सुदानवोऽग्निजिह्वा ऋतावृधः।

            पिबतु सोमं वरुणो धृतव्रतोऽश्विभ्यामुषसा सजूः॥ १.०४४.१४


            त्वमग्ने वसूँरिह रुद्राँ आदित्याँ उत।

            यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम्॥ १.०४५.०१

            श्रुष्टीवानो हि दाशुषे देवा अग्ने विचेतसः।

            तान्रोहिदश्व गिर्वणस्त्रयस्त्रिंशतमा वह॥ १.०४५.०२

            प्रियमेधवदत्रिवज्जातवेदो विरूपवत्।

            अङ्गिरस्वन्महिव्रत प्रस्कण्वस्य श्रुधी हवम्॥ १.०४५.०३

            महिकेरव ऊतये प्रियमेधा अहूषत।

            राजन्तमध्वराणामग्निं शुक्रेण शोचिषा॥ १.०४५.०४

            घृताहवन सन्त्येमा उ षु श्रुधी गिरः।

            याभिः कण्वस्य सूनवो हवन्तेऽवसे त्वा॥ १.०४५.०५

            त्वां चित्रश्रवस्तम हवन्ते विक्षु जन्तवः।

            शोचिष्केशं पुरुप्रियाग्ने हव्याय वोळ्हवे॥ १.०४५.०६

            नि त्वा होतारमृत्विजं दधिरे वसुवित्तमम्।

            श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं विप्रा अग्ने दिविष्टिषु॥ १.०४५.०७

            आ त्वा विप्रा अचुच्यवुः सुतसोमा अभि प्रयः।

            बृहद्भा बिभ्रतो हविरग्ने मर्ताय दाशुषे॥ १.०४५.०८

            प्रातर्याव्णः सहस्कृत सोमपेयाय सन्त्य।

            इहाद्य दैव्यं जनं बर्हिरा सादया वसो॥ १.०४५.०९

            अर्वाञ्चं दैव्यं जनमग्ने यक्ष्व सहूतिभिः।

            अयं सोमः सुदानवस्तं पात तिरोअह्न्यम्॥ १.०४५.१०


            एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः।

            स्तुषे वामश्विना बृहत्॥ १.०४६.०१

            या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम्।

            धिया देवा वसुविदा॥ १.०४६.०२

            वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि।

            यद्वां रथो विभिष्पतात्॥ १.०४६.०३

            हविषा जारो अपां पिपर्ति पपुरिर्नरा।

            पिता कुटस्य चर्षणिः॥ १.०४६.०४

            आदारो वां मतीनां नासत्या मतवचसा।

            पातं सोमस्य धृष्णुया॥ १.०४६.०५

            या नः पीपरदश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिरः।

            तामस्मे रासाथामिषम्॥ १.०४६.०६

            आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे।

            युञ्जाथामश्विना रथम्॥ १.०४६.०७

            अरित्रं वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथः।

            धिया युयुज्र इन्दवः॥ १.०४६.०८

            दिवस्कण्वास इन्दवो वसु सिन्धूनां पदे।

            स्वं वव्रिं कुह धित्सथः॥ १.०४६.०९

            अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्यः।

            व्यख्यज्जिह्वयासितः॥ १.०४६.१०

            अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया।

            अदर्शि वि स्रुतिर्दिवः॥ १.०४६.११

            तत्तदिदश्विनोरवो जरिता प्रति भूषति।

            मदे सोमस्य पिप्रतोः॥ १.०४६.१२

            वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा।

            मनुष्वच्छम्भू आ गतम्॥ १.०४६.१३

            युवोरुषा अनु श्रियं परिज्मनोरुपाचरत्।

            ऋता वनथो अक्तुभिः॥ १.०४६.१४

            उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम्।

            अविद्रियाभिरूतिभिः॥ १.०४६.१५


            अयं वां मधुमत्तमः सुतः सोम ऋतावृधा।

            तमश्विना पिबतं तिरोअह्न्यं धत्तं रत्नानि दाशुषे॥ १.०४७.०१

            त्रिवन्धुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेना यातमश्विना।

            कण्वासो वां ब्रह्म कृण्वन्त्यध्वरे तेषां सु शृणुतं हवम्॥ १.०४७.०२

            अश्विना मधुमत्तमं पातं सोममृतावृधा।

            अथाद्य दस्रा वसु बिभ्रता रथे दाश्वांसमुप गच्छतम्॥ १.०४७.०३

            त्रिषधस्थे बर्हिषि विश्ववेदसा मध्वा यज्ञं मिमिक्षतम्।

            कण्वासो वां सुतसोमा अभिद्यवो युवां हवन्ते अश्विना॥ १.०४७.०४

            याभिः कण्वमभिष्टिभिः प्रावतं युवमश्विना।

            ताभिः ष्वस्माँ अवतं शुभस्पती पातं सोममृतावृधा॥ १.०४७.०५

            सुदासे दस्रा वसु बिभ्रता रथे पृक्षो वहतमश्विना।

            रयिं समुद्रादुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तं पुरुस्पृहम्॥ १.०४७.०६

            यन्नासत्या परावति यद्वा स्थो अधि तुर्वशे।

            अतो रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः॥ १.०४७.०७

            अर्वाञ्चा वां सप्तयोऽध्वरश्रियो वहन्तु सवनेदुप।

            इषं पृञ्चन्ता सुकृते सुदानव आ बर्हिः सीदतं नरा॥ १.०४७.०८

            तेन नासत्या गतं रथेन सूर्यत्वचा।

            येन शश्वदूहथुर्दाशुषे वसु मध्वः सोमस्य पीतये॥ १.०४७.०९

            उक्थेभिरर्वागवसे पुरूवसू अर्कैश्च नि ह्वयामहे।

            शश्वत्कण्वानां सदसि प्रिये हि कं सोमं पपथुरश्विना॥ १.०४७.१०


            सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिवः।

            सह द्युम्नेन बृहता विभावरि राया देवि दास्वती॥ १.०४८.०१

            अश्वावतीर्गोमतीर्विश्वसुविदो भूरि च्यवन्त वस्तवे।

            उदीरय प्रति मा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम्॥ १.०४८.०२

            उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम्।

            ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः॥ १.०४८.०३

            उषो ये ते प्र यामेषु युञ्जते मनो दानाय सूरयः।

            अत्राह तत्कण्व एषां कण्वतमो नाम गृणाति नृणाम्॥ १.०४८.०४

            आ घा योषेव सूनर्युषा याति प्रभुञ्जती।

            जरयन्ती वृजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः॥ १.०४८.०५

            वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदती।

            वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति॥ १.०४८.०६

            एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि।

            शतं रथेभिः सुभगोषा इयं वि यात्यभि मानुषान्॥ १.०४८.०७

            विश्वमस्या नानाम चक्षसे जगज्ज्योतिष्कृणोति सूनरी।

            अप द्वेषो मघोनी दुहिता दिव उषा उच्छदप स्रिधः॥ १.०४८.०८

            उष आ भाहि भानुना चन्द्रेण दुहितर्दिवः।

            आवहन्ती भूर्यस्मभ्यं सौभगं व्युच्छन्ती दिविष्टिषु॥ १.०४८.०९

            विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनरि।

            सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम्॥ १.०४८.१०

            उषो वाजं हि वंस्व यश्चित्रो मानुषे जने।

            तेना वह सुकृतो अध्वराँ उप ये त्वा गृणन्ति वह्नयः॥ १.०४८.११

            विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम्।

            सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्यमुषो वाजं सुवीर्यम्॥ १.०४८.१२

            यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत।

            सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम्॥ १.०४८.१३

            ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि।

            सा नः स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा॥ १.०४८.१४

            उषो यदद्य भानुना वि द्वारावृणवो दिवः।

            प्र नो यच्छतादवृकं पृथु च्छर्दिः प्र देवि गोमतीरिषः॥ १.०४८.१५

            सं नो राया बृहता विश्वपेशसा मिमिक्ष्वा समिळाभिरा।

            सं द्युम्नेन विश्वतुरोषो महि सं वाजैर्वाजिनीवति॥ १.०४८.१६


            उषो भद्रेभिरा गहि दिवश्चिद्रोचनादधि।

            वहन्त्वरुणप्सव उप त्वा सोमिनो गृहम्॥ १.०४९.०१

            सुपेशसं सुखं रथं यमध्यस्था उषस्त्वम्।

            तेना सुश्रवसं जनं प्रावाद्य दुहितर्दिवः॥ १.०४९.०२

            वयश्चित्ते पतत्रिणो द्विपच्चतुष्पदर्जुनि।

            उषः प्रारन्नृतूँरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि॥ १.०४९.०३

            व्युच्छन्ती हि रश्मिभिर्विश्वमाभासि रोचनम्।

            तां त्वामुषर्वसूयवो गीर्भिः कण्वा अहूषत॥ १.०४९.०४


            उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः।

            दृशे विश्वाय सूर्यम्॥ १.०५०.०१

            अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः।

            सूराय विश्वचक्षसे॥ १.०५०.०२

            अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु।

            भ्राजन्तो अग्नयो यथा॥ १.०५०.०३

            तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य।

            विश्वमा भासि रोचनम्॥ १.०५०.०४

            प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान्।

            प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे॥ १.०५०.०५

            येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु।

            त्वं वरुण पश्यसि॥ १.०५०.०६

            वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहा मिमानो अक्तुभिः।

            पश्यञ्जन्मानि सूर्य॥ १.०५०.०७

            सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य।

            शोचिष्केशं विचक्षण॥ १.०५०.०८

            अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः।

            ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः॥ १.०५०.०९

            उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम्।

            देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्॥ १.०५०.१०

            उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम्।

            हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय॥ १.०५०.११

            शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि।

            अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि दध्मसि॥ १.०५०.१२

            उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह।

            द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम्॥ १.०५०.१३


            अभि त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियमिन्द्रं गीर्भिर्मदता वस्वो अर्णवम्।

            यस्य द्यावो न विचरन्ति मानुषा भुजे मंहिष्ठमभि विप्रमर्चत॥ १.०५१.०१

            अभीमवन्वन्स्वभिष्टिमूतयोऽन्तरिक्षप्रां तविषीभिरावृतम्।

            इन्द्रं दक्षास ऋभवो मदच्युतं शतक्रतुं जवनी सूनृतारुहत्॥ १.०५१.०२

            त्वं गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरपोतात्रये शतदुरेषु गातुवित्।

            ससेन चिद्विमदायावहो वस्वाजावद्रिं वावसानस्य नर्तयन्॥ १.०५१.०३

            त्वमपामपिधानावृणोरपाधारयः पर्वते दानुमद्वसु।

            वृत्रं यदिन्द्र शवसावधीरहिमादित्सूर्यं दिव्यारोहयो दृशे॥ १.०५१.०४

            त्वं मायाभिरप मायिनोऽधमः स्वधाभिर्ये अधि शुप्तावजुह्वत।

            त्वं पिप्रोर्नृमणः प्रारुजः पुरः प्र ऋजिश्वानं दस्युहत्येष्वाविथ॥ १.०५१.०५

            त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारन्धयोऽतिथिग्वाय शम्बरम्।

            महान्तं चिदर्बुदं नि क्रमीः पदा सनादेव दस्युहत्याय जज्ञिषे॥ १.०५१.०६

            त्वे विश्वा तविषी सध्र्यग्घिता तव राधः सोमपीथाय हर्षते।

            तव वज्रश्चिकिते बाह्वोर्हितो वृश्चा शत्रोरव विश्वानि वृष्ण्या॥ १.०५१.०७

            वि जानीह्यार्यान्ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान्।

            शाकी भव यजमानस्य चोदिता विश्वेत्ता ते सधमादेषु चाकन॥ १.०५१.०८

            अनुव्रताय रन्धयन्नपव्रतानाभूभिरिन्द्रः श्नथयन्ननाभुवः।

            वृद्धस्य चिद्वर्धतो द्यामिनक्षतः स्तवानो वम्रो वि जघान संदिहः॥ १.०५१.०९

            तक्षद्यत्त उशना सहसा सहो वि रोदसी मज्मना बाधते शवः।

            आ त्वा वातस्य नृमणो मनोयुज आ पूर्यमाणमवहन्नभि श्रवः॥ १.०५१.१०

            मन्दिष्ट यदुशने काव्ये सचाँ इन्द्रो वङ्कू वङ्कुतराधि तिष्ठति।

            उग्रो ययिं निरपः स्रोतसासृजद्वि शुष्णस्य दृंहिता ऐरयत्पुरः॥ १.०५१.११

            आ स्मा रथं वृषपाणेषु तिष्ठसि शार्यातस्य प्रभृता येषु मन्दसे।

            इन्द्र यथा सुतसोमेषु चाकनोऽनर्वाणं श्लोकमा रोहसे दिवि॥ १.०५१.१२

            अददा अर्भां महते वचस्यवे कक्षीवते वृचयामिन्द्र सुन्वते।

            मेनाभवो वृषणश्वस्य सुक्रतो विश्वेत्ता ते सवनेषु प्रवाच्या॥ १.०५१.१३

            इन्द्रो अश्रायि सुध्यो निरेके पज्रेषु स्तोमो दुर्यो न यूपः।

            अश्वयुर्गव्यू रथयुर्वसूयुरिन्द्र इद्रायः क्षयति प्रयन्ता॥ १.०५१.१४

            इदं नमो वृषभाय स्वराजे सत्यशुष्माय तवसेऽवाचि।

            अस्मिन्निन्द्र वृजने सर्ववीराः स्मत्सूरिभिस्तव शर्मन्स्याम॥ १.०५१.१५


            त्यं सु मेषं महया स्वर्विदं शतं यस्य सुभ्वः साकमीरते।

            अत्यं न वाजं हवनस्यदं रथमेन्द्रं ववृत्यामवसे सुवृक्तिभिः॥ १.०५२.०१

            स पर्वतो न धरुणेष्वच्युतः सहस्रमूतिस्तविषीषु वावृधे।

            इन्द्रो यद्वृत्रमवधीन्नदीवृतमुब्जन्नर्णांसि जर्हृषाणो अन्धसा॥ १.०५२.०२

            स हि द्वरो द्वरिषु वव्र ऊधनि चन्द्रबुध्नो मदवृद्धो मनीषिभिः।

            इन्द्रं तमह्वे स्वपस्यया धिया मंहिष्ठरातिं स हि पप्रिरन्धसः॥ १.०५२.०३

            आ यं पृणन्ति दिवि सद्मबर्हिषः समुद्रं न सुभ्वः स्वा अभिष्टयः।

            तं वृत्रहत्ये अनु तस्थुरूतयः शुष्मा इन्द्रमवाता अह्रुतप्सवः॥ १.०५२.०४

            अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्रुरूतयः।

            इन्द्रो यद्वज्री धृषमाणो अन्धसा भिनद्वलस्य परिधीँरिव त्रितः॥ १.०५२.०५

            परीं घृणा चरति तित्विषे शवोऽपो वृत्वी रजसो बुध्नमाशयत्।

            वृत्रस्य यत्प्रवणे दुर्गृभिश्वनो निजघन्थ हन्वोरिन्द्र तन्यतुम्॥ १.०५२.०६

            ह्रदं न हि त्वा न्यृषन्त्यूर्मयो ब्रह्माणीन्द्र तव यानि वर्धना।

            त्वष्टा चित्ते युज्यं वावृधे शवस्ततक्ष वज्रमभिभूत्योजसम्॥ १.०५२.०७

            जघन्वाँ उ हरिभिः सम्भृतक्रतविन्द्र वृत्रं मनुषे गातुयन्नपः।

            अयच्छथा बाह्वोर्वज्रमायसमधारयो दिव्या सूर्यं दृशे॥ १.०५२.०८

            बृहत्स्वश्चन्द्रममवद्यदुक्थ्यमकृण्वत भियसा रोहणं दिवः।

            यन्मानुषप्रधना इन्द्रमूतयः स्वर्नृषाचो मरुतोऽमदन्ननु॥ १.०५२.०९

            द्यौश्चिदस्यामवाँ अहेः स्वनादयोयवीद्भियसा वज्र इन्द्र ते।

            वृत्रस्य यद्बद्बधानस्य रोदसी मदे सुतस्य शवसाभिनच्छिरः॥ १.०५२.१०

            यदिन्न्विन्द्र पृथिवी दशभुजिरहानि विश्वा ततनन्त कृष्टयः।

            अत्राह ते मघवन्विश्रुतं सहो द्यामनु शवसा बर्हणा भुवत्॥ १.०५२.११

            त्वमस्य पारे रजसो व्योमनः स्वभूत्योजा अवसे धृषन्मनः।

            चकृषे भूमिं प्रतिमानमोजसोऽपः स्वः परिभूरेष्या दिवम्॥ १.०५२.१२

            त्वं भुवः प्रतिमानं पृथिव्या ऋष्ववीरस्य बृहतः पतिर्भूः।

            विश्वमाप्रा अन्तरिक्षं महित्वा सत्यमद्धा नकिरन्यस्त्वावान्॥ १.०५२.१३

            न यस्य द्यावापृथिवी अनु व्यचो न सिन्धवो रजसो अन्तमानशुः।

            नोत स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यत एको अन्यच्चकृषे विश्वमानुषक्॥ १.०५२.१४

            आर्चन्नत्र मरुतः सस्मिन्नाजौ विश्वे देवासो अमदन्ननु त्वा।

            वृत्रस्य यद्भृष्टिमता वधेन नि त्वमिन्द्र प्रत्यानं जघन्थ॥ १.०५२.१५


            न्यू षु वाचं प्र महे भरामहे गिर इन्द्राय सदने विवस्वतः।

            नू चिद्धि रत्नं ससतामिवाविदन्न दुष्टुतिर्द्रविणोदेषु शस्यते॥ १.०५३.०१

            दुरो अश्वस्य दुर इन्द्र गोरसि दुरो यवस्य वसुन इनस्पतिः।

            शिक्षानरः प्रदिवो अकामकर्शनः सखा सखिभ्यस्तमिदं गृणीमसि॥ १.०५३.०२

            शचीव इन्द्र पुरुकृद्द्युमत्तम तवेदिदमभितश्चेकिते वसु।

            अतः संगृभ्याभिभूत आ भर मा त्वायतो जरितुः काममूनयीः॥ १.०५३.०३

            एभिर्द्युभिः सुमना एभिरिन्दुभिर्निरुन्धानो अमतिं गोभिरश्विना।

            इन्द्रेण दस्युं दरयन्त इन्दुभिर्युतद्वेषसः समिषा रभेमहि॥ १.०५३.०४

            समिन्द्र राया समिषा रभेमहि सं वाजेभिः पुरुश्चन्द्रैरभिद्युभिः।

            सं देव्या प्रमत्या वीरशुष्मया गोअग्रयाश्वावत्या रभेमहि॥ १.०५३.०५

            ते त्वा मदा अमदन्तानि वृष्ण्या ते सोमासो वृत्रहत्येषु सत्पते।

            यत्कारवे दश वृत्राण्यप्रति बर्हिष्मते नि सहस्राणि बर्हयः॥ १.०५३.०६

            युधा युधमुप घेदेषि धृष्णुया पुरा पुरं समिदं हंस्योजसा।

            नम्या यदिन्द्र सख्या परावति निबर्हयो नमुचिं नाम मायिनम्॥ १.०५३.०७

            त्वं करञ्जमुत पर्णयं वधीस्तेजिष्ठयातिथिग्वस्य वर्तनी।

            त्वं शता वङ्गृदस्याभिनत्पुरोऽनानुदः परिषूता ऋजिश्वना॥ १.०५३.०८

            त्वमेताञ्जनराज्ञो द्विर्दशाबन्धुना सुश्रवसोपजग्मुषः।

            षष्टिं सहस्रा नवतिं नव श्रुतो नि चक्रेण रथ्या दुष्पदावृणक्॥ १.०५३.०९

            त्वमाविथ सुश्रवसं तवोतिभिस्तव त्रामभिरिन्द्र तूर्वयाणम्।

            त्वमस्मै कुत्समतिथिग्वमायुं महे राज्ञे यूने अरन्धनायः॥ १.०५३.१०

            य उदृचीन्द्र देवगोपाः सखायस्ते शिवतमा असाम।

            त्वां स्तोषाम त्वया सुवीरा द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः॥ १.०५३.११


            मा नो अस्मिन्मघवन्पृत्स्वंहसि नहि ते अन्तः शवसः परीणशे।

            अक्रन्दयो नद्यो रोरुवद्वना कथा न क्षोणीर्भियसा समारत॥ १.०५४.०१

            अर्चा शक्राय शाकिने शचीवते शृण्वन्तमिन्द्रं महयन्नभि ष्टुहि।

            यो धृष्णुना शवसा रोदसी उभे वृषा वृषत्वा वृषभो न्यृञ्जते॥ १.०५४.०२

            अर्चा दिवे बृहते शूष्यं वचः स्वक्षत्रं यस्य धृषतो धृषन्मनः।

            बृहच्छ्रवा असुरो बर्हणा कृतः पुरो हरिभ्यां वृषभो रथो हि षः॥ १.०५४.०३

            त्वं दिवो बृहतः सानु कोपयोऽव त्मना धृषता शम्बरं भिनत्।

            यन्मायिनो व्रन्दिनो मन्दिना धृषच्छितां गभस्तिमशनिं पृतन्यसि॥ १.०५४.०४

            नि यद्वृणक्षि श्वसनस्य मूर्धनि शुष्णस्य चिद्व्रन्दिनो रोरुवद्वना।

            प्राचीनेन मनसा बर्हणावता यदद्या चित्कृणवः कस्त्वा परि॥ १.०५४.०५

            त्वमाविथ नर्यं तुर्वशं यदुं त्वं तुर्वीतिं वय्यं शतक्रतो।

            त्वं रथमेतशं कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव॥ १.०५४.०६

            स घा राजा सत्पतिः शूशुवज्जनो रातहव्यः प्रति यः शासमिन्वति।

            उक्था वा यो अभिगृणाति राधसा दानुरस्मा उपरा पिन्वते दिवः॥ १.०५४.०७

            असमं क्षत्रमसमा मनीषा प्र सोमपा अपसा सन्तु नेमे।

            ये त इन्द्र ददुषो वर्धयन्ति महि क्षत्रं स्थविरं वृष्ण्यं च॥ १.०५४.०८

            तुभ्येदेते बहुला अद्रिदुग्धाश्चमूषदश्चमसा इन्द्रपानाः।

            व्यश्नुहि तर्पया काममेषामथा मनो वसुदेयाय कृष्व॥ १.०५४.०९

            अपामतिष्ठद्धरुणह्वरं तमोऽन्तर्वृत्रस्य जठरेषु पर्वतः।

            अभीमिन्द्रो नद्यो वव्रिणा हिता विश्वा अनुष्ठाः प्रवणेषु जिघ्नते॥ १.०५४.१०

            स शेवृधमधि धा द्युम्नमस्मे महि क्षत्रं जनाषाळिन्द्र तव्यम्।

            रक्षा च नो मघोनः पाहि सूरीन्राये च नः स्वपत्या इषे धाः॥ १.०५४.११


            दिवश्चिदस्य वरिमा वि पप्रथ इन्द्रं न मह्ना पृथिवी चन प्रति।

            भीमस्तुविष्माञ्चर्षणिभ्य आतपः शिशीते वज्रं तेजसे न वंसगः॥ १.०५५.०१

            सो अर्णवो न नद्यः समुद्रियः प्रति गृभ्णाति विश्रिता वरीमभिः।

            इन्द्रः सोमस्य पीतये वृषायते सनात्स युध्म ओजसा पनस्यते॥ १.०५५.०२

            त्वं तमिन्द्र पर्वतं न भोजसे महो नृम्णस्य धर्मणामिरज्यसि।

            प्र वीर्येण देवताति चेकिते विश्वस्मा उग्रः कर्मणे पुरोहितः॥ १.०५५.०३

            स इद्वने नमस्युभिर्वचस्यते चारु जनेषु प्रब्रुवाण इन्द्रियम्।

            वृषा छन्दुर्भवति हर्यतो वृषा क्षेमेण धेनां मघवा यदिन्वति॥ १.०५५.०४

            स इन्महानि समिथानि मज्मना कृणोति युध्म ओजसा जनेभ्यः।

            अधा चन श्रद्दधति त्विषीमत इन्द्राय वज्रं निघनिघ्नते वधम्॥ १.०५५.०५

            स हि श्रवस्युः सदनानि कृत्रिमा क्ष्मया वृधान ओजसा विनाशयन्।

            ज्योतींषि कृण्वन्नवृकाणि यज्यवेऽव सुक्रतुः सर्तवा अपः सृजत्॥ १.०५५.०६

            दानाय मनः सोमपावन्नस्तु तेऽर्वाञ्चा हरी वन्दनश्रुदा कृधि।

            यमिष्ठासः सारथयो य इन्द्र ते न त्वा केता आ दभ्नुवन्ति भूर्णयः॥ १.०५५.०७

            अप्रक्षितं वसु बिभर्षि हस्तयोरषाळ्हं सहस्तन्वि श्रुतो दधे।

            आवृतासोऽवतासो न कर्तृभिस्तनूषु ते क्रतव इन्द्र भूरयः॥ १.०५५.०८


            एष प्र पूर्वीरव तस्य चम्रिषोऽत्यो न योषामुदयंस्त भुर्वणिः।

            दक्षं महे पाययते हिरण्ययं रथमावृत्या हरियोगमृभ्वसम्॥ १.०५६.०१

            तं गूर्तयो नेमन्निषः परीणसः समुद्रं न संचरणे सनिष्यवः।

            पतिं दक्षस्य विदथस्य नू सहो गिरिं न वेना अधि रोह तेजसा॥ १.०५६.०२

            स तुर्वणिर्महाँ अरेणु पौंस्ये गिरेर्भृष्टिर्न भ्राजते तुजा शवः।

            येन शुष्णं मायिनमायसो मदे दुध्र आभूषु रामयन्नि दामनि॥ १.०५६.०३

            देवी यदि तविषी त्वावृधोतय इन्द्रं सिषक्त्युषसं न सूर्यः।

            यो धृष्णुना शवसा बाधते तम इयर्ति रेणुं बृहदर्हरिष्वणिः॥ १.०५६.०४

            वि यत्तिरो धरुणमच्युतं रजोऽतिष्ठिपो दिव आतासु बर्हणा।

            स्वर्मीळ्हे यन्मद इन्द्र हर्ष्याहन्वृत्रं निरपामौब्जो अर्णवम्॥ १.०५६.०५

            त्वं दिवो धरुणं धिष ओजसा पृथिव्या इन्द्र सदनेषु माहिनः।

            त्वं सुतस्य मदे अरिणा अपो वि वृत्रस्य समया पाष्यारुजः॥ १.०५६.०६


            प्र मंहिष्ठाय बृहते बृहद्रये सत्यशुष्माय तवसे मतिं भरे।

            अपामिव प्रवणे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावृतम्॥ १.०५७.०१

            अध ते विश्वमनु हासदिष्टय आपो निम्नेव सवना हविष्मतः।

            यत्पर्वते न समशीत हर्यत इन्द्रस्य वज्रः श्नथिता हिरण्ययः॥ १.०५७.०२

            अस्मै भीमाय नमसा समध्वर उषो न शुभ्र आ भरा पनीयसे।

            यस्य धाम श्रवसे नामेन्द्रियं ज्योतिरकारि हरितो नायसे॥ १.०५७.०३

            इमे त इन्द्र ते वयं पुरुष्टुत ये त्वारभ्य चरामसि प्रभूवसो।

            नहि त्वदन्यो गिर्वणो गिरः सघत्क्षोणीरिव प्रति नो हर्य तद्वचः॥ १.०५७.०४

            भूरि त इन्द्र वीर्यं तव स्मस्यस्य स्तोतुर्मघवन्काममा पृण।

            अनु ते द्यौर्बृहती वीर्यं मम इयं च ते पृथिवी नेम ओजसे॥ १.०५७.०५

            त्वं तमिन्द्र पर्वतं महामुरुं वज्रेण वज्रिन्पर्वशश्चकर्तिथ।

            अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः सत्रा विश्वं दधिषे केवलं सहः॥ १.०५७.०६


            नू चित्सहोजा अमृतो नि तुन्दते होता यद्दूतो अभवद्विवस्वतः।

            वि साधिष्ठेभिः पथिभी रजो मम आ देवताता हविषा विवासति॥ १.०५८.०१

            आ स्वमद्म युवमानो अजरस्तृष्वविष्यन्नतसेषु तिष्ठति।

            अत्यो न पृष्ठं प्रुषितस्य रोचते दिवो न सानु स्तनयन्नचिक्रदत्॥ १.०५८.०२

            क्राणा रुद्रेभिर्वसुभिः पुरोहितो होता निषत्तो रयिषाळमर्त्यः।

            रथो न विक्ष्वृञ्जसान आयुषु व्यानुषग्वार्या देव ऋण्वति॥ १.०५८.०३

            वि वातजूतो अतसेषु तिष्ठते वृथा जुहूभिः सृण्या तुविष्वणिः।

            तृषु यदग्ने वनिनो वृषायसे कृष्णं त एम रुशदूर्मे अजर॥ १.०५८.०४

            तपुर्जम्भो वन आ वातचोदितो यूथे न साह्वाँ अव वाति वंसगः।

            अभिव्रजन्नक्षितं पाजसा रजः स्थातुश्चरथं भयते पतत्रिणः॥ १.०५८.०५

            दधुष्ट्वा भृगवो मानुषेष्वा रयिं न चारुं सुहवं जनेभ्यः।

            होतारमग्ने अतिथिं वरेण्यं मित्रं न शेवं दिव्याय जन्मने॥ १.०५८.०६

            होतारं सप्त जुह्वो यजिष्ठं यं वाघतो वृणते अध्वरेषु।

            अग्निं विश्वेषामरतिं वसूनां सपर्यामि प्रयसा यामि रत्नम्॥ १.०५८.०७

            अच्छिद्रा सूनो सहसो नो अद्य स्तोतृभ्यो मित्रमहः शर्म यच्छ।

            अग्ने गृणन्तमंहस उरुष्योर्जो नपात्पूर्भिरायसीभिः॥ १.०५८.०८

            भवा वरूथं गृणते विभावो भवा मघवन्मघवद्भ्यः शर्म।

            उरुष्याग्ने अंहसो गृणन्तं प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात्॥ १.०५८.०९


            वया इदग्ने अग्नयस्ते अन्ये त्वे विश्वे अमृता मादयन्ते।

            वैश्वानर नाभिरसि क्षितीनां स्थूणेव जनाँ उपमिद्ययन्थ॥ १.०५९.०१

            मूर्धा दिवो नाभिरग्निः पृथिव्या अथाभवदरती रोदस्योः।

            तं त्वा देवासोऽजनयन्त देवं वैश्वानर ज्योतिरिदार्याय॥ १.०५९.०२

            आ सूर्ये न रश्मयो ध्रुवासो वैश्वानरे दधिरेऽग्ना वसूनि।

            या पर्वतेष्वोषधीष्वप्सु या मानुषेष्वसि तस्य राजा॥ १.०५९.०३

            बृहती इव सूनवे रोदसी गिरो होता मनुष्यो न दक्षः।

            स्वर्वते सत्यशुष्माय पूर्वीर्वैश्वानराय नृतमाय यह्वीः॥ १.०५९.०४

            दिवश्चित्ते बृहतो जातवेदो वैश्वानर प्र रिरिचे महित्वम्।

            राजा कृष्टीनामसि मानुषीणां युधा देवेभ्यो वरिवश्चकर्थ॥ १.०५९.०५

            प्र नू महित्वं वृषभस्य वोचं यं पूरवो वृत्रहणं सचन्ते।

            वैश्वानरो दस्युमग्निर्जघन्वाँ अधूनोत्काष्ठा अव शम्बरं भेत्॥ १.०५९.०६

            वैश्वानरो महिम्ना विश्वकृष्टिर्भरद्वाजेषु यजतो विभावा।

            शातवनेये शतिनीभिरग्निः पुरुणीथे जरते सूनृतावान्॥ १.०५९.०७


            वह्निं यशसं विदथस्य केतुं सुप्राव्यं दूतं सद्योअर्थम्।

            द्विजन्मानं रयिमिव प्रशस्तं रातिं भरद्भृगवे मातरिश्वा॥ १.०६०.०१

            अस्य शासुरुभयासः सचन्ते हविष्मन्त उशिजो ये च मर्ताः।

            दिवश्चित्पूर्वो न्यसादि होतापृच्छ्यो विश्पतिर्विक्षु वेधाः॥ १.०६०.०२

            तं नव्यसी हृद आ जायमानमस्मत्सुकीर्तिर्मधुजिह्वमश्याः।

            यमृत्विजो वृजने मानुषासः प्रयस्वन्त आयवो जीजनन्त॥ १.०६०.०३

            उशिक्पावको वसुर्मानुषेषु वरेण्यो होताधायि विक्षु।

            दमूना गृहपतिर्दम आँ अग्निर्भुवद्रयिपती रयीणाम्॥ १.०६०.०४

            तं त्वा वयं पतिमग्ने रयीणां प्र शंसामो मतिभिर्गोतमासः।

            आशुं न वाजम्भरं मर्जयन्तः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात्॥ १.०६०.०५


            अस्मा इदु प्र तवसे तुराय प्रयो न हर्मि स्तोमं माहिनाय।

            ऋचीषमायाध्रिगव ओहमिन्द्राय ब्रह्माणि राततमा॥ १.०६१.०१

            अस्मा इदु प्रय इव प्र यंसि भराम्याङ्गूषं बाधे सुवृक्ति।

            इन्द्राय हृदा मनसा मनीषा प्रत्नाय पत्ये धियो मर्जयन्त॥ १.०६१.०२

            अस्मा इदु त्यमुपमं स्वर्षां भराम्याङ्गूषमास्येन।

            मंहिष्ठमच्छोक्तिभिर्मतीनां सुवृक्तिभिः सूरिं वावृधध्यै॥ १.०६१.०३

            अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय।

            गिरश्च गिर्वाहसे सुवृक्तीन्द्राय विश्वमिन्वं मेधिराय॥ १.०६१.०४

            अस्मा इदु सप्तिमिव श्रवस्येन्द्रायार्कं जुह्वा समञ्जे।

            वीरं दानौकसं वन्दध्यै पुरां गूर्तश्रवसं दर्माणम्॥ १.०६१.०५

            अस्मा इदु त्वष्टा तक्षद्वज्रं स्वपस्तमं स्वर्यं रणाय।

            वृत्रस्य चिद्विदद्येन मर्म तुजन्नीशानस्तुजता कियेधाः॥ १.०६१.०६

            अस्येदु मातुः सवनेषु सद्यो महः पितुं पपिवाञ्चार्वन्ना।

            मुषायद्विष्णुः पचतं सहीयान्विध्यद्वराहं तिरो अद्रिमस्ता॥ १.०६१.०७

            अस्मा इदु ग्नाश्चिद्देवपत्नीरिन्द्रायार्कमहिहत्य ऊवुः।

            परि द्यावापृथिवी जभ्र उर्वी नास्य ते महिमानं परि ष्टः॥ १.०६१.०८

            अस्येदेव प्र रिरिचे महित्वं दिवस्पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षात्।

            स्वराळिन्द्रो दम आ विश्वगूर्तः स्वरिरमत्रो ववक्षे रणाय॥ १.०६१.०९

            अस्येदेव शवसा शुषन्तं वि वृश्चद्वज्रेण वृत्रमिन्द्रः।

            गा न व्राणा अवनीरमुञ्चदभि श्रवो दावने सचेताः॥ १.०६१.१०

            अस्येदु त्वेषसा रन्त सिन्धवः परि यद्वज्रेण सीमयच्छत्।

            ईशानकृद्दाशुषे दशस्यन्तुर्वीतये गाधं तुर्वणिः कः॥ १.०६१.११

            अस्मा इदु प्र भरा तूतुजानो वृत्राय वज्रमीशानः कियेधाः।

            गोर्न पर्व वि रदा तिरश्चेष्यन्नर्णांस्यपां चरध्यै॥ १.०६१.१२

            अस्येदु प्र ब्रूहि पूर्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः।

            युधे यदिष्णान आयुधान्यृघायमाणो निरिणाति शत्रून्॥ १.०६१.१३

            अस्येदु भिया गिरयश्च दृळ्हा द्यावा च भूमा जनुषस्तुजेते।

            उपो वेनस्य जोगुवान ओणिं सद्यो भुवद्वीर्याय नोधाः॥ १.०६१.१४

            अस्मा इदु त्यदनु दाय्येषामेको यद्वव्ने भूरेरीशानः।

            प्रैतशं सूर्ये पस्पृधानं सौवश्व्ये सुष्विमावदिन्द्रः॥ १.०६१.१५

            एवा ते हारियोजना सुवृक्तीन्द्र ब्रह्माणि गोतमासो अक्रन्।

            ऐषु विश्वपेशसं धियं धाः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात्॥ १.०६१.१६


            प्र मन्महे शवसानाय शूषमाङ्गूषं गिर्वणसे अङ्गिरस्वत्।

            सुवृक्तिभिः स्तुवत ऋग्मियायार्चामार्कं नरे विश्रुताय॥ १.०६२.०१

            प्र वो महे महि नमो भरध्वमाङ्गूष्यं शवसानाय साम।

            येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञा अर्चन्तो अङ्गिरसो गा अविन्दन्॥ १.०६२.०२

            इन्द्रस्याङ्गिरसां चेष्टौ विदत्सरमा तनयाय धासिम्।

            बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदद्गाः समुस्रियाभिर्वावशन्त नरः॥ १.०६२.०३

            स सुष्टुभा स स्तुभा सप्त विप्रैः स्वरेणाद्रिं स्वर्यो नवग्वैः।

            सरण्युभिः फलिगमिन्द्र शक्र वलं रवेण दरयो दशग्वैः॥ १.०६२.०४

            गृणानो अङ्गिरोभिर्दस्म वि वरुषसा सूर्येण गोभिरन्धः।

            वि भूम्या अप्रथय इन्द्र सानु दिवो रज उपरमस्तभायः॥ १.०६२.०५

            तदु प्रयक्षतममस्य कर्म दस्मस्य चारुतममस्ति दंसः।

            उपह्वरे यदुपरा अपिन्वन्मध्वर्णसो नद्यश्चतस्रः॥ १.०६२.०६

            द्विता वि वव्रे सनजा सनीळे अयास्यः स्तवमानेभिरर्कैः।

            भगो न मेने परमे व्योमन्नधारयद्रोदसी सुदंसाः॥ १.०६२.०७

            सनाद्दिवं परि भूमा विरूपे पुनर्भुवा युवती स्वेभिरेवैः।

            कृष्णेभिरक्तोषा रुशद्भिर्वपुर्भिरा चरतो अन्यान्या॥ १.०६२.०८

            सनेमि सख्यं स्वपस्यमानः सूनुर्दाधार शवसा सुदंसाः।

            आमासु चिद्दधिषे पक्वमन्तः पयः कृष्णासु रुशद्रोहिणीषु॥ १.०६२.०९

            सनात्सनीळा अवनीरवाता व्रता रक्षन्ते अमृताः सहोभिः।

            पुरू सहस्रा जनयो न पत्नीर्दुवस्यन्ति स्वसारो अह्रयाणम्॥ १.०६२.१०

            सनायुवो नमसा नव्यो अर्कैर्वसूयवो मतयो दस्म दद्रुः।

            पतिं न पत्नीरुशतीरुशन्तं स्पृशन्ति त्वा शवसावन्मनीषाः॥ १.०६२.११

            सनादेव तव रायो गभस्तौ न क्षीयन्ते नोप दस्यन्ति दस्म।

            द्युमाँ असि क्रतुमाँ इन्द्र धीरः शिक्षा शचीवस्तव नः शचीभिः॥ १.०६२.१२

            सनायते गोतम इन्द्र नव्यमतक्षद्ब्रह्म हरियोजनाय।

            सुनीथाय नः शवसान नोधाः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात्॥ १.०६२.१३


            त्वं महाँ इन्द्र यो ह शुष्मैर्द्यावा जज्ञानः पृथिवी अमे धाः।

            यद्ध ते विश्वा गिरयश्चिदभ्वा भिया दृळ्हासः किरणा नैजन्॥ १.०६३.०१

            आ यद्धरी इन्द्र विव्रता वेरा ते वज्रं जरिता बाह्वोर्धात्।

            येनाविहर्यतक्रतो अमित्रान्पुर इष्णासि पुरुहूत पूर्वीः॥ १.०६३.०२

            त्वं सत्य इन्द्र धृष्णुरेतान्त्वमृभुक्षा नर्यस्त्वं षाट्।

            त्वं शुष्णं वृजने पृक्ष आणौ यूने कुत्साय द्युमते सचाहन्॥ १.०६३.०३

            त्वं ह त्यदिन्द्र चोदीः सखा वृत्रं यद्वज्रिन्वृषकर्मन्नुभ्नाः।

            यद्ध शूर वृषमणः पराचैर्वि दस्यूँर्योनावकृतो वृथाषाट्॥ १.०६३.०४

            त्वं ह त्यदिन्द्रारिषण्यन्दृळ्हस्य चिन्मर्तानामजुष्टौ।

            व्यस्मदा काष्ठा अर्वते वर्घनेव वज्रिञ्छ्नथिह्यमित्रान्॥ १.०६३.०५

            त्वां ह त्यदिन्द्रार्णसातौ स्वर्मीळ्हे नर आजा हवन्ते।

            तव स्वधाव इयमा समर्य ऊतिर्वाजेष्वतसाय्या भूत्॥ १.०६३.०६

            त्वं ह त्यदिन्द्र सप्त युध्यन्पुरो वज्रिन्पुरुकुत्साय दर्दः।

            बर्हिर्न यत्सुदासे वृथा वर्गंहो राजन्वरिवः पूरवे कः॥ १.०६३.०७

            त्वं त्यां न इन्द्र देव चित्रामिषमापो न पीपयः परिज्मन्।

            यया शूर प्रत्यस्मभ्यं यंसि त्मनमूर्जं न विश्वध क्षरध्यै॥ १.०६३.०८

            अकारि त इन्द्र गोतमेभिर्ब्रह्माण्योक्ता नमसा हरिभ्याम्।

            सुपेशसं वाजमा भरा नः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात्॥ १.०६३.०९


            वृष्णे शर्धाय सुमखाय वेधसे नोधः सुवृक्तिं प्र भरा मरुद्भ्यः।

            अपो न धीरो मनसा सुहस्त्यो गिरः समञ्जे विदथेष्वाभुवः॥ १.०६४.०१

            ते जज्ञिरे दिव ऋष्वास उक्षणो रुद्रस्य मर्या असुरा अरेपसः।

            पावकासः शुचयः सूर्या इव सत्वानो न द्रप्सिनो घोरवर्पसः॥ १.०६४.०२

            युवानो रुद्रा अजरा अभोग्घनो ववक्षुरध्रिगावः पर्वता इव।

            दृळ्हा चिद्विश्वा भुवनानि पार्थिवा प्र च्यावयन्ति दिव्यानि मज्मना॥ १.०६४.०३

            चित्रैरञ्जिभिर्वपुषे व्यञ्जते वक्षस्सु रुक्माँ अधि येतिरे शुभे।

            अंसेष्वेषां नि मिमृक्षुरृष्टयः साकं जज्ञिरे स्वधया दिवो नरः॥ १.०६४.०४

            ईशानकृतो धुनयो रिशादसो वातान्विद्युतस्तविषीभिरक्रत।

            दुहन्त्यूधर्दिव्यानि धूतयो भूमिं पिन्वन्ति पयसा परिज्रयः॥ १.०६४.०५

            पिन्वन्त्यपो मरुतः सुदानवः पयो घृतवद्विदथेष्वाभुवः।

            अत्यं न मिहे वि नयन्ति वाजिनमुत्सं दुहन्ति स्तनयन्तमक्षितम्॥ १.०६४.०६

            महिषासो मायिनश्चित्रभानवो गिरयो न स्वतवसो रघुष्यदः।

            मृगा इव हस्तिनः खादथा वना यदारुणीषु तविषीरयुग्ध्वम्॥ १.०६४.०७

            सिंहा इव नानदति प्रचेतसः पिशा इव सुपिशो विश्ववेदसः।

            क्षपो जिन्वन्तः पृषतीभिरृष्टिभिः समित्सबाधः शवसाहिमन्यवः॥ १.०६४.०८

            रोदसी आ वदता गणश्रियो नृषाचः शूराः शवसाहिमन्यवः।

            आ वन्धुरेष्वमतिर्न दर्शता विद्युन्न तस्थौ मरुतो रथेषु वः॥ १.०६४.०९

            विश्ववेदसो रयिभिः समोकसः सम्मिश्लासस्तविषीभिर्विरप्शिनः।

            अस्तार इषुं दधिरे गभस्त्योरनन्तशुष्मा वृषखादयो नरः॥ १.०६४.१०

            हिरण्ययेभिः पविभिः पयोवृध उज्जिघ्नन्त आपथ्यो न पर्वतान्।

            मखा अयासः स्वसृतो ध्रुवच्युतो दुध्रकृतो मरुतो भ्राजदृष्टयः॥ १.०६४.११

            घृषुं पावकं वनिनं विचर्षणिं रुद्रस्य सूनुं हवसा गृणीमसि।

            रजस्तुरं तवसं मारुतं गणमृजीषिणं वृषणं सश्चत श्रिये॥ १.०६४.१२

            प्र नू स मर्तः शवसा जनाँ अति तस्थौ व ऊती मरुतो यमावत।

            अर्वद्भिर्वाजं भरते धना नृभिरापृच्छ्यं क्रतुमा क्षेति पुष्यति॥ १.०६४.१३

            चर्कृत्यं मरुतः पृत्सु दुष्टरं द्युमन्तं शुष्मं मघवत्सु धत्तन।

            धनस्पृतमुक्थ्यं विश्वचर्षणिं तोकं पुष्येम तनयं शतं हिमाः॥ १.०६४.१४

            नू ष्ठिरं मरुतो वीरवन्तमृतीषाहं रयिमस्मासु धत्त।

            सहस्रिणं शतिनं शूशुवांसं प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात्॥ १.०६४.१५


            पश्वा न तायुं गुहा चतन्तं नमो युजानं नमो वहन्तम्॥ १.०६५.०१

            सजोषा धीराः पदैरनु ग्मन्नुप त्वा सीदन्विश्वे यजत्राः॥ १.०६५.०२

            ऋतस्य देवा अनु व्रता गुर्भुवत्परिष्टिर्द्यौर्न भूम॥ १.०६५.०३

            वर्धन्तीमापः पन्वा सुशिश्विमृतस्य योना गर्भे सुजातम्॥ १.०६५.०४

            पुष्टिर्न रण्वा क्षितिर्न पृथ्वी गिरिर्न भुज्म क्षोदो न शम्भु॥ १.०६५.०५

            अत्यो नाज्मन्सर्गप्रतक्तः सिन्धुर्न क्षोदः क ईं वराते॥ १.०६५.०६

            जामिः सिन्धूनां भ्रातेव स्वस्रामिभ्यान्न राजा वनान्यत्ति॥ १.०६५.०७

            यद्वातजूतो वना व्यस्थादग्निर्ह दाति रोमा पृथिव्याः॥ १.०६५.०८

            श्वसित्यप्सु हंसो न सीदन्क्रत्वा चेतिष्ठो विशामुषर्भुत्॥ १.०६५.०९

            सोमो न वेधा ऋतप्रजातः पशुर्न शिश्वा विभुर्दूरेभाः॥ १.०६५.१०


            रयिर्न चित्रा सूरो न संदृगायुर्न प्राणो नित्यो न सूनुः॥ १.०६६.०१

            तक्वा न भूर्णिर्वना सिषक्ति पयो न धेनुः शुचिर्विभावा॥ १.०६६.०२

            दाधार क्षेममोको न रण्वो यवो न पक्वो जेता जनानाम्॥ १.०६६.०३

            ऋषिर्न स्तुभ्वा विक्षु प्रशस्तो वाजी न प्रीतो वयो दधाति॥ १.०६६.०४

            दुरोकशोचिः क्रतुर्न नित्यो जायेव योनावरं विश्वस्मै॥ १.०६६.०५

            चित्रो यदभ्राट् छ्वेतो न विक्षु रथो न रुक्मी त्वेषः समत्सु॥ १.०६६.०६

            सेनेव सृष्टामं दधात्यस्तुर्न दिद्युत्त्वेषप्रतीका॥ १.०६६.०७

            यमो ह जातो यमो जनित्वं जारः कनीनां पतिर्जनीनाम्॥ १.०६६.०८

            तं वश्चराथा वयं वसत्यास्तं न गावो नक्षन्त इद्धम्॥ १.०६६.०९

            सिन्धुर्न क्षोदः प्र नीचीरैनोन्नवन्त गावः स्वर्दृशीके॥ १.०६६.१०


            वनेषु जायुर्मर्तेषु मित्रो वृणीते श्रुष्टिं राजेवाजुर्यम्॥ १.०६७.०१

            क्षेमो न साधुः क्रतुर्न भद्रो भुवत्स्वाधीर्होता हव्यवाट्॥ १.०६७.०२

            हस्ते दधानो नृम्णा विश्वान्यमे देवान्धाद्गुहा निषीदन्॥ १.०६७.०३

            विदन्तीमत्र नरो धियंधा हृदा यत्तष्टान्मन्त्राँ अशंसन्॥ १.०६७.०४

            अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः॥ १.०६७.०५

            प्रिया पदानि पश्वो नि पाहि विश्वायुरग्ने गुहा गुहं गाः॥ १.०६७.०६

            य ईं चिकेत गुहा भवन्तमा यः ससाद धारामृतस्य॥ १.०६७.०७

            वि ये चृतन्त्यृता सपन्त आदिद्वसूनि प्र ववाचास्मै॥ १.०६७.०८

            वि यो वीरुत्सु रोधन्महित्वोत प्रजा उत प्रसूष्वन्तः॥ १.०६७.०९

            चित्तिरपां दमे विश्वायुः सद्मेव धीराः सम्माय चक्रुः॥ १.०६७.१०


            श्रीणन्नुप स्थाद्दिवं भुरण्युः स्थातुश्चरथमक्तून्व्यूर्णोत्॥ १.०६८.०१

            परि यदेषामेको विश्वेषां भुवद्देवो देवानां महित्वा॥ १.०६८.०२

            आदित्ते विश्वे क्रतुं जुषन्त शुष्काद्यद्देव जीवो जनिष्ठाः॥ १.०६८.०३

            भजन्त विश्वे देवत्वं नाम ऋतं सपन्तो अमृतमेवैः॥ १.०६८.०४

            ऋतस्य प्रेषा ऋतस्य धीतिर्विश्वायुर्विश्वे अपांसि चक्रुः॥ १.०६८.०५

            यस्तुभ्यं दाशाद्यो वा ते शिक्षात्तस्मै चिकित्वान्रयिं दयस्व॥ १.०६८.०६

            होता निषत्तो मनोरपत्ये स चिन्न्वासां पती रयीणाम्॥ १.०६८.०७

            इच्छन्त रेतो मिथस्तनूषु सं जानत स्वैर्दक्षैरमूराः॥ १.०६८.०८

            पितुर्न पुत्राः क्रतुं जुषन्त श्रोषन्ये अस्य शासं तुरासः॥ १.०६८.०९

            वि राय और्णोद्दुरः पुरुक्षुः पिपेश नाकं स्तृभिर्दमूनाः॥ १.०६८.१०


            शुक्रः शुशुक्वाँ उषो न जारः पप्रा समीची दिवो न ज्योतिः॥ १.०६९.०१

            परि प्रजातः क्रत्वा बभूथ भुवो देवानां पिता पुत्रः सन्॥ १.०६९.०२

            वेधा अदृप्तो अग्निर्विजानन्नूधर्न गोनां स्वाद्मा पितूनाम्॥ १.०६९.०३

            जने न शेव आहूर्यः सन्मध्ये निषत्तो रण्वो दुरोणे॥ १.०६९.०४

            पुत्रो न जातो रण्वो दुरोणे वाजी न प्रीतो विशो वि तारीत्॥ १.०६९.०५

            विशो यदह्वे नृभिः सनीळा अग्निर्देवत्वा विश्वान्यश्याः॥ १.०६९.०६

            नकिष्ट एता व्रता मिनन्ति नृभ्यो यदेभ्यः श्रुष्टिं चकर्थ॥ १.०६९.०७

            तत्तु ते दंसो यदहन्समानैर्नृभिर्यद्युक्तो विवे रपांसि॥ १.०६९.०८

            उषो न जारो विभावोस्रः संज्ञातरूपश्चिकेतदस्मै॥ १.०६९.०९

            त्मना वहन्तो दुरो व्यृण्वन्नवन्त विश्वे स्वर्दृशीके॥ १.०६९.१०


            वनेम पूर्वीरर्यो मनीषा अग्निः सुशोको विश्वान्यश्याः॥ १.०७०.०१

            आ दैव्यानि व्रता चिकित्वाना मानुषस्य जनस्य जन्म॥ १.०७०.०२

            गर्भो यो अपां गर्भो वनानां गर्भश्च स्थातां गर्भश्चरथाम्॥ १.०७०.०३

            अद्रौ चिदस्मा अन्तर्दुरोणे विशां न विश्वो अमृतः स्वाधीः॥ १.०७०.०४

            स हि क्षपावाँ अग्नी रयीणां दाशद्यो अस्मा अरं सूक्तैः॥ १.०७०.०५

            एता चिकित्वो भूमा नि पाहि देवानां जन्म मर्ताँश्च विद्वान्॥ १.०७०.०६

            वर्धान्यं पूर्वीः क्षपो विरूपाः स्थातुश्च रथमृतप्रवीतम्॥ १.०७०.०७

            अराधि होता स्वर्निषत्तः कृण्वन्विश्वान्यपांसि सत्या॥ १.०७०.०८

            गोषु प्रशस्तिं वनेषु धिषे भरन्त विश्वे बलिं स्वर्णः॥ १.०७०.०९

            वि त्वा नरः पुरुत्रा सपर्यन्पितुर्न जिव्रेर्वि वेदो भरन्त॥ १.०७०.१०

            साधुर्न गृध्नुरस्तेव शूरो यातेव भीमस्त्वेषः समत्सु॥ १.०७०.११


            उप प्र जिन्वन्नुशतीरुशन्तं पतिं न नित्यं जनयः सनीळाः।

            स्वसारः श्यावीमरुषीमजुष्रञ्चित्रमुच्छन्तीमुषसं न गावः॥ १.०७१.०१

            वीळु चिद्दृळ्हा पितरो न उक्थैरद्रिं रुजन्नङ्गिरसो रवेण।

            चक्रुर्दिवो बृहतो गातुमस्मे अहः स्वर्विविदुः केतुमुस्राः॥ १.०७१.०२

            दधन्नृतं धनयन्नस्य धीतिमादिदर्यो दिधिष्वो विभृत्राः।

            अतृष्यन्तीरपसो यन्त्यच्छा देवाञ्जन्म प्रयसा वर्धयन्तीः॥ १.०७१.०३

            मथीद्यदीं विभृतो मातरिश्वा गृहेगृहे श्येतो जेन्यो भूत्।

            आदीं राज्ञे न सहीयसे सचा सन्ना दूत्यं भृगवाणो विवाय॥ १.०७१.०४

            महे यत्पित्र ईं रसं दिवे करव त्सरत्पृशन्यश्चिकित्वान्।

            सृजदस्ता धृषता दिद्युमस्मै स्वायां देवो दुहितरि त्विषिं धात्॥ १.०७१.०५

            स्व आ यस्तुभ्यं दम आ विभाति नमो वा दाशादुशतो अनु द्यून्।

            वर्धो अग्ने वयो अस्य द्विबर्हा यासद्राया सरथं यं जुनासि॥ १.०७१.०६

            अग्निं विश्वा अभि पृक्षः सचन्ते समुद्रं न स्रवतः सप्त यह्वीः।

            न जामिभिर्वि चिकिते वयो नो विदा देवेषु प्रमतिं चिकित्वान्॥ १.०७१.०७

            आ यदिषे नृपतिं तेज आनट् छुचि रेतो निषिक्तं द्यौरभीके।

            अग्निः शर्धमनवद्यं युवानं स्वाध्यं जनयत्सूदयच्च॥ १.०७१.०८

            मनो न योऽध्वनः सद्य एत्येकः सत्रा सूरो वस्व ईशे।

            राजाना मित्रावरुणा सुपाणी गोषु प्रियममृतं रक्षमाणा॥ १.०७१.०९

            मा नो अग्ने सख्या पित्र्याणि प्र मर्षिष्ठा अभि विदुष्कविः सन्।

            नभो न रूपं जरिमा मिनाति पुरा तस्या अभिशस्तेरधीहि॥ १.०७१.१०


            नि काव्या वेधसः शश्वतस्कर्हस्ते दधानो नर्या पुरूणि।

            अग्निर्भुवद्रयिपती रयीणां सत्रा चक्राणो अमृतानि विश्वा॥ १.०७२.०१

            अस्मे वत्सं परि षन्तं न विन्दन्निच्छन्तो विश्वे अमृता अमूराः।

            श्रमयुवः पदव्यो धियंधास्तस्थुः पदे परमे चार्वग्नेः॥ १.०७२.०२

            तिस्रो यदग्ने शरदस्त्वामिच्छुचिं घृतेन शुचयः सपर्यान्।

            नामानि चिद्दधिरे यज्ञियान्यसूदयन्त तन्वः सुजाताः॥ १.०७२.०३

            आ रोदसी बृहती वेविदानाः प्र रुद्रिया जभ्रिरे यज्ञियासः।

            विदन्मर्तो नेमधिता चिकित्वानग्निं पदे परमे तस्थिवांसम्॥ १.०७२.०४

            संजानाना उप सीदन्नभिज्ञु पत्नीवन्तो नमस्यं नमस्यन्।

            रिरिक्वांसस्तन्वः कृण्वत स्वाः सखा सख्युर्निमिषि रक्षमाणाः॥ १.०७२.०५

            त्रिः सप्त यद्गुह्यानि त्वे इत्पदाविदन्निहिता यज्ञियासः।

            तेभी रक्षन्ते अमृतं सजोषाः पशूञ्च स्थातॄञ्चरथं च पाहि॥ १.०७२.०६

            विद्वाँ अग्ने वयुनानि क्षितीनां व्यानुषक्छुरुधो जीवसे धाः।

            अन्तर्विद्वाँ अध्वनो देवयानानतन्द्रो दूतो अभवो हविर्वाट्॥ १.०७२.०७

            स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वी रायो दुरो व्यृतज्ञा अजानन्।

            विदद्गव्यं सरमा दृळ्हमूर्वं येना नु कं मानुषी भोजते विट्॥ १.०७२.०८

            आ ये विश्वा स्वपत्यानि तस्थुः कृण्वानासो अमृतत्वाय गातुम्।

            मह्ना महद्भिः पृथिवी वि तस्थे माता पुत्रैरदितिर्धायसे वेः॥ १.०७२.०९

            अधि श्रियं नि दधुश्चारुमस्मिन्दिवो यदक्षी अमृता अकृण्वन्।

            अध क्षरन्ति सिन्धवो न सृष्टाः प्र नीचीरग्ने अरुषीरजानन्॥ १.०७२.१०


            रयिर्न यः पितृवित्तो वयोधाः सुप्रणीतिश्चिकितुषो न शासुः।

            स्योनशीरतिथिर्न प्रीणानो होतेव सद्म विधतो वि तारीत्॥ १.०७३.०१

            देवो न यः सविता सत्यमन्मा क्रत्वा निपाति वृजनानि विश्वा।

            पुरुप्रशस्तो अमतिर्न सत्य आत्मेव शेवो दिधिषाय्यो भूत्॥ १.०७३.०२

            देवो न यः पृथिवीं विश्वधाया उपक्षेति हितमित्रो न राजा।

            पुरःसदः शर्मसदो न वीरा अनवद्या पतिजुष्टेव नारी॥ १.०७३.०३

            तं त्वा नरो दम आ नित्यमिद्धमग्ने सचन्त क्षितिषु ध्रुवासु।

            अधि द्युम्नं नि दधुर्भूर्यस्मिन्भवा विश्वायुर्धरुणो रयीणाम्॥ १.०७३.०४

            वि पृक्षो अग्ने मघवानो अश्युर्वि सूरयो ददतो विश्वमायुः।

            सनेम वाजं समिथेष्वर्यो भागं देवेषु श्रवसे दधानाः॥ १.०७३.०५

            ऋतस्य हि धेनवो वावशानाः स्मदूध्नीः पीपयन्त द्युभक्ताः।

            परावतः सुमतिं भिक्षमाणा वि सिन्धवः समया सस्रुरद्रिम्॥ १.०७३.०६

            त्वे अग्ने सुमतिं भिक्षमाणा दिवि श्रवो दधिरे यज्ञियासः।

            नक्ता च चक्रुरुषसा विरूपे कृष्णं च वर्णमरुणं च सं धुः॥ १.०७३.०७

            यान्राये मर्तान्सुषूदो अग्ने ते स्याम मघवानो वयं च।

            छायेव विश्वं भुवनं सिसक्ष्यापप्रिवान्रोदसी अन्तरिक्षम्॥ १.०७३.०८

            अर्वद्भिरग्ने अर्वतो नृभिर्नॄन्वीरैर्वीरान्वनुयामा त्वोताः।

            ईशानासः पितृवित्तस्य रायो वि सूरयः शतहिमा नो अश्युः॥ १.०७३.०९

            एता ते अग्न उचथानि वेधो जुष्टानि सन्तु मनसे हृदे च।

            शकेम रायः सुधुरो यमं तेऽधि श्रवो देवभक्तं दधानाः॥ १.०७३.१०


            उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये।

            आरे अस्मे च शृण्वते॥ १.०७४.०१

            यः स्नीहितीषु पूर्व्यः संजग्मानासु कृष्टिषु।

            अरक्षद्दाशुषे गयम्॥ १.०७४.०२

            उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्रहाजनि।

            धनंजयो रणेरणे॥ १.०७४.०३

            यस्य दूतो असि क्षये वेषि हव्यानि वीतये।

            दस्मत्कृणोष्यध्वरम्॥ १.०७४.०४

            तमित्सुहव्यमङ्गिरः सुदेवं सहसो यहो।

            जना आहुः सुबर्हिषम्॥ १.०७४.०५

            आ च वहासि ताँ इह देवाँ उप प्रशस्तये।

            हव्या सुश्चन्द्र वीतये॥ १.०७४.०६

            न योरुपब्दिरश्व्यः शृण्वे रथस्य कच्चन।

            यदग्ने यासि दूत्यम्॥ १.०७४.०७

            त्वोतो वाज्यह्रयोऽभि पूर्वस्मादपरः।

            प्र दाश्वाँ अग्ने अस्थात्॥ १.०७४.०८

            उत द्युमत्सुवीर्यं बृहदग्ने विवाससि।

            देवेभ्यो देव दाशुषे॥ १.०७४.०९


            जुषस्व सप्रथस्तमं वचो देवप्सरस्तमम्।

            हव्या जुह्वान आसनि॥ १.०७५.०१

            अथा ते अङ्गिरस्तमाग्ने वेधस्तम प्रियम्।

            वोचेम ब्रह्म सानसि॥ १.०७५.०२

            कस्ते जामिर्जनानामग्ने को दाश्वध्वरः।

            को ह कस्मिन्नसि श्रितः॥ १.०७५.०३

            त्वं जामिर्जनानामग्ने मित्रो असि प्रियः।

            सखा सखिभ्य ईड्यः॥ १.०७५.०४

            यजा नो मित्रावरुणा यजा देवाँ ऋतं बृहत्।

            अग्ने यक्षि स्वं दमम्॥ १.०७५.०५


            का त उपेतिर्मनसो वराय भुवदग्ने शंतमा का मनीषा।

            को वा यज्ञैः परि दक्षं त आप केन वा ते मनसा दाशेम॥ १.०७६.०१

            एह्यग्न इह होता नि षीदादब्धः सु पुरएता भवा नः।

            अवतां त्वा रोदसी विश्वमिन्वे यजा महे सौमनसाय देवान्॥ १.०७६.०२

            प्र सु विश्वान्रक्षसो धक्ष्यग्ने भवा यज्ञानामभिशस्तिपावा।

            अथा वह सोमपतिं हरिभ्यामातिथ्यमस्मै चकृमा सुदाव्ने॥ १.०७६.०३

            प्रजावता वचसा वह्निरासा च हुवे नि च सत्सीह देवैः।

            वेषि होत्रमुत पोत्रं यजत्र बोधि प्रयन्तर्जनितर्वसूनाम्॥ १.०७६.०४

            यथा विप्रस्य मनुषो हविर्भिर्देवाँ अयजः कविभिः कविः सन्।

            एवा होतः सत्यतर त्वमद्याग्ने मन्द्रया जुह्वा यजस्व॥ १.०७६.०५


            कथा दाशेमाग्नये कास्मै देवजुष्टोच्यते भामिने गीः।

            यो मर्त्येष्वमृत ऋतावा होता यजिष्ठ इत्कृणोति देवान्॥ १.०७७.०१

            यो अध्वरेषु शंतम ऋतावा होता तमू नमोभिरा कृणुध्वम्।

            अग्निर्यद्वेर्मर्ताय देवान्स चा बोधाति मनसा यजाति॥ १.०७७.०२

            स हि क्रतुः स मर्यः स साधुर्मित्रो न भूदद्भुतस्य रथीः।

            तं मेधेषु प्रथमं देवयन्तीर्विश उप ब्रुवते दस्ममारीः॥ १.०७७.०३

            स नो नृणां नृतमो रिशादा अग्निर्गिरोऽवसा वेतु धीतिम्।

            तना च ये मघवानः शविष्ठा वाजप्रसूता इषयन्त मन्म॥ १.०७७.०४

            एवाग्निर्गोतमेभिरृतावा विप्रेभिरस्तोष्ट जातवेदाः।

            स एषु द्युम्नं पीपयत्स वाजं स पुष्टिं याति जोषमा चिकित्वान्॥ १.०७७.०५


            अभि त्वा गोतमा गिरा जातवेदो विचर्षणे।

            द्युम्नैरभि प्र णोनुमः॥ १.०७८.०१

            तमु त्वा गोतमो गिरा रायस्कामो दुवस्यति।

            द्युम्नैरभि प्र णोनुमः॥ १.०७८.०२

            तमु त्वा वाजसातममङ्गिरस्वद्धवामहे।

            द्युम्नैरभि प्र णोनुमः॥ १.०७८.०३

            तमु त्वा वृत्रहन्तमं यो दस्यूँरवधूनुषे।

            द्युम्नैरभि प्र णोनुमः॥ १.०७८.०४

            अवोचाम रहूगणा अग्नये मधुमद्वचः।

            द्युम्नैरभि प्र णोनुमः॥ १.०७८.०५


            हिरण्यकेशो रजसो विसारेऽहिर्धुनिर्वात इव ध्रजीमान्।

            शुचिभ्राजा उषसो नवेदा यशस्वतीरपस्युवो न सत्याः॥ १.०७९.०१

            आ ते सुपर्णा अमिनन्तँ एवैः कृष्णो नोनाव वृषभो यदीदम्।

            शिवाभिर्न स्मयमानाभिरागात्पतन्ति मिहः स्तनयन्त्यभ्रा॥ १.०७९.०२

            यदीमृतस्य पयसा पियानो नयन्नृतस्य पथिभी रजिष्ठैः।

            अर्यमा मित्रो वरुणः परिज्मा त्वचं पृञ्चन्त्युपरस्य योनौ॥ १.०७९.०३

            अग्ने वाजस्य गोमत ईशानः सहसो यहो।

            अस्मे धेहि जातवेदो महि श्रवः॥ १.०७९.०४

            स इधानो वसुष्कविरग्निरीळेन्यो गिरा।

            रेवदस्मभ्यं पुर्वणीक दीदिहि॥ १.०७९.०५

            क्षपो राजन्नुत त्मनाग्ने वस्तोरुतोषसः।

            स तिग्मजम्भ रक्षसो दह प्रति॥ १.०७९.०६

            अवा नो अग्न ऊतिभिर्गायत्रस्य प्रभर्मणि।

            विश्वासु धीषु वन्द्य॥ १.०७९.०७

            आ नो अग्ने रयिं भर सत्रासाहं वरेण्यम्।

            विश्वासु पृत्सु दुष्टरम्॥ १.०७९.०८

            आ नो अग्ने सुचेतुना रयिं विश्वायुपोषसम्।

            मार्डीकं धेहि जीवसे॥ १.०७९.०९

            प्र पूतास्तिग्मशोचिषे वाचो गोतमाग्नये।

            भरस्व सुम्नयुर्गिरः॥ १.०७९.१०

            यो नो अग्नेऽभिदासत्यन्ति दूरे पदीष्ट सः।

            अस्माकमिद्वृधे भव॥ १.०७९.११

            सहस्राक्षो विचर्षणिरग्नी रक्षांसि सेधति।

            होता गृणीत उक्थ्यः॥ १.०७९.१२


            इत्था हि सोम इन्मदे ब्रह्मा चकार वर्धनम्।

            शविष्ठ वज्रिन्नोजसा पृथिव्या निः शशा अहिमर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.०१

            स त्वामदद्वृषा मदः सोमः श्येनाभृतः सुतः।

            येना वृत्रं निरद्भ्यो जघन्थ वज्रिन्नोजसार्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.०२

            प्रेह्यभीहि धृष्णुहि न ते वज्रो नि यंसते।

            इन्द्र नृम्णं हि ते शवो हनो वृत्रं जया अपोऽर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.०३

            निरिन्द्र भूम्या अधि वृत्रं जघन्थ निर्दिवः।

            सृजा मरुत्वतीरव जीवधन्या इमा अपोऽर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.०४

            इन्द्रो वृत्रस्य दोधतः सानुं वज्रेण हीळितः।

            अभिक्रम्याव जिघ्नतेऽपः सर्माय चोदयन्नर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.०५

            अधि सानौ नि जिघ्नते वज्रेण शतपर्वणा।

            मन्दान इन्द्रो अन्धसः सखिभ्यो गातुमिच्छत्यर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.०६

            इन्द्र तुभ्यमिदद्रिवोऽनुत्तं वज्रिन्वीर्यम्।

            यद्ध त्यं मायिनं मृगं तमु त्वं माययावधीरर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.०७

            वि ते वज्रासो अस्थिरन्नवतिं नाव्या अनु।

            महत्त इन्द्र वीर्यं बाह्वोस्ते बलं हितमर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.०८

            सहस्रं साकमर्चत परि ष्टोभत विंशतिः।

            शतैनमन्वनोनवुरिन्द्राय ब्रह्मोद्यतमर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.०९

            इन्द्रो वृत्रस्य तविषीं निरहन्सहसा सहः।

            महत्तदस्य पौंस्यं वृत्रं जघन्वाँ असृजदर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.१०

            इमे चित्तव मन्यवे वेपेते भियसा मही।

            यदिन्द्र वज्रिन्नोजसा वृत्रं मरुत्वाँ अवधीरर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.११

            न वेपसा न तन्यतेन्द्रं वृत्रो वि बीभयत्।

            अभ्येनं वज्र आयसः सहस्रभृष्टिरायतार्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.१२

            यद्वृत्रं तव चाशनिं वज्रेण समयोधयः।

            अहिमिन्द्र जिघांसतो दिवि ते बद्बधे शवोऽर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.१३

            अभिष्टने ते अद्रिवो यत्स्था जगच्च रेजते।

            त्वष्टा चित्तव मन्यव इन्द्र वेविज्यते भियार्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.१४

            नहि नु यादधीमसीन्द्रं को वीर्या परः।

            तस्मिन्नृम्णमुत क्रतुं देवा ओजांसि सं दधुरर्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.१५

            यामथर्वा मनुष्पिता दध्यङ्धियमत्नत।

            तस्मिन्ब्रह्माणि पूर्वथेन्द्र उक्था समग्मतार्चन्ननु स्वराज्यम्॥ १.०८०.१६


            इन्द्रो मदाय वावृधे शवसे वृत्रहा नृभिः।

            तमिन्महत्स्वाजिषूतेमर्भे हवामहे स वाजेषु प्र नोऽविषत्॥ १.०८१.०१

            असि हि वीर सेन्योऽसि भूरि पराददिः।

            असि दभ्रस्य चिद्वृधो यजमानाय शिक्षसि सुन्वते भूरि ते वसु॥ १.०८१.०२

            यदुदीरत आजयो धृष्णवे धीयते धना।

            युक्ष्वा मदच्युता हरी कं हनः कं वसौ दधोऽस्माँ इन्द्र वसौ दधः॥ १.०८१.०३

            क्रत्वा महाँ अनुष्वधं भीम आ वावृधे शवः।

            श्रिय ऋष्व उपाकयोर्नि शिप्री हरिवान्दधे हस्तयोर्वज्रमायसम्॥ १.०८१.०४

            आ पप्रौ पार्थिवं रजो बद्बधे रोचना दिवि।

            न त्वावाँ इन्द्र कश्चन न जातो न जनिष्यतेऽति विश्वं ववक्षिथ॥ १.०८१.०५

            यो अर्यो मर्तभोजनं पराददाति दाशुषे।

            इन्द्रो अस्मभ्यं शिक्षतु वि भजा भूरि ते वसु भक्षीय तव राधसः॥ १.०८१.०६

            मदेमदे हि नो ददिर्यूथा गवामृजुक्रतुः।

            सं गृभाय पुरू शतोभयाहस्त्या वसु शिशीहि राय आ भर॥ १.०८१.०७

            मादयस्व सुते सचा शवसे शूर राधसे।

            विद्मा हि त्वा पुरूवसुमुप कामान्ससृज्महेऽथा नोऽविता भव॥ १.०८१.०८

            एते त इन्द्र जन्तवो विश्वं पुष्यन्ति वार्यम्।

            अन्तर्हि ख्यो जनानामर्यो वेदो अदाशुषां तेषां नो वेद आ भर॥ १.०८१.०९


            उपो षु शृणुही गिरो मघवन्मातथा इव।

            यदा नः सूनृतावतः कर आदर्थयास इद्योजा न्विन्द्र ते हरी॥ १.०८२.०१

            अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत।

            अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विन्द्र ते हरी॥ १.०८२.०२

            सुसंदृशं त्वा वयं मघवन्वन्दिषीमहि।

            प्र नूनं पूर्णवन्धुरः स्तुतो याहि वशाँ अनु योजा न्विन्द्र ते हरी॥ १.०८२.०३

            स घा तं वृषणं रथमधि तिष्ठाति गोविदम्।

            यः पात्रं हारियोजनं पूर्णमिन्द्र चिकेतति योजा न्विन्द्र ते हरी॥ १.०८२.०४

            युक्तस्ते अस्तु दक्षिण उत सव्यः शतक्रतो।

            तेन जायामुप प्रियां मन्दानो याह्यन्धसो योजा न्विन्द्र ते हरी॥ १.०८२.०५

            युनज्मि ते ब्रह्मणा केशिना हरी उप प्र याहि दधिषे गभस्त्योः।

            उत्त्वा सुतासो रभसा अमन्दिषुः पूषण्वान्वज्रिन्समु पत्न्यामदः॥ १.०८२.०६


            अश्वावति प्रथमो गोषु गच्छति सुप्रावीरिन्द्र मर्त्यस्तवोतिभिः।

            तमित्पृणक्षि वसुना भवीयसा सिन्धुमापो यथाभितो विचेतसः॥ १.०८३.०१

            आपो न देवीरुप यन्ति होत्रियमवः पश्यन्ति विततं यथा रजः।

            प्राचैर्देवासः प्र णयन्ति देवयुं ब्रह्मप्रियं जोषयन्ते वरा इव॥ १.०८३.०२

            अधि द्वयोरदधा उक्थ्यं वचो यतस्रुचा मिथुना या सपर्यतः।

            असंयत्तो व्रते ते क्षेति पुष्यति भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वते॥ १.०८३.०३

            आदङ्गिराः प्रथमं दधिरे वय इद्धाग्नयः शम्या ये सुकृत्यया।

            सर्वं पणेः समविन्दन्त भोजनमश्वावन्तं गोमन्तमा पशुं नरः॥ १.०८३.०४

            यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ततः सूर्यो व्रतपा वेन आजनि।

            आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जातममृतं यजामहे॥ १.०८३.०५

            बर्हिर्वा यत्स्वपत्याय वृज्यतेऽर्को वा श्लोकमाघोषते दिवि।

            ग्रावा यत्र वदति कारुरुक्थ्यस्तस्येदिन्द्रो अभिपित्वेषु रण्यति॥ १.०८३.०६


            असावि सोम इन्द्र ते शविष्ठ धृष्णवा गहि।

            आ त्वा पृणक्त्विन्द्रियं रजः सूर्यो न रश्मिभिः॥ १.०८४.०१

            इन्द्रमिद्धरी वहतोऽप्रतिधृष्टशवसम्।

            ऋषीणां च स्तुतीरुप यज्ञं च मानुषाणाम्॥ १.०८४.०२

            आ तिष्ठ वृत्रहन्रथं युक्ता ते ब्रह्मणा हरी।

            अर्वाचीनं सु ते मनो ग्रावा कृणोतु वग्नुना॥ १.०८४.०३

            इममिन्द्र सुतं पिब ज्येष्ठममर्त्यं मदम्।

            शुक्रस्य त्वाभ्यक्षरन्धारा ऋतस्य सादने॥ १.०८४.०४

            इन्द्राय नूनमर्चतोक्थानि च ब्रवीतन।

            सुता अमत्सुरिन्दवो ज्येष्ठं नमस्यता सहः॥ १.०८४.०५

            नकिष्ट्वद्रथीतरो हरी यदिन्द्र यच्छसे।

            नकिष्ट्वानु मज्मना नकिः स्वश्व आनशे॥ १.०८४.०६

            य एक इद्विदयते वसु मर्ताय दाशुषे।

            ईशानो अप्रतिष्कुत इन्द्रो अङ्ग॥ १.०८४.०७

            कदा मर्तमराधसं पदा क्षुम्पमिव स्फुरत्।

            कदा नः शुश्रवद्गिर इन्द्रो अङ्ग॥ १.०८४.०८

            यश्चिद्धि त्वा बहुभ्य आ सुतावाँ आविवासति।

            उग्रं तत्पत्यते शव इन्द्रो अङ्ग॥ १.०८४.०९

            स्वादोरित्था विषूवतो मध्वः पिबन्ति गौर्यः।

            या इन्द्रेण सयावरीर्वृष्णा मदन्ति शोभसे वस्वीरनु स्वराज्यम्॥ १.०८४.१०

            ता अस्य पृशनायुवः सोमं श्रीणन्ति पृश्नयः।

            प्रिया इन्द्रस्य धेनवो वज्रं हिन्वन्ति सायकं वस्वीरनु स्वराज्यम्॥ १.०८४.११

            ता अस्य नमसा सहः सपर्यन्ति प्रचेतसः।

            व्रतान्यस्य सश्चिरे पुरूणि पूर्वचित्तये वस्वीरनु स्वराज्यम्॥ १.०८४.१२

            इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः।

            जघान नवतीर्नव॥ १.०८४.१३

            इच्छन्नश्वस्य यच्छिरः पर्वतेष्वपश्रितम्।

            तद्विदच्छर्यणावति॥ १.०८४.१४

            अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम्।

            इत्था चन्द्रमसो गृहे॥ १.०८४.१५

            को अद्य युङ्क्ते धुरि गा ऋतस्य शिमीवतो भामिनो दुर्हृणायून्।

            आसन्निषून्हृत्स्वसो मयोभून्य एषां भृत्यामृणधत्स जीवात्॥ १.०८४.१६

            क ईषते तुज्यते को बिभाय को मंसते सन्तमिन्द्रं को अन्ति।

            कस्तोकाय क इभायोत रायेऽधि ब्रवत्तन्वे को जनाय॥ १.०८४.१७

            को अग्निमीट्टे हविषा घृतेन स्रुचा यजाता ऋतुभिर्ध्रुवेभिः।

            कस्मै देवा आ वहानाशु होम को मंसते वीतिहोत्रः सुदेवः॥ १.०८४.१८

            त्वमङ्ग प्र शंसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम्।

            न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः॥ १.०८४.१९

            मा ते राधांसि मा त ऊतयो वसोऽस्मान्कदा चना दभन्।

            विश्वा च न उपमिमीहि मानुष वसूनि चर्षणिभ्य आ॥ १.०८४.२०


            प्र ये शुम्भन्ते जनयो न सप्तयो यामन्रुद्रस्य सूनवः सुदंससः।

            रोदसी हि मरुतश्चक्रिरे वृधे मदन्ति वीरा विदथेषु घृष्वयः॥ १.०८५.०१

            त उक्षितासो महिमानमाशत दिवि रुद्रासो अधि चक्रिरे सदः।

            अर्चन्तो अर्कं जनयन्त इन्द्रियमधि श्रियो दधिरे पृश्निमातरः॥ १.०८५.०२

            गोमातरो यच्छुभयन्ते अञ्जिभिस्तनूषु शुभ्रा दधिरे विरुक्मतः।

            बाधन्ते विश्वमभिमातिनमप वर्त्मान्येषामनु रीयते घृतम्॥ १.०८५.०३

            वि ये भ्राजन्ते सुमखास ऋष्टिभिः प्रच्यावयन्तो अच्युता चिदोजसा।

            मनोजुवो यन्मरुतो रथेष्वा वृषव्रातासः पृषतीरयुग्ध्वम्॥ १.०८५.०४

            प्र यद्रथेषु पृषतीरयुग्ध्वं वाजे अद्रिं मरुतो रंहयन्तः।

            उतारुषस्य वि ष्यन्ति धाराश्चर्मेवोदभिर्व्युन्दन्ति भूम॥ १.०८५.०५

            आ वो वहन्तु सप्तयो रघुष्यदो रघुपत्वानः प्र जिगात बाहुभिः।

            सीदता बर्हिरुरु वः सदस्कृतं मादयध्वं मरुतो मध्वो अन्धसः॥ १.०८५.०६

            तेऽवर्धन्त स्वतवसो महित्वना नाकं तस्थुरुरु चक्रिरे सदः।

            विष्णुर्यद्धावद्वृषणं मदच्युतं वयो न सीदन्नधि बर्हिषि प्रिये॥ १.०८५.०७

            शूरा इवेद्युयुधयो न जग्मयः श्रवस्यवो न पृतनासु येतिरे।

            भयन्ते विश्वा भुवना मरुद्भ्यो राजान इव त्वेषसंदृशो नरः॥ १.०८५.०८

            त्वष्टा यद्वज्रं सुकृतं हिरण्ययं सहस्रभृष्टिं स्वपा अवर्तयत्।

            धत्त इन्द्रो नर्यपांसि कर्तवेऽहन्वृत्रं निरपामौब्जदर्णवम्॥ १.०८५.०९

            ऊर्ध्वं नुनुद्रेऽवतं त ओजसा दादृहाणं चिद्बिभिदुर्वि पर्वतम्।

            धमन्तो वाणं मरुतः सुदानवो मदे सोमस्य रण्यानि चक्रिरे॥ १.०८५.१०

            जिह्मं नुनुद्रेऽवतं तया दिशासिञ्चन्नुत्सं गोतमाय तृष्णजे।

            आ गच्छन्तीमवसा चित्रभानवः कामं विप्रस्य तर्पयन्त धामभिः॥ १.०८५.११

            या वः शर्म शशमानाय सन्ति त्रिधातूनि दाशुषे यच्छताधि।

            अस्मभ्यं तानि मरुतो वि यन्त रयिं नो धत्त वृषणः सुवीरम्॥ १.०८५.१२


            मरुतो यस्य हि क्षये पाथा दिवो विमहसः।

            स सुगोपातमो जनः॥ १.०८६.०१

            यज्ञैर्वा यज्ञवाहसो विप्रस्य वा मतीनाम्।

            मरुतः शृणुता हवम्॥ १.०८६.०२

            उत वा यस्य वाजिनोऽनु विप्रमतक्षत।

            स गन्ता गोमति व्रजे॥ १.०८६.०३

            अस्य वीरस्य बर्हिषि सुतः सोमो दिविष्टिषु।

            उक्थं मदश्च शस्यते॥ १.०८६.०४

            अस्य श्रोषन्त्वा भुवो विश्वा यश्चर्षणीरभि।

            सूरं चित्सस्रुषीरिषः॥ १.०८६.०५

            पूर्वीभिर्हि ददाशिम शरद्भिर्मरुतो वयम्।

            अवोभिश्चर्षणीनाम्॥ १.०८६.०६

            सुभगः स प्रयज्यवो मरुतो अस्तु मर्त्यः।

            यस्य प्रयांसि पर्षथ॥ १.०८६.०७

            शशमानस्य वा नरः स्वेदस्य सत्यशवसः।

            विदा कामस्य वेनतः॥ १.०८६.०८

            यूयं तत्सत्यशवस आविष्कर्त महित्वना।

            विध्यता विद्युता रक्षः॥ १.०८६.०९

            गूहता गुह्यं तमो वि यात विश्वमत्रिणम्।

            ज्योतिष्कर्ता यदुश्मसि॥ १.०८६.१०


            प्रत्वक्षसः प्रतवसो विरप्शिनोऽनानता अविथुरा ऋजीषिणः।

            जुष्टतमासो नृतमासो अञ्जिभिर्व्यानज्रे के चिदुस्रा इव स्तृभिः॥ १.०८७.०१

            उपह्वरेषु यदचिध्वं ययिं वय इव मरुतः केन चित्पथा।

            श्चोतन्ति कोशा उप वो रथेष्वा घृतमुक्षता मधुवर्णमर्चते॥ १.०८७.०२

            प्रैषामज्मेषु विथुरेव रेजते भूमिर्यामेषु यद्ध युञ्जते शुभे।

            ते क्रीळयो धुनयो भ्राजदृष्टयः स्वयं महित्वं पनयन्त धूतयः॥ १.०८७.०३

            स हि स्वसृत्पृषदश्वो युवा गणोऽया ईशानस्तविषीभिरावृतः।

            असि सत्य ऋणयावानेद्योऽस्या धियः प्राविताथा वृषा गणः॥ १.०८७.०४

            पितुः प्रत्नस्य जन्मना वदामसि सोमस्य जिह्वा प्र जिगाति चक्षसा।

            यदीमिन्द्रं शम्यृक्वाण आशतादिन्नामानि यज्ञियानि दधिरे॥ १.०८७.०५

            श्रियसे कं भानुभिः सं मिमिक्षिरे ते रश्मिभिस्त ऋक्वभिः सुखादयः।

            ते वाशीमन्त इष्मिणो अभीरवो विद्रे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नः॥ १.०८७.०६


            आ विद्युन्मद्भिर्मरुतः स्वर्कै रथेभिर्यात ऋष्टिमद्भिरश्वपर्णैः।

            आ वर्षिष्ठया न इषा वयो न पप्तता सुमायाः॥ १.०८८.०१

            तेऽरुणेभिर्वरमा पिशङ्गैः शुभे कं यान्ति रथतूर्भिरश्वैः।

            रुक्मो न चित्रः स्वधितीवान्पव्या रथस्य जङ्घनन्त भूम॥ १.०८८.०२

            श्रिये कं वो अधि तनूषु वाशीर्मेधा वना न कृणवन्त ऊर्ध्वा।

            युष्मभ्यं कं मरुतः सुजातास्तुविद्युम्नासो धनयन्ते अद्रिम्॥ १.०८८.०३

            अहानि गृध्राः पर्या व आगुरिमां धियं वार्कार्यां च देवीम्।

            ब्रह्म कृण्वन्तो गोतमासो अर्कैरूर्ध्वं नुनुद्र उत्सधिं पिबध्यै॥ १.०८८.०४

            एतत्त्यन्न योजनमचेति सस्वर्ह यन्मरुतो गोतमो वः।

            पश्यन्हिरण्यचक्रानयोदंष्ट्रान्विधावतो वराहून्॥ १.०८८.०५

            एषा स्या वो मरुतोऽनुभर्त्री प्रति ष्टोभति वाघतो न वाणी।

            अस्तोभयद्वृथासामनु स्वधां गभस्त्योः॥ १.०८८.०६


            आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः।

            देवा नो यथा सदमिद्वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे॥ १.०८९.०१

            देवानां भद्रा सुमतिरृजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम्।

            देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे॥ १.०८९.०२

            तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्।

            अर्यमणं वरुणं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥ १.०८९.०३

            तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः।

            तद्ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम्॥ १.०८९.०४

            तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम्।

            पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥ १.०८९.०५

            स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

            स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ १.०८९.०६

            पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः।

            अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसा गमन्निह॥ १.०८९.०७

            भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

            स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥ १.०८९.०८

            शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।

            पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥ १.०८९.०९

            अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः।

            विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥ १.०८९.१०


            ऋजुनीती नो वरुणो मित्रो नयतु विद्वान्।

            अर्यमा देवैः सजोषाः॥ १.०९०.०१

            ते हि वस्वो वसवानास्ते अप्रमूरा महोभिः।

            व्रता रक्षन्ते विश्वाहा॥ १.०९०.०२

            ते अस्मभ्यं शर्म यंसन्नमृता मर्त्येभ्यः।

            बाधमाना अप द्विषः॥ १.०९०.०३

            वि नः पथः सुविताय चियन्त्विन्द्रो मरुतः।

            पूषा भगो वन्द्यासः॥ १.०९०.०४

            उत नो धियो गोअग्राः पूषन्विष्णवेवयावः।

            कर्ता नः स्वस्तिमतः॥ १.०९०.०५

            मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः।

            माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥ १.०९०.०६

            मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः।

            मधु द्यौरस्तु नः पिता॥ १.०९०.०७

            मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्यः।

            माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥ १.०९०.०८

            शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा।

            शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः॥ १.०९०.०९


            त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठमनु नेषि पन्थाम्।

            तव प्रणीती पितरो न इन्दो देवेषु रत्नमभजन्त धीराः॥ १.०९१.०१

            त्वं सोम क्रतुभिः सुक्रतुर्भूस्त्वं दक्षैः सुदक्षो विश्ववेदाः।

            त्वं वृषा वृषत्वेभिर्महित्वा द्युम्नेभिर्द्युम्न्यभवो नृचक्षाः॥ १.०९१.०२

            राज्ञो नु ते वरुणस्य व्रतानि बृहद्गभीरं तव सोम धाम।

            शुचिष्ट्वमसि प्रियो न मित्रो दक्षाय्यो अर्यमेवासि सोम॥ १.०९१.०३

            या ते धामानि दिवि या पृथिव्यां या पर्वतेष्वोषधीष्वप्सु।

            तेभिर्नो विश्वैः सुमना अहेळन्राजन्सोम प्रति हव्या गृभाय॥ १.०९१.०४

            त्वं सोमासि सत्पतिस्त्वं राजोत वृत्रहा।

            त्वं भद्रो असि क्रतुः॥ १.०९१.०५

            त्वं च सोम नो वशो जीवातुं न मरामहे।

            प्रियस्तोत्रो वनस्पतिः॥ १.०९१.०६

            त्वं सोम महे भगं त्वं यून ऋतायते।

            दक्षं दधासि जीवसे॥ १.०९१.०७

            त्वं नः सोम विश्वतो रक्षा राजन्नघायतः।

            न रिष्येत्त्वावतः सखा॥ १.०९१.०८

            सोम यास्ते मयोभुव ऊतयः सन्ति दाशुषे।

            ताभिर्नोऽविता भव॥ १.०९१.०९

            इमं यज्ञमिदं वचो जुजुषाण उपागहि।

            सोम त्वं नो वृधे भव॥ १.०९१.१०

            सोम गीर्भिष्ट्वा वयं वर्धयामो वचोविदः।

            सुमृळीको न आ विश॥ १.०९१.११

            गयस्फानो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः।

            सुमित्रः सोम नो भव॥ १.०९१.१२

            सोम रारन्धि नो हृदि गावो न यवसेष्वा।

            मर्य इव स्व ओक्ये॥ १.०९१.१३

            यः सोम सख्ये तव रारणद्देव मर्त्यः।

            तं दक्षः सचते कविः॥ १.०९१.१४

            उरुष्या णो अभिशस्तेः सोम नि पाह्यंहसः।

            सखा सुशेव एधि नः॥ १.०९१.१५

            आ प्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम्।

            भवा वाजस्य संगथे॥ १.०९१.१६

            आ प्यायस्व मदिन्तम सोम विश्वेभिरंशुभिः।

            भवा नः सुश्रवस्तमः सखा वृधे॥ १.०९१.१७

            सं ते पयांसि समु यन्तु वाजाः सं वृष्ण्यान्यभिमातिषाहः।

            आप्यायमानो अमृताय सोम दिवि श्रवांस्युत्तमानि धिष्व॥ १.०९१.१८

            या ते धामानि हविषा यजन्ति ता ते विश्वा परिभूरस्तु यज्ञम्।

            गयस्फानः प्रतरणः सुवीरोऽवीरहा प्र चरा सोम दुर्यान्॥ १.०९१.१९

            सोमो धेनुं सोमो अर्वन्तमाशुं सोमो वीरं कर्मण्यं ददाति।

            सादन्यं विदथ्यं सभेयं पितृश्रवणं यो ददाशदस्मै॥ १.०९१.२०

            अषाळ्हं युत्सु पृतनासु पप्रिं स्वर्षामप्सां वृजनस्य गोपाम्।

            भरेषुजां सुक्षितिं सुश्रवसं जयन्तं त्वामनु मदेम सोम॥ १.०९१.२१

            त्वमिमा ओषधीः सोम विश्वास्त्वमपो अजनयस्त्वं गाः।

            त्वमा ततन्थोर्वन्तरिक्षं त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ॥ १.०९१.२२

            देवेन नो मनसा देव सोम रायो भागं सहसावन्नभि युध्य।

            मा त्वा तनदीशिषे वीर्यस्योभयेभ्यः प्र चिकित्सा गविष्टौ॥ १.०९१.२३


            एता उ त्या उषसः केतुमक्रत पूर्वे अर्धे रजसो भानुमञ्जते।

            निष्कृण्वाना आयुधानीव धृष्णवः प्रति गावोऽरुषीर्यन्ति मातरः॥ १.०९२.०१

            उदपप्तन्नरुणा भानवो वृथा स्वायुजो अरुषीर्गा अयुक्षत।

            अक्रन्नुषासो वयुनानि पूर्वथा रुशन्तं भानुमरुषीरशिश्रयुः॥ १.०९२.०२

            अर्चन्ति नारीरपसो न विष्टिभिः समानेन योजनेना परावतः।

            इषं वहन्तीः सुकृते सुदानवे विश्वेदह यजमानाय सुन्वते॥ १.०९२.०३

            अधि पेशांसि वपते नृतूरिवापोर्णुते वक्ष उस्रेव बर्जहम्।

            ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृण्वती गावो न व्रजं व्युषा आवर्तमः॥ १.०९२.०४

            प्रत्यर्ची रुशदस्या अदर्शि वि तिष्ठते बाधते कृष्णमभ्वम्।

            स्वरुं न पेशो विदथेष्वञ्जञ्चित्रं दिवो दुहिता भानुमश्रेत्॥ १.०९२.०५

            अतारिष्म तमसस्पारमस्योषा उच्छन्ती वयुना कृणोति।

            श्रिये छन्दो न स्मयते विभाती सुप्रतीका सौमनसायाजीगः॥ १.०९२.०६

            भास्वती नेत्री सूनृतानां दिवः स्तवे दुहिता गोतमेभिः।

            प्रजावतो नृवतो अश्वबुध्यानुषो गोअग्राँ उप मासि वाजान्॥ १.०९२.०७

            उषस्तमश्यां यशसं सुवीरं दासप्रवर्गं रयिमश्वबुध्यम्।

            सुदंससा श्रवसा या विभासि वाजप्रसूता सुभगे बृहन्तम्॥ १.०९२.०८

            विश्वानि देवी भुवनाभिचक्ष्या प्रतीची चक्षुरुर्विया वि भाति।

            विश्वं जीवं चरसे बोधयन्ती विश्वस्य वाचमविदन्मनायोः॥ १.०९२.०९

            पुनःपुनर्जायमाना पुराणी समानं वर्णमभि शुम्भमाना।

            श्वघ्नीव कृत्नुर्विज आमिनाना मर्तस्य देवी जरयन्त्यायुः॥ १.०९२.१०

            व्यूर्ण्वती दिवो अन्ताँ अबोध्यप स्वसारं सनुतर्युयोति।

            प्रमिनती मनुष्या युगानि योषा जारस्य चक्षसा वि भाति॥ १.०९२.११

            पशून्न चित्रा सुभगा प्रथाना सिन्धुर्न क्षोद उर्विया व्यश्वैत्।

            अमिनती दैव्यानि व्रतानि सूर्यस्य चेति रश्मिभिर्दृशाना॥ १.०९२.१२

            उषस्तच्चित्रमा भरास्मभ्यं वाजिनीवति।

            येन तोकं च तनयं च धामहे॥ १.०९२.१३

            उषो अद्येह गोमत्यश्वावति विभावरि।

            रेवदस्मे व्युच्छ सूनृतावति॥ १.०९२.१४

            युक्ष्वा हि वाजिनीवत्यश्वाँ अद्यारुणाँ उषः।

            अथा नो विश्वा सौभगान्या वह॥ १.०९२.१५

            अश्विना वर्तिरस्मदा गोमद्दस्रा हिरण्यवत्।

            अर्वाग्रथं समनसा नि यच्छतम्॥ १.०९२.१६

            यावित्था श्लोकमा दिवो ज्योतिर्जनाय चक्रथुः।

            आ न ऊर्जं वहतमश्विना युवम्॥ १.०९२.१७

            एह देवा मयोभुवा दस्रा हिरण्यवर्तनी।

            उषर्बुधो वहन्तु सोमपीतये॥ १.०९२.१८


            अग्नीषोमाविमं सु मे शृणुतं वृषणा हवम्।

            प्रति सूक्तानि हर्यतं भवतं दाशुषे मयः॥ १.०९३.०१

            अग्नीषोमा यो अद्य वामिदं वचः सपर्यति।

            तस्मै धत्तं सुवीर्यं गवां पोषं स्वश्व्यम्॥ १.०९३.०२

            अग्नीषोमा य आहुतिं यो वां दाशाद्धविष्कृतिम्।

            स प्रजया सुवीर्यं विश्वमायुर्व्यश्नवत्॥ १.०९३.०३

            अग्नीषोमा चेति तद्वीर्यं वां यदमुष्णीतमवसं पणिं गाः।

            अवातिरतं बृसयस्य शेषोऽविन्दतं ज्योतिरेकं बहुभ्यः॥ १.०९३.०४

            युवमेतानि दिवि रोचनान्यग्निश्च सोम सक्रतू अधत्तम्।

            युवं सिन्धूँरभिशस्तेरवद्यादग्नीषोमावमुञ्चतं गृभीतान्॥ १.०९३.०५

            आन्यं दिवो मातरिश्वा जभारामथ्नादन्यं परि श्येनो अद्रेः।

            अग्नीषोमा ब्रह्मणा वावृधानोरुं यज्ञाय चक्रथुरु लोकम्॥ १.०९३.०६

            अग्नीषोमा हविषः प्रस्थितस्य वीतं हर्यतं वृषणा जुषेथाम्।

            सुशर्माणा स्ववसा हि भूतमथा धत्तं यजमानाय शं योः॥ १.०९३.०७

            यो अग्नीषोमा हविषा सपर्याद्देवद्रीचा मनसा यो घृतेन।

            तस्य व्रतं रक्षतं पातमंहसो विशे जनाय महि शर्म यच्छतम्॥ १.०९३.०८

            अग्नीषोमा सवेदसा सहूती वनतं गिरः।

            सं देवत्रा बभूवथुः॥ १.०९३.०९

            अग्नीषोमावनेन वां यो वां घृतेन दाशति।

            तस्मै दीदयतं बृहत्॥ १.०९३.१०

            अग्नीषोमाविमानि नो युवं हव्या जुजोषतम्।

            आ यातमुप नः सचा॥ १.०९३.११

            अग्नीषोमा पिपृतमर्वतो न आ प्यायन्तामुस्रिया हव्यसूदः।

            अस्मे बलानि मघवत्सु धत्तं कृणुतं नो अध्वरं श्रुष्टिमन्तम्॥ १.०९३.१२


            इमं स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया।

            भद्रा हि नः प्रमतिरस्य संसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.०१

            यस्मै त्वमायजसे स साधत्यनर्वा क्षेति दधते सुवीर्यम्।

            स तूताव नैनमश्नोत्यंहतिरग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.०२

            शकेम त्वा समिधं साधया धियस्त्वे देवा हविरदन्त्याहुतम्।

            त्वमादित्याँ आ वह तान्ह्युश्मस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.०३

            भरामेध्मं कृणवामा हवींषि ते चितयन्तः पर्वणापर्वणा वयम्।

            जीवातवे प्रतरं साधया धियोऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.०४

            विशां गोपा अस्य चरन्ति जन्तवो द्विपच्च यदुत चतुष्पदक्तुभिः।

            चित्रः प्रकेत उषसो महाँ अस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.०५

            त्वमध्वर्युरुत होतासि पूर्व्यः प्रशास्ता पोता जनुषा पुरोहितः।

            विश्वा विद्वाँ आर्त्विज्या धीर पुष्यस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.०६

            यो विश्वतः सुप्रतीकः सदृङ्ङसि दूरे चित्सन्तळिदिवाति रोचसे।

            रात्र्याश्चिदन्धो अति देव पश्यस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.०७

            पूर्वो देवा भवतु सुन्वतो रथोऽस्माकं शंसो अभ्यस्तु दूढ्यः।

            तदा जानीतोत पुष्यता वचोऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.०८

            वधैर्दुःशंसाँ अप दूढ्यो जहि दूरे वा ये अन्ति वा के चिदत्रिणः।

            अथा यज्ञाय गृणते सुगं कृध्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.०९

            यदयुक्था अरुषा रोहिता रथे वातजूता वृषभस्येव ते रवः।

            आदिन्वसि वनिनो धूमकेतुनाग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.१०

            अध स्वनादुत बिभ्युः पतत्रिणो द्रप्सा यत्ते यवसादो व्यस्थिरन्।

            सुगं तत्ते तावकेभ्यो रथेभ्योऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.११

            अयं मित्रस्य वरुणस्य धायसेऽवयातां मरुतां हेळो अद्भुतः।

            मृळा सु नो भूत्वेषां मनः पुनरग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.१२

            देवो देवानामसि मित्रो अद्भुतो वसुर्वसूनामसि चारुरध्वरे।

            शर्मन्स्याम तव सप्रथस्तमेऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.१३

            तत्ते भद्रं यत्समिद्धः स्वे दमे सोमाहुतो जरसे मृळयत्तमः।

            दधासि रत्नं द्रविणं च दाशुषेऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव॥ १.०९४.१४

            यस्मै त्वं सुद्रविणो ददाशोऽनागास्त्वमदिते सर्वताता।

            यं भद्रेण शवसा चोदयासि प्रजावता राधसा ते स्याम॥ १.०९४.१५

            स त्वमग्ने सौभगत्वस्य विद्वानस्माकमायुः प्र तिरेह देव।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.०९४.१६


            द्वे विरूपे चरतः स्वर्थे अन्यान्या वत्समुप धापयेते।

            हरिरन्यस्यां भवति स्वधावाञ्छुक्रो अन्यस्यां ददृशे सुवर्चाः॥ १.०९५.०१

            दशेमं त्वष्टुर्जनयन्त गर्भमतन्द्रासो युवतयो विभृत्रम्।

            तिग्मानीकं स्वयशसं जनेषु विरोचमानं परि षीं नयन्ति॥ १.०९५.०२

            त्रीणि जाना परि भूषन्त्यस्य समुद्र एकं दिव्येकमप्सु।

            पूर्वामनु प्र दिशं पार्थिवानामृतून्प्रशासद्वि दधावनुष्ठु॥ १.०९५.०३

            क इमं वो निण्यमा चिकेत वत्सो मातॄर्जनयत स्वधाभिः।

            बह्वीनां गर्भो अपसामुपस्थान्महान्कविर्निश्चरति स्वधावान्॥ १.०९५.०४

            आविष्ट्यो वर्धते चारुरासु जिह्मानामूर्ध्वः स्वयशा उपस्थे।

            उभे त्वष्टुर्बिभ्यतुर्जायमानात्प्रतीची सिंहं प्रति जोषयेते॥ १.०९५.०५

            उभे भद्रे जोषयेते न मेने गावो न वाश्रा उप तस्थुरेवैः।

            स दक्षाणां दक्षपतिर्बभूवाञ्जन्ति यं दक्षिणतो हविर्भिः॥ १.०९५.०६

            उद्यंयमीति सवितेव बाहू उभे सिचौ यतते भीम ऋञ्जन्।

            उच्छुक्रमत्कमजते सिमस्मान्नवा मातृभ्यो वसना जहाति॥ १.०९५.०७

            त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्सम्पृञ्चानः सदने गोभिरद्भिः।

            कविर्बुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवताता समितिर्बभूव॥ १.०९५.०८

            उरु ते ज्रयः पर्येति बुध्नं विरोचमानं महिषस्य धाम।

            विश्वेभिरग्ने स्वयशोभिरिद्धोऽदब्धेभिः पायुभिः पाह्यस्मान्॥ १.०९५.०९

            धन्वन्स्रोतः कृणुते गातुमूर्मिं शुक्रैरूर्मिभिरभि नक्षति क्षाम्।

            विश्वा सनानि जठरेषु धत्तेऽन्तर्नवासु चरति प्रसूषु॥ १.०९५.१०

            एवा नो अग्ने समिधा वृधानो रेवत्पावक श्रवसे वि भाहि।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.०९५.११


            स प्रत्नथा सहसा जायमानः सद्यः काव्यानि बळधत्त विश्वा।

            आपश्च मित्रं धिषणा च साधन्देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम्॥ १.०९६.०१

            स पूर्वया निविदा कव्यतायोरिमाः प्रजा अजनयन्मनूनाम्।

            विवस्वता चक्षसा द्यामपश्च देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम्॥ १.०९६.०२

            तमीळत प्रथमं यज्ञसाधं विश आरीराहुतमृञ्जसानम्।

            ऊर्जः पुत्रं भरतं सृप्रदानुं देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम्॥ १.०९६.०३

            स मातरिश्वा पुरुवारपुष्टिर्विदद्गातुं तनयाय स्वर्वित्।

            विशां गोपा जनिता रोदस्योर्देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम्॥ १.०९६.०४

            नक्तोषासा वर्णमामेम्याने धापयेते शिशुमेकं समीची।

            द्यावाक्षामा रुक्मो अन्तर्वि भाति देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम्॥ १.०९६.०५

            रायो बुध्नः संगमनो वसूनां यज्ञस्य केतुर्मन्मसाधनो वेः।

            अमृतत्वं रक्षमाणास एनं देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम्॥ १.०९६.०६

            नू च पुरा च सदनं रयीणां जातस्य च जायमानस्य च क्षाम्।

            सतश्च गोपां भवतश्च भूरेर्देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम्॥ १.०९६.०७

            द्रविणोदा द्रविणसस्तुरस्य द्रविणोदाः सनरस्य प्र यंसत्।

            द्रविणोदा वीरवतीमिषं नो द्रविणोदा रासते दीर्घमायुः॥ १.०९६.०८

            एवा नो अग्ने समिधा वृधानो रेवत्पावक श्रवसे वि भाहि।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.०९६.०९


            अप नः शोशुचदघमग्ने शुशुग्ध्या रयिम्।

            अप नः शोशुचदघम्॥ १.०९७.०१

            सुक्षेत्रिया सुगातुया वसूया च यजामहे।

            अप नः शोशुचदघम्॥ १.०९७.०२

            प्र यद्भन्दिष्ठ एषां प्रास्माकासश्च सूरयः।

            अप नः शोशुचदघम्॥ १.०९७.०३

            प्र यत्ते अग्ने सूरयो जायेमहि प्र ते वयम्।

            अप नः शोशुचदघम्॥ १.०९७.०४

            प्र यदग्नेः सहस्वतो विश्वतो यन्ति भानवः।

            अप नः शोशुचदघम्॥ १.०९७.०५

            त्वं हि विश्वतोमुख विश्वतः परिभूरसि।

            अप नः शोशुचदघम्॥ १.०९७.०६

            द्विषो नो विश्वतोमुखाति नावेव पारय।

            अप नः शोशुचदघम्॥ १.०९७.०७

            स नः सिन्धुमिव नावयाति पर्षा स्वस्तये।

            अप नः शोशुचदघम्॥ १.०९७.०८


            वैश्वानरस्य सुमतौ स्याम राजा हि कं भुवनानामभिश्रीः।

            इतो जातो विश्वमिदं वि चष्टे वैश्वानरो यतते सूर्येण॥ १.०९८.०१

            पृष्टो दिवि पृष्टो अग्निः पृथिव्यां पृष्टो विश्वा ओषधीरा विवेश।

            वैश्वानरः सहसा पृष्टो अग्निः स नो दिवा स रिषः पातु नक्तम्॥ १.०९८.०२

            वैश्वानर तव तत्सत्यमस्त्वस्मान्रायो मघवानः सचन्ताम्।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.०९८.०३


            जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेदः।

            स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः॥ १.०९९.०१


            स यो वृषा वृष्ण्येभिः समोका महो दिवः पृथिव्याश्च सम्राट्।

            सतीनसत्वा हव्यो भरेषु मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.०१

            यस्यानाप्तः सूर्यस्येव यामो भरेभरे वृत्रहा शुष्मो अस्ति।

            वृषन्तमः सखिभिः स्वेभिरेवैर्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.०२

            दिवो न यस्य रेतसो दुघानाः पन्थासो यन्ति शवसापरीताः।

            तरद्द्वेषाः सासहिः पौंस्येभिर्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.०३

            सो अङ्गिरोभिरङ्गिरस्तमो भूद्वृषा वृषभिः सखिभिः सखा सन्।

            ऋग्मिभिरृग्मी गातुभिर्ज्येष्ठो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.०४

            स सूनुभिर्न रुद्रेभिरृभ्वा नृषाह्ये सासह्वाँ अमित्रान्।

            सनीळेभिः श्रवस्यानि तूर्वन्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.०५

            स मन्युमीः समदनस्य कर्तास्माकेभिर्नृभिः सूर्यं सनत्।

            अस्मिन्नहन्सत्पतिः पुरुहूतो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.०६

            तमूतयो रणयञ्छूरसातौ तं क्षेमस्य क्षितयः कृण्वत त्राम्।

            स विश्वस्य करुणस्येश एको मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.०७

            तमप्सन्त शवस उत्सवेषु नरो नरमवसे तं धनाय।

            सो अन्धे चित्तमसि ज्योतिर्विदन्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.०८

            स सव्येन यमति व्राधतश्चित्स दक्षिणे संगृभीता कृतानि।

            स कीरिणा चित्सनिता धनानि मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.०९

            स ग्रामेभिः सनिता स रथेभिर्विदे विश्वाभिः कृष्टिभिर्न्वद्य।

            स पौंस्येभिरभिभूरशस्तीर्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.१०

            स जामिभिर्यत्समजाति मीळ्हेऽजामिभिर्वा पुरुहूत एवैः।

            अपां तोकस्य तनयस्य जेषे मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.११

            स वज्रभृद्दस्युहा भीम उग्रः सहस्रचेताः शतनीथ ऋभ्वा।

            चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.१२

            तस्य वज्रः क्रन्दति स्मत्स्वर्षा दिवो न त्वेषो रवथः शिमीवान्।

            तं सचन्ते सनयस्तं धनानि मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.१३

            यस्याजस्रं शवसा मानमुक्थं परिभुजद्रोदसी विश्वतः सीम्।

            स पारिषत्क्रतुभिर्मन्दसानो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.१४

            न यस्य देवा देवता न मर्ता आपश्चन शवसो अन्तमापुः।

            स प्ररिक्वा त्वक्षसा क्ष्मो दिवश्च मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ १.१००.१५

            रोहिच्छ्यावा सुमदंशुर्ललामीर्द्युक्षा राय ऋज्राश्वस्य।

            वृषण्वन्तं बिभ्रती धूर्षु रथं मन्द्रा चिकेत नाहुषीषु विक्षु॥ १.१००.१६

            एतत्त्यत्त इन्द्र वृष्ण उक्थं वार्षागिरा अभि गृणन्ति राधः।

            ऋज्राश्वः प्रष्टिभिरम्बरीषः सहदेवो भयमानः सुराधाः॥ १.१००.१७

            दस्यूञ्छिम्यूँश्च पुरुहूत एवैर्हत्वा पृथिव्यां शर्वा नि बर्हीत्।

            सनत्क्षेत्रं सखिभिः श्वित्न्येभिः सनत्सूर्यं सनदपः सुवज्रः॥ १.१००.१८

            विश्वाहेन्द्रो अधिवक्ता नो अस्त्वपरिह्वृताः सनुयाम वाजम्।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.१००.१९


            प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।

            अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे॥ १.१०१.०१

            यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्।

            इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे॥ १.१०१.०२

            यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः।

            यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे॥ १.१०१.०३

            यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः।

            वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे॥ १.१०१.०४

            यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत्।

            इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे॥ १.१०१.०५

            यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिः।

            इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे॥ १.१०१.०६

            रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः।

            इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे॥ १.१०१.०७

            यद्वा मरुत्वः परमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे।

            अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः॥ १.१०१.०८

            त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः।

            अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व॥ १.१०१.०९

            मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र वि ष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने।

            आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व॥ १.१०१.१०

            मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम्।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.१०१.११


            इमां ते धियं प्र भरे महो महीमस्य स्तोत्रे धिषणा यत्त आनजे।

            तमुत्सवे च प्रसवे च सासहिमिन्द्रं देवासः शवसामदन्ननु॥ १.१०२.०१

            अस्य श्रवो नद्यः सप्त बिभ्रति द्यावाक्षामा पृथिवी दर्शतं वपुः।

            अस्मे सूर्याचन्द्रमसाभिचक्षे श्रद्धे कमिन्द्र चरतो वितर्तुरम्॥ १.१०२.०२

            तं स्मा रथं मघवन्प्राव सातये जैत्रं यं ते अनुमदाम संगमे।

            आजा न इन्द्र मनसा पुरुष्टुत त्वायद्भ्यो मघवञ्छर्म यच्छ नः॥ १.१०२.०३

            वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमंशमुदवा भरेभरे।

            अस्मभ्यमिन्द्र वरिवः सुगं कृधि प्र शत्रूणां मघवन्वृष्ण्या रुज॥ १.१०२.०४

            नाना हि त्वा हवमाना जना इमे धनानां धर्तरवसा विपन्यवः।

            अस्माकं स्मा रथमा तिष्ठ सातये जैत्रं हीन्द्र निभृतं मनस्तव॥ १.१०२.०५

            गोजिता बाहू अमितक्रतुः सिमः कर्मन्कर्मञ्छतमूतिः खजंकरः।

            अकल्प इन्द्रः प्रतिमानमोजसाथा जना वि ह्वयन्ते सिषासवः॥ १.१०२.०६

            उत्ते शतान्मघवन्नुच्च भूयस उत्सहस्राद्रिरिचे कृष्टिषु श्रवः।

            अमात्रं त्वा धिषणा तित्विषे मह्यधा वृत्राणि जिघ्नसे पुरंदर॥ १.१०२.०७

            त्रिविष्टिधातु प्रतिमानमोजसस्तिस्रो भूमीर्नृपते त्रीणि रोचना।

            अतीदं विश्वं भुवनं ववक्षिथाशत्रुरिन्द्र जनुषा सनादसि॥ १.१०२.०८

            त्वां देवेषु प्रथमं हवामहे त्वं बभूथ पृतनासु सासहिः।

            सेमं नः कारुमुपमन्युमुद्भिदमिन्द्रः कृणोतु प्रसवे रथं पुरः॥ १.१०२.०९

            त्वं जिगेथ न धना रुरोधिथार्भेष्वाजा मघवन्महत्सु च।

            त्वामुग्रमवसे सं शिशीमस्यथा न इन्द्र हवनेषु चोदय॥ १.१०२.१०

            विश्वाहेन्द्रो अधिवक्ता नो अस्त्वपरिह्वृताः सनुयाम वाजम्।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.१०२.११


            तत्त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवयः पुरेदम्।

            क्षमेदमन्यद्दिव्यन्यदस्य समी पृच्यते समनेव केतुः॥ १.१०३.०१

            स धारयत्पृथिवीं पप्रथच्च वज्रेण हत्वा निरपः ससर्ज।

            अहन्नहिमभिनद्रौहिणं व्यहन्व्यंसं मघवा शचीभिः॥ १.१०३.०२

            स जातूभर्मा श्रद्दधान ओजः पुरो विभिन्दन्नचरद्वि दासीः।

            विद्वान्वज्रिन्दस्यवे हेतिमस्यार्यं सहो वर्धया द्युम्नमिन्द्र॥ १.१०३.०३

            तदूचुषे मानुषेमा युगानि कीर्तेन्यं मघवा नाम बिभ्रत्।

            उपप्रयन्दस्युहत्याय वज्री यद्ध सूनुः श्रवसे नाम दधे॥ १.१०३.०४

            तदस्येदं पश्यता भूरि पुष्टं श्रदिन्द्रस्य धत्तन वीर्याय।

            स गा अविन्दत्सो अविन्ददश्वान्स ओषधीः सो अपः स वनानि॥ १.१०३.०५

            भूरिकर्मणे वृषभाय वृष्णे सत्यशुष्माय सुनवाम सोमम्।

            य आदृत्या परिपन्थीव शूरोऽयज्वनो विभजन्नेति वेदः॥ १.१०३.०६

            तदिन्द्र प्रेव वीर्यं चकर्थ यत्ससन्तं वज्रेणाबोधयोऽहिम्।

            अनु त्वा पत्नीर्हृषितं वयश्च विश्वे देवासो अमदन्ननु त्वा॥ १.१०३.०७

            शुष्णं पिप्रुं कुयवं वृत्रमिन्द्र यदावधीर्वि पुरः शम्बरस्य।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.१०३.०८


            योनिष्ट इन्द्र निषदे अकारि तमा नि षीद स्वानो नार्वा।

            विमुच्या वयोऽवसायाश्वान्दोषा वस्तोर्वहीयसः प्रपित्वे॥ १.१०४.०१

            ओ त्ये नर इन्द्रमूतये गुर्नू चित्तान्सद्यो अध्वनो जगम्यात्।

            देवासो मन्युं दासस्य श्चम्नन्ते न आ वक्षन्सुविताय वर्णम्॥ १.१०४.०२

            अव त्मना भरते केतवेदा अव त्मना भरते फेनमुदन्।

            क्षीरेण स्नातः कुयवस्य योषे हते ते स्यातां प्रवणे शिफायाः॥ १.१०४.०३

            युयोप नाभिरुपरस्यायोः प्र पूर्वाभिस्तिरते राष्टि शूरः।

            अञ्जसी कुलिशी वीरपत्नी पयो हिन्वाना उदभिर्भरन्ते॥ १.१०४.०४

            प्रति यत्स्या नीथादर्शि दस्योरोको नाच्छा सदनं जानती गात्।

            अध स्मा नो मघवञ्चर्कृतादिन्मा नो मघेव निष्षपी परा दाः॥ १.१०४.०५

            स त्वं न इन्द्र सूर्ये सो अप्स्वनागास्त्व आ भज जीवशंसे।

            मान्तरां भुजमा रीरिषो नः श्रद्धितं ते महत इन्द्रियाय॥ १.१०४.०६

            अधा मन्ये श्रत्ते अस्मा अधायि वृषा चोदस्व महते धनाय।

            मा नो अकृते पुरुहूत योनाविन्द्र क्षुध्यद्भ्यो वय आसुतिं दाः॥ १.१०४.०७

            मा नो वधीरिन्द्र मा परा दा मा नः प्रिया भोजनानि प्र मोषीः।

            आण्डा मा नो मघवञ्छक्र निर्भेन्मा नः पात्रा भेत्सहजानुषाणि॥ १.१०४.०८

            अर्वाङेहि सोमकामं त्वाहुरयं सुतस्तस्य पिबा मदाय।

            उरुव्यचा जठर आ वृषस्व पितेव नः शृणुहि हूयमानः॥ १.१०४.०९


            चन्द्रमा अप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि।

            न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.०१

            अर्थमिद्वा उ अर्थिन आ जाया युवते पतिम्।

            तुञ्जाते वृष्ण्यं पयः परिदाय रसं दुहे वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.०२

            मो षु देवा अदः स्वरव पादि दिवस्परि।

            मा सोम्यस्य शम्भुवः शूने भूम कदा चन वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.०३

            यज्ञं पृच्छाम्यवमं स तद्दूतो वि वोचति।

            क्व ऋतं पूर्व्यं गतं कस्तद्बिभर्ति नूतनो वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.०४

            अमी ये देवाः स्थन त्रिष्वा रोचने दिवः।

            कद्व ऋतं कदनृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.०५

            कद्व ऋतस्य धर्णसि कद्वरुणस्य चक्षणम्।

            कदर्यम्णो महस्पथाति क्रामेम दूढ्यो वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.०६

            अहं सो अस्मि यः पुरा सुते वदामि कानि चित्।

            तं मा व्यन्त्याध्यो वृको न तृष्णजं मृगं वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.०७

            सं मा तपन्त्यभितः सपत्नीरिव पर्शवः।

            मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्यः स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.०८

            अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभिरातता।

            त्रितस्तद्वेदाप्त्यः स जामित्वाय रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.०९

            अमी ये पञ्चोक्षणो मध्ये तस्थुर्महो दिवः।

            देवत्रा नु प्रवाच्यं सध्रीचीना नि वावृतुर्वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.१०

            सुपर्णा एत आसते मध्य आरोधने दिवः।

            ते सेधन्ति पथो वृकं तरन्तं यह्वतीरपो वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.११

            नव्यं तदुक्थ्यं हितं देवासः सुप्रवाचनम्।

            ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यो वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.१२

            अग्ने तव त्यदुक्थ्यं देवेष्वस्त्याप्यम्।

            स नः सत्तो मनुष्वदा देवान्यक्षि विदुष्टरो वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.१३

            सत्तो होता मनुष्वदा देवाँ अच्छा विदुष्टरः।

            अग्निर्हव्या सुषूदति देवो देवेषु मेधिरो वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.१४

            ब्रह्मा कृणोति वरुणो गातुविदं तमीमहे।

            व्यूर्णोति हृदा मतिं नव्यो जायतामृतं वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.१५

            असौ यः पन्था आदित्यो दिवि प्रवाच्यं कृतः।

            न स देवा अतिक्रमे तं मर्तासो न पश्यथ वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.१६

            त्रितः कूपेऽवहितो देवान्हवत ऊतये।

            तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्नंहूरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.१७

            अरुणो मा सकृद्वृकः पथा यन्तं ददर्श हि।

            उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी॥ १.१०५.१८

            एनाङ्गूषेण वयमिन्द्रवन्तोऽभि ष्याम वृजने सर्ववीराः।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.१०५.१९


            इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमूतये मारुतं शर्धो अदितिं हवामहे।

            रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन॥ १.१०६.०१

            त आदित्या आ गता सर्वतातये भूत देवा वृत्रतूर्येषु शम्भुवः।

            रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन॥ १.१०६.०२

            अवन्तु नः पितरः सुप्रवाचना उत देवी देवपुत्रे ऋतावृधा।

            रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन॥ १.१०६.०३

            नराशंसं वाजिनं वाजयन्निह क्षयद्वीरं पूषणं सुम्नैरीमहे।

            रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन॥ १.१०६.०४

            बृहस्पते सदमिन्नः सुगं कृधि शं योर्यत्ते मनुर्हितं तदीमहे।

            रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन॥ १.१०६.०५

            इन्द्रं कुत्सो वृत्रहणं शचीपतिं काटे निबाळ्ह ऋषिरह्वदूतये।

            रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन॥ १.१०६.०६

            देवैर्नो देव्यदितिर्नि पातु देवस्त्राता त्रायतामप्रयुच्छन्।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.१०६.०७


            यज्ञो देवानां प्रत्येति सुम्नमादित्यासो भवता मृळयन्तः।

            आ वोऽर्वाची सुमतिर्ववृत्यादंहोश्चिद्या वरिवोवित्तरासत्॥ १.१०७.०१

            उप नो देवा अवसा गमन्त्वङ्गिरसां सामभिः स्तूयमानाः।

            इन्द्र इन्द्रियैर्मरुतो मरुद्भिरादित्यैर्नो अदितिः शर्म यंसत्॥ १.१०७.०२

            तन्न इन्द्रस्तद्वरुणस्तदग्निस्तदर्यमा तत्सविता चनो धात्।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.१०७.०३


            य इन्द्राग्नी चित्रतमो रथो वामभि विश्वानि भुवनानि चष्टे।

            तेना यातं सरथं तस्थिवांसाथा सोमस्य पिबतं सुतस्य॥ १.१०८.०१

            यावदिदं भुवनं विश्वमस्त्युरुव्यचा वरिमता गभीरम्।

            तावाँ अयं पातवे सोमो अस्त्वरमिन्द्राग्नी मनसे युवभ्याम्॥ १.१०८.०२

            चक्राथे हि सध्र्यङ्नाम भद्रं सध्रीचीना वृत्रहणा उत स्थः।

            ताविन्द्राग्नी सध्र्यञ्चा निषद्या वृष्णः सोमस्य वृषणा वृषेथाम्॥ १.१०८.०३

            समिद्धेष्वग्निष्वानजाना यतस्रुचा बर्हिरु तिस्तिराणा।

            तीव्रैः सोमैः परिषिक्तेभिरर्वागेन्द्राग्नी सौमनसाय यातम्॥ १.१०८.०४

            यानीन्द्राग्नी चक्रथुर्वीर्याणि यानि रूपाण्युत वृष्ण्यानि।

            या वां प्रत्नानि सख्या शिवानि तेभिः सोमस्य पिबतं सुतस्य॥ १.१०८.०५

            यदब्रवं प्रथमं वां वृणानोऽयं सोमो असुरैर्नो विहव्यः।

            तां सत्यां श्रद्धामभ्या हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य॥ १.१०८.०६

            यदिन्द्राग्नी मदथः स्वे दुरोणे यद्ब्रह्मणि राजनि वा यजत्रा।

            अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य॥ १.१०८.०७

            यदिन्द्राग्नी यदुषु तुर्वशेषु यद्द्रुह्युष्वनुषु पूरुषु स्थः।

            अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य॥ १.१०८.०८

            यदिन्द्राग्नी अवमस्यां पृथिव्यां मध्यमस्यां परमस्यामुत स्थः।

            अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य॥ १.१०८.०९

            यदिन्द्राग्नी परमस्यां पृथिव्यां मध्यमस्यामवमस्यामुत स्थः।

            अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य॥ १.१०८.१०

            यदिन्द्राग्नी दिवि ष्ठो यत्पृथिव्यां यत्पर्वतेष्वोषधीष्वप्सु।

            अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य॥ १.१०८.११

            यदिन्द्राग्नी उदिता सूर्यस्य मध्ये दिवः स्वधया मादयेथे।

            अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य॥ १.१०८.१२

            एवेन्द्राग्नी पपिवांसा सुतस्य विश्वास्मभ्यं सं जयतं धनानि।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.१०८.१३


            वि ह्यख्यं मनसा वस्य इच्छन्निन्द्राग्नी ज्ञास उत वा सजातान्।

            नान्या युवत्प्रमतिरस्ति मह्यं स वां धियं वाजयन्तीमतक्षम्॥ १.१०९.०१

            अश्रवं हि भूरिदावत्तरा वां विजामातुरुत वा घा स्यालात्।

            अथा सोमस्य प्रयती युवभ्यामिन्द्राग्नी स्तोमं जनयामि नव्यम्॥ १.१०९.०२

            मा च्छेद्म रश्मीँरिति नाधमानाः पितॄणां शक्तीरनुयच्छमानाः।

            इन्द्राग्निभ्यां कं वृषणो मदन्ति ता ह्यद्री धिषणाया उपस्थे॥ १.१०९.०३

            युवाभ्यां देवी धिषणा मदायेन्द्राग्नी सोममुशती सुनोति।

            तावश्विना भद्रहस्ता सुपाणी आ धावतं मधुना पृङ्क्तमप्सु॥ १.१०९.०४

            युवामिन्द्राग्नी वसुनो विभागे तवस्तमा शुश्रव वृत्रहत्ये।

            तावासद्या बर्हिषि यज्ञे अस्मिन्प्र चर्षणी मादयेथां सुतस्य॥ १.१०९.०५

            प्र चर्षणिभ्यः पृतनाहवेषु प्र पृथिव्या रिरिचाथे दिवश्च।

            प्र सिन्धुभ्यः प्र गिरिभ्यो महित्वा प्रेन्द्राग्नी विश्वा भुवनात्यन्या॥ १.१०९.०६

            आ भरतं शिक्षतं वज्रबाहू अस्माँ इन्द्राग्नी अवतं शचीभिः।

            इमे नु ते रश्मयः सूर्यस्य येभिः सपित्वं पितरो न आसन्॥ १.१०९.०७

            पुरंदरा शिक्षतं वज्रहस्तास्माँ इन्द्राग्नी अवतं भरेषु।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.१०९.०८


            ततं मे अपस्तदु तायते पुनः स्वादिष्ठा धीतिरुचथाय शस्यते।

            अयं समुद्र इह विश्वदेव्यः स्वाहाकृतस्य समु तृप्णुत ऋभवः॥ १.११०.०१

            आभोगयं प्र यदिच्छन्त ऐतनापाकाः प्राञ्चो मम के चिदापयः।

            सौधन्वनासश्चरितस्य भूमनागच्छत सवितुर्दाशुषो गृहम्॥ १.११०.०२

            तत्सविता वोऽमृतत्वमासुवदगोह्यं यच्छ्रवयन्त ऐतन।

            त्यं चिच्चमसमसुरस्य भक्षणमेकं सन्तमकृणुता चतुर्वयम्॥ १.११०.०३

            विष्ट्वी शमी तरणित्वेन वाघतो मर्तासः सन्तो अमृतत्वमानशुः।

            सौधन्वना ऋभवः सूरचक्षसः संवत्सरे समपृच्यन्त धीतिभिः॥ १.११०.०४

            क्षेत्रमिव वि ममुस्तेजनेनँ एकं पात्रमृभवो जेहमानम्।

            उपस्तुता उपमं नाधमाना अमर्त्येषु श्रव इच्छमानाः॥ १.११०.०५

            आ मनीषामन्तरिक्षस्य नृभ्यः स्रुचेव घृतं जुहवाम विद्मना।

            तरणित्वा ये पितुरस्य सश्चिर ऋभवो वाजमरुहन्दिवो रजः॥ १.११०.०६

            ऋभुर्न इन्द्रः शवसा नवीयानृभुर्वाजेभिर्वसुभिर्वसुर्ददिः।

            युष्माकं देवा अवसाहनि प्रियेऽभि तिष्ठेम पृत्सुतीरसुन्वताम्॥ १.११०.०७

            निश्चर्मण ऋभवो गामपिंशत सं वत्सेनासृजता मातरं पुनः।

            सौधन्वनासः स्वपस्यया नरो जिव्री युवाना पितराकृणोतन॥ १.११०.०८

            वाजेभिर्नो वाजसातावविड्ढ्यृभुमाँ इन्द्र चित्रमा दर्षि राधः।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.११०.०९


            तक्षन्रथं सुवृतं विद्मनापसस्तक्षन्हरी इन्द्रवाहा वृषण्वसू।

            तक्षन्पितृभ्यामृभवो युवद्वयस्तक्षन्वत्साय मातरं सचाभुवम्॥ १.१११.०१

            आ नो यज्ञाय तक्षत ऋभुमद्वयः क्रत्वे दक्षाय सुप्रजावतीमिषम्।

            यथा क्षयाम सर्ववीरया विशा तन्नः शर्धाय धासथा स्विन्द्रियम्॥ १.१११.०२

            आ तक्षत सातिमस्मभ्यमृभवः सातिं रथाय सातिमर्वते नरः।

            सातिं नो जैत्रीं सं महेत विश्वहा जामिमजामिं पृतनासु सक्षणिम्॥ १.१११.०३

            ऋभुक्षणमिन्द्रमा हुव ऊतय ऋभून्वाजान्मरुतः सोमपीतये।

            उभा मित्रावरुणा नूनमश्विना ते नो हिन्वन्तु सातये धिये जिषे॥ १.१११.०४

            ऋभुर्भराय सं शिशातु सातिं समर्यजिद्वाजो अस्माँ अविष्टु।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.१११.०५


            ईळे द्यावापृथिवी पूर्वचित्तयेऽग्निं घर्मं सुरुचं यामन्निष्टये।

            याभिर्भरे कारमंशाय जिन्वथस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.०१

            युवोर्दानाय सुभरा असश्चतो रथमा तस्थुर्वचसं न मन्तवे।

            याभिर्धियोऽवथः कर्मन्निष्टये ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.०२

            युवं तासां दिव्यस्य प्रशासने विशां क्षयथो अमृतस्य मज्मना।

            याभिर्धेनुमस्वं पिन्वथो नरा ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.०३

            याभिः परिज्मा तनयस्य मज्मना द्विमाता तूर्षु तरणिर्विभूषति।

            याभिस्त्रिमन्तुरभवद्विचक्षणस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.०४

            याभी रेभं निवृतं सितमद्भ्य उद्वन्दनमैरयतं स्वर्दृशे।

            याभिः कण्वं प्र सिषासन्तमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.०५

            याभिरन्तकं जसमानमारणे भुज्युं याभिरव्यथिभिर्जिजिन्वथुः।

            याभिः कर्कन्धुं वय्यं च जिन्वथस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.०६

            याभिः शुचन्तिं धनसां सुषंसदं तप्तं घर्ममोम्यावन्तमत्रये।

            याभिः पृश्निगुं पुरुकुत्समावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.०७

            याभिः शचीभिर्वृषणा परावृजं प्रान्धं श्रोणं चक्षस एतवे कृथः।

            याभिर्वर्तिकां ग्रसिताममुञ्चतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.०८

            याभिः सिन्धुं मधुमन्तमसश्चतं वसिष्ठं याभिरजरावजिन्वतम्।

            याभिः कुत्सं श्रुतर्यं नर्यमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.०९

            याभिर्विश्पलां धनसामथर्व्यं सहस्रमीळ्ह आजावजिन्वतम्।

            याभिर्वशमश्व्यं प्रेणिमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.१०

            याभिः सुदानू औशिजाय वणिजे दीर्घश्रवसे मधु कोशो अक्षरत्।

            कक्षीवन्तं स्तोतारं याभिरावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.११

            याभी रसां क्षोदसोद्नः पिपिन्वथुरनश्वं याभी रथमावतं जिषे।

            याभिस्त्रिशोक उस्रिया उदाजत ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.१२

            याभिः सूर्यं परियाथः परावति मन्धातारं क्षैत्रपत्येष्वावतम्।

            याभिर्विप्रं प्र भरद्वाजमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.१३

            याभिर्महामतिथिग्वं कशोजुवं दिवोदासं शम्बरहत्य आवतम्।

            याभिः पूर्भिद्ये त्रसदस्युमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.१४

            याभिर्वम्रं विपिपानमुपस्तुतं कलिं याभिर्वित्तजानिं दुवस्यथः।

            याभिर्व्यश्वमुत पृथिमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.१५

            याभिर्नरा शयवे याभिरत्रये याभिः पुरा मनवे गातुमीषथुः।

            याभिः शारीराजतं स्यूमरश्मये ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.१६

            याभिः पठर्वा जठरस्य मज्मनाग्निर्नादीदेच्चित इद्धो अज्मन्ना।

            याभिः शर्यातमवथो महाधने ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.१७

            याभिरङ्गिरो मनसा निरण्यथोऽग्रं गच्छथो विवरे गोअर्णसः।

            याभिर्मनुं शूरमिषा समावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.१८

            याभिः पत्नीर्विमदाय न्यूहथुरा घ वा याभिररुणीरशिक्षतम्।

            याभिः सुदास ऊहथुः सुदेव्यं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.१९

            याभिः शंताती भवथो ददाशुषे भुज्युं याभिरवथो याभिरध्रिगुम्।

            ओम्यावतीं सुभरामृतस्तुभं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.२०

            याभिः कृशानुमसने दुवस्यथो जवे याभिर्यूनो अर्वन्तमावतम्।

            मधु प्रियं भरथो यत्सरड्भ्यस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.२१

            याभिर्नरं गोषुयुधं नृषाह्ये क्षेत्रस्य साता तनयस्य जिन्वथः।

            याभी रथाँ अवथो याभिरर्वतस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.२२

            याभिः कुत्समार्जुनेयं शतक्रतू प्र तुर्वीतिं प्र च दभीतिमावतम्।

            याभिर्ध्वसन्तिं पुरुषन्तिमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ १.११२.२३

            अप्नस्वतीमश्विना वाचमस्मे कृतं नो दस्रा वृषणा मनीषाम्।

            अद्यूत्येऽवसे नि ह्वये वां वृधे च नो भवतं वाजसातौ॥ १.११२.२४

            द्युभिरक्तुभिः परि पातमस्मानरिष्टेभिरश्विना सौभगेभिः।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.११२.२५


            इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरागाच्चित्रः प्रकेतो अजनिष्ट विभ्वा।

            यथा प्रसूता सवितुः सवायँ एवा रात्र्युषसे योनिमारैक्॥ १.११३.०१

            रुशद्वत्सा रुशती श्वेत्यागादारैगु कृष्णा सदनान्यस्याः।

            समानबन्धू अमृते अनूची द्यावा वर्णं चरत आमिनाने॥ १.११३.०२

            समानो अध्वा स्वस्रोरनन्तस्तमन्यान्या चरतो देवशिष्टे।

            न मेथेते न तस्थतुः सुमेके नक्तोषासा समनसा विरूपे॥ १.११३.०३

            भास्वती नेत्री सूनृतानामचेति चित्रा वि दुरो न आवः।

            प्रार्प्या जगद्व्यु नो रायो अख्यदुषा अजीगर्भुवनानि विश्वा॥ १.११३.०४

            जिह्मश्ये चरितवे मघोन्याभोगय इष्टये राय उ त्वम्।

            दभ्रं पश्यद्भ्य उर्विया विचक्ष उषा अजीगर्भुवनानि विश्वा॥ १.११३.०५

            क्षत्राय त्वं श्रवसे त्वं महीया इष्टये त्वमर्थमिव त्वमित्यै।

            विसदृशा जीविताभिप्रचक्ष उषा अजीगर्भुवनानि विश्वा॥ १.११३.०६

            एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि व्युच्छन्ती युवतिः शुक्रवासाः।

            विश्वस्येशाना पार्थिवस्य वस्व उषो अद्येह सुभगे व्युच्छ॥ १.११३.०७

            परायतीनामन्वेति पाथ आयतीनां प्रथमा शश्वतीनाम्।

            व्युच्छन्ती जीवमुदीरयन्त्युषा मृतं कं चन बोधयन्ती॥ १.११३.०८

            उषो यदग्निं समिधे चकर्थ वि यदावश्चक्षसा सूर्यस्य।

            यन्मानुषान्यक्ष्यमाणाँ अजीगस्तद्देवेषु चकृषे भद्रमप्नः॥ १.११३.०९

            कियात्या यत्समया भवाति या व्यूषुर्याश्च नूनं व्युच्छान्।

            अनु पूर्वाः कृपते वावशाना प्रदीध्याना जोषमन्याभिरेति॥ १.११३.१०

            ईयुष्टे ये पूर्वतरामपश्यन्व्युच्छन्तीमुषसं मर्त्यासः।

            अस्माभिरू नु प्रतिचक्ष्याभूदो ते यन्ति ये अपरीषु पश्यान्॥ १.११३.११

            यावयद्द्वेषा ऋतपा ऋतेजाः सुम्नावरी सूनृता ईरयन्ती।

            सुमङ्गलीर्बिभ्रती देववीतिमिहाद्योषः श्रेष्ठतमा व्युच्छ॥ १.११३.१२

            शश्वत्पुरोषा व्युवास देव्यथो अद्येदं व्यावो मघोनी।

            अथो व्युच्छादुत्तराँ अनु द्यूनजरामृता चरति स्वधाभिः॥ १.११३.१३

            व्यञ्जिभिर्दिव आतास्वद्यौदप कृष्णां निर्णिजं देव्यावः।

            प्रबोधयन्त्यरुणेभिरश्वैरोषा याति सुयुजा रथेन॥ १.११३.१४

            आवहन्ती पोष्या वार्याणि चित्रं केतुं कृणुते चेकिताना।

            ईयुषीणामुपमा शश्वतीनां विभातीनां प्रथमोषा व्यश्वैत्॥ १.११३.१५

            उदीर्ध्वं जीवो असुर्न आगादप प्रागात्तम आ ज्योतिरेति।

            आरैक्पन्थां यातवे सूर्यायागन्म यत्र प्रतिरन्त आयुः॥ १.११३.१६

            स्यूमना वाच उदियर्ति वह्निः स्तवानो रेभ उषसो विभातीः।

            अद्या तदुच्छ गृणते मघोन्यस्मे आयुर्नि दिदीहि प्रजावत्॥ १.११३.१७

            या गोमतीरुषसः सर्ववीरा व्युच्छन्ति दाशुषे मर्त्याय।

            वायोरिव सूनृतानामुदर्के ता अश्वदा अश्नवत्सोमसुत्वा॥ १.११३.१८

            माता देवानामदितेरनीकं यज्ञस्य केतुर्बृहती वि भाहि।

            प्रशस्तिकृद्ब्रह्मणे नो व्युच्छा नो जने जनय विश्ववारे॥ १.११३.१९

            यच्चित्रमप्न उषसो वहन्तीजानाय शशमानाय भद्रम्।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.११३.२०


            इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्र भरामहे मतीः।

            यथा शमसद्द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम्॥ १.११४.०१

            मृळा नो रुद्रोत नो मयस्कृधि क्षयद्वीराय नमसा विधेम ते।

            यच्छं च योश्च मनुरायेजे पिता तदश्याम तव रुद्र प्रणीतिषु॥ १.११४.०२

            अश्याम ते सुमतिं देवयज्यया क्षयद्वीरस्य तव रुद्र मीढ्वः।

            सुम्नायन्निद्विशो अस्माकमा चरारिष्टवीरा जुहवाम ते हविः॥ १.११४.०३

            त्वेषं वयं रुद्रं यज्ञसाधं वङ्कुं कविमवसे नि ह्वयामहे।

            आरे अस्मद्दैव्यं हेळो अस्यतु सुमतिमिद्वयमस्या वृणीमहे॥ १.११४.०४

            दिवो वराहमरुषं कपर्दिनं त्वेषं रूपं नमसा नि ह्वयामहे।

            हस्ते बिभ्रद्भेषजा वार्याणि शर्म वर्म च्छर्दिरस्मभ्यं यंसत्॥ १.११४.०५

            इदं पित्रे मरुतामुच्यते वचः स्वादोः स्वादीयो रुद्राय वर्धनम्।

            रास्वा च नो अमृत मर्तभोजनं त्मने तोकाय तनयाय मृळ॥ १.११४.०६

            मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्।

            मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः॥ १.११४.०७

            मा नस्तोके तनये मा न आयौ मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः।

            वीरान्मा नो रुद्र भामितो वधीर्हविष्मन्तः सदमित्त्वा हवामहे॥ १.११४.०८

            उप ते स्तोमान्पशुपा इवाकरं रास्वा पितर्मरुतां सुम्नमस्मे।

            भद्रा हि ते सुमतिर्मृळयत्तमाथा वयमव इत्ते वृणीमहे॥ १.११४.०९

            आरे ते गोघ्नमुत पूरुषघ्नं क्षयद्वीर सुम्नमस्मे ते अस्तु।

            मृळा च नो अधि च ब्रूहि देवाधा च नः शर्म यच्छ द्विबर्हाः॥ १.११४.१०

            अवोचाम नमो अस्मा अवस्यवः शृणोतु नो हवं रुद्रो मरुत्वान्।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.११४.११


            चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।

            आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥ १.११५.०१

            सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्यो न योषामभ्येति पश्चात्।

            यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम्॥ १.११५.०२

            भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः।

            नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः॥ १.११५.०३

            तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार।

            यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै॥ १.११५.०४

            तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे।

            अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति॥ १.११५.०५

            अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्।

            तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ १.११५.०६


            नासत्याभ्यां बर्हिरिव प्र वृञ्जे स्तोमाँ इयर्म्यभ्रियेव वातः।

            यावर्भगाय विमदाय जायां सेनाजुवा न्यूहतू रथेन॥ १.११६.०१

            वीळुपत्मभिराशुहेमभिर्वा देवानां वा जूतिभिः शाशदाना।

            तद्रासभो नासत्या सहस्रमाजा यमस्य प्रधने जिगाय॥ १.११६.०२

            तुग्रो ह भुज्युमश्विनोदमेघे रयिं न कश्चिन्ममृवाँ अवाहाः।

            तमूहथुर्नौभिरात्मन्वतीभिरन्तरिक्षप्रुद्भिरपोदकाभिः॥ १.११६.०३

            तिस्रः क्षपस्त्रिरहातिव्रजद्भिर्नासत्या भुज्युमूहथुः पतंगैः।

            समुद्रस्य धन्वन्नार्द्रस्य पारे त्रिभी रथैः शतपद्भिः षळश्वैः॥ १.११६.०४

            अनारम्भणे तदवीरयेथामनास्थाने अग्रभणे समुद्रे।

            यदश्विना ऊहथुर्भुज्युमस्तं शतारित्रां नावमातस्थिवांसम्॥ १.११६.०५

            यमश्विना ददथुः श्वेतमश्वमघाश्वाय शश्वदित्स्वस्ति।

            तद्वां दात्रं महि कीर्तेन्यं भूत्पैद्वो वाजी सदमिद्धव्यो अर्यः॥ १.११६.०६

            युवं नरा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम्।

            कारोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भाँ असिञ्चतं सुरायाः॥ १.११६.०७

            हिमेनाग्निं घ्रंसमवारयेथां पितुमतीमूर्जमस्मा अधत्तम्।

            ऋबीसे अत्रिमश्विनावनीतमुन्निन्यथुः सर्वगणं स्वस्ति॥ १.११६.०८

            परावतं नासत्यानुदेथामुच्चाबुध्नं चक्रथुर्जिह्मबारम्।

            क्षरन्नापो न पायनाय राये सहस्राय तृष्यते गोतमस्य॥ १.११६.०९

            जुजुरुषो नासत्योत वव्रिं प्रामुञ्चतं द्रापिमिव च्यवानात्।

            प्रातिरतं जहितस्यायुर्दस्रादित्पतिमकृणुतं कनीनाम्॥ १.११६.१०

            तद्वां नरा शंस्यं राध्यं चाभिष्टिमन्नासत्या वरूथम्।

            यद्विद्वांसा निधिमिवापगूळ्हमुद्दर्शतादूपथुर्वन्दनाय॥ १.११६.११

            तद्वां नरा सनये दंस उग्रमाविष्कृणोमि तन्यतुर्न वृष्टिम्।

            दध्यङ्ह यन्मध्वाथर्वणो वामश्वस्य शीर्ष्णा प्र यदीमुवाच॥ १.११६.१२

            अजोहवीन्नासत्या करा वां महे यामन्पुरुभुजा पुरंधिः।

            श्रुतं तच्छासुरिव वध्रिमत्या हिरण्यहस्तमश्विनावदत्तम्॥ १.११६.१३

            आस्नो वृकस्य वर्तिकामभीके युवं नरा नासत्यामुमुक्तम्।

            उतो कविं पुरुभुजा युवं ह कृपमाणमकृणुतं विचक्षे॥ १.११६.१४

            चरित्रं हि वेरिवाच्छेदि पर्णमाजा खेलस्य परितक्म्यायाम्।

            सद्यो जङ्घामायसीं विश्पलायै धने हिते सर्तवे प्रत्यधत्तम्॥ १.११६.१५

            शतं मेषान्वृक्ये चक्षदानमृज्राश्वं तं पितान्धं चकार।

            तस्मा अक्षी नासत्या विचक्ष आधत्तं दस्रा भिषजावनर्वन्॥ १.११६.१६

            आ वां रथं दुहिता सूर्यस्य कार्ष्मेवातिष्ठदर्वता जयन्ती।

            विश्वे देवा अन्वमन्यन्त हृद्भिः समु श्रिया नासत्या सचेथे॥ १.११६.१७

            यदयातं दिवोदासाय वर्तिर्भरद्वाजायाश्विना हयन्ता।

            रेवदुवाह सचनो रथो वां वृषभश्च शिंशुमारश्च युक्ता॥ १.११६.१८

            रयिं सुक्षत्रं स्वपत्यमायुः सुवीर्यं नासत्या वहन्ता।

            आ जह्नावीं समनसोप वाजैस्त्रिरह्नो भागं दधतीमयातम्॥ १.११६.१९

            परिविष्टं जाहुषं विश्वतः सीं सुगेभिर्नक्तमूहथू रजोभिः।

            विभिन्दुना नासत्या रथेन वि पर्वताँ अजरयू अयातम्॥ १.११६.२०

            एकस्या वस्तोरावतं रणाय वशमश्विना सनये सहस्रा।

            निरहतं दुच्छुना इन्द्रवन्ता पृथुश्रवसो वृषणावरातीः॥ १.११६.२१

            शरस्य चिदार्चत्कस्यावतादा नीचादुच्चा चक्रथुः पातवे वाः।

            शयवे चिन्नासत्या शचीभिर्जसुरये स्तर्यं पिप्यथुर्गाम्॥ १.११६.२२

            अवस्यते स्तुवते कृष्णियाय ऋजूयते नासत्या शचीभिः।

            पशुं न नष्टमिव दर्शनाय विष्णाप्वं ददथुर्विश्वकाय॥ १.११६.२३

            दश रात्रीरशिवेना नव द्यूनवनद्धं श्नथितमप्स्वन्तः।

            विप्रुतं रेभमुदनि प्रवृक्तमुन्निन्यथुः सोममिव स्रुवेण॥ १.११६.२४

            प्र वां दंसांस्यश्विनाववोचमस्य पतिः स्यां सुगवः सुवीरः।

            उत पश्यन्नश्नुवन्दीर्घमायुरस्तमिवेज्जरिमाणं जगम्याम्॥ १.११६.२५


            मध्वः सोमस्याश्विना मदाय प्रत्नो होता विवासते वाम्।

            बर्हिष्मती रातिर्विश्रिता गीरिषा यातं नासत्योप वाजैः॥ १.११७.०१

            यो वामश्विना मनसो जवीयान्रथः स्वश्वो विश आजिगाति।

            येन गच्छथः सुकृतो दुरोणं तेन नरा वर्तिरस्मभ्यं यातम्॥ १.११७.०२

            ऋषिं नरावंहसः पाञ्चजन्यमृबीसादत्रिं मुञ्चथो गणेन।

            मिनन्ता दस्योरशिवस्य माया अनुपूर्वं वृषणा चोदयन्ता॥ १.११७.०३

            अश्वं न गूळ्हमश्विना दुरेवैरृषिं नरा वृषणा रेभमप्सु।

            सं तं रिणीथो विप्रुतं दंसोभिर्न वां जूर्यन्ति पूर्व्या कृतानि॥ १.११७.०४

            सुषुप्वांसं न निरृतेरुपस्थे सूर्यं न दस्रा तमसि क्षियन्तम्।

            शुभे रुक्मं न दर्शतं निखातमुदूपथुरश्विना वन्दनाय॥ १.११७.०५

            तद्वां नरा शंस्यं पज्रियेण कक्षीवता नासत्या परिज्मन्।

            शफादश्वस्य वाजिनो जनाय शतं कुम्भाँ असिञ्चतं मधूनाम्॥ १.११७.०६

            युवं नरा स्तुवते कृष्णियाय विष्णाप्वं ददथुर्विश्वकाय।

            घोषायै चित्पितृषदे दुरोणे पतिं जूर्यन्त्या अश्विनावदत्तम्॥ १.११७.०७

            युवं श्यावाय रुशतीमदत्तं महः क्षोणस्याश्विना कण्वाय।

            प्रवाच्यं तद्वृषणा कृतं वां यन्नार्षदाय श्रवो अध्यधत्तम्॥ १.११७.०८

            पुरू वर्पांस्यश्विना दधाना नि पेदव ऊहथुराशुमश्वम्।

            सहस्रसां वाजिनमप्रतीतमहिहनं श्रवस्यं तरुत्रम्॥ १.११७.०९

            एतानि वां श्रवस्या सुदानू ब्रह्माङ्गूषं सदनं रोदस्योः।

            यद्वां पज्रासो अश्विना हवन्ते यातमिषा च विदुषे च वाजम्॥ १.११७.१०

            सूनोर्मानेनाश्विना गृणाना वाजं विप्राय भुरणा रदन्ता।

            अगस्त्ये ब्रह्मणा वावृधाना सं विश्पलां नासत्यारिणीतम्॥ १.११७.११

            कुह यान्ता सुष्टुतिं काव्यस्य दिवो नपाता वृषणा शयुत्रा।

            हिरण्यस्येव कलशं निखातमुदूपथुर्दशमे अश्विनाहन्॥ १.११७.१२

            युवं च्यवानमश्विना जरन्तं पुनर्युवानं चक्रथुः शचीभिः।

            युवो रथं दुहिता सूर्यस्य सह श्रिया नासत्यावृणीत॥ १.११७.१३

            युवं तुग्राय पूर्व्येभिरेवैः पुनर्मन्यावभवतं युवाना।

            युवं भुज्युमर्णसो निः समुद्राद्विभिरूहथुरृज्रेभिरश्वैः॥ १.११७.१४

            अजोहवीदश्विना तौग्र्यो वां प्रोळ्हः समुद्रमव्यथिर्जगन्वान्।

            निष्टमूहथुः सुयुजा रथेन मनोजवसा वृषणा स्वस्ति॥ १.११७.१५

            अजोहवीदश्विना वर्तिका वामास्नो यत्सीममुञ्चतं वृकस्य।

            वि जयुषा ययथुः सान्वद्रेर्जातं विष्वाचो अहतं विषेण॥ १.११७.१६

            शतं मेषान्वृक्ये मामहानं तमः प्रणीतमशिवेन पित्रा।

            आक्षी ऋज्राश्वे अश्विनावधत्तं ज्योतिरन्धाय चक्रथुर्विचक्षे॥ १.११७.१७

            शुनमन्धाय भरमह्वयत्सा वृकीरश्विना वृषणा नरेति।

            जारः कनीन इव चक्षदान ऋज्राश्वः शतमेकं च मेषान्॥ १.११७.१८

            मही वामूतिरश्विना मयोभूरुत स्रामं धिष्ण्या सं रिणीथः।

            अथा युवामिदह्वयत्पुरंधिरागच्छतं सीं वृषणाववोभिः॥ १.११७.१९

            अधेनुं दस्रा स्तर्यं विषक्तामपिन्वतं शयवे अश्विना गाम्।

            युवं शचीभिर्विमदाय जायां न्यूहथुः पुरुमित्रस्य योषाम्॥ १.११७.२०

            यवं वृकेणाश्विना वपन्तेषं दुहन्ता मनुषाय दस्रा।

            अभि दस्युं बकुरेणा धमन्तोरु ज्योतिश्चक्रथुरार्याय॥ १.११७.२१

            आथर्वणायाश्विना दधीचेऽश्व्यं शिरः प्रत्यैरयतम्।

            स वां मधु प्र वोचदृतायन्त्वाष्ट्रं यद्दस्रावपिकक्ष्यं वाम्॥ १.११७.२२

            सदा कवी सुमतिमा चके वां विश्वा धियो अश्विना प्रावतं मे।

            अस्मे रयिं नासत्या बृहन्तमपत्यसाचं श्रुत्यं रराथाम्॥ १.११७.२३

            हिरण्यहस्तमश्विना रराणा पुत्रं नरा वध्रिमत्या अदत्तम्।

            त्रिधा ह श्यावमश्विना विकस्तमुज्जीवस ऐरयतं सुदानू॥ १.११७.२४

            एतानि वामश्विना वीर्याणि प्र पूर्व्याण्यायवोऽवोचन्।

            ब्रह्म कृण्वन्तो वृषणा युवभ्यां सुवीरासो विदथमा वदेम॥ १.११७.२५


            आ वां रथो अश्विना श्येनपत्वा सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ्।

            यो मर्त्यस्य मनसो जवीयान्त्रिवन्धुरो वृषणा वातरंहाः॥ १.११८.०१

            त्रिवन्धुरेण त्रिवृता रथेन त्रिचक्रेण सुवृता यातमर्वाक्।

            पिन्वतं गा जिन्वतमर्वतो नो वर्धयतमश्विना वीरमस्मे॥ १.११८.०२

            प्रवद्यामना सुवृता रथेन दस्राविमं शृणुतं श्लोकमद्रेः।

            किमङ्ग वां प्रत्यवर्तिं गमिष्ठाहुर्विप्रासो अश्विना पुराजाः॥ १.११८.०३

            आ वां श्येनासो अश्विना वहन्तु रथे युक्तास आशवः पतंगाः।

            ये अप्तुरो दिव्यासो न गृध्रा अभि प्रयो नासत्या वहन्ति॥ १.११८.०४

            आ वां रथं युवतिस्तिष्ठदत्र जुष्ट्वी नरा दुहिता सूर्यस्य।

            परि वामश्वा वपुषः पतंगा वयो वहन्त्वरुषा अभीके॥ १.११८.०५

            उद्वन्दनमैरतं दंसनाभिरुद्रेभं दस्रा वृषणा शचीभिः।

            निष्टौग्र्यं पारयथः समुद्रात्पुनश्च्यवानं चक्रथुर्युवानम्॥ १.११८.०६

            युवमत्रयेऽवनीताय तप्तमूर्जमोमानमश्विनावधत्तम्।

            युवं कण्वायापिरिप्ताय चक्षुः प्रत्यधत्तं सुष्टुतिं जुजुषाणा॥ १.११८.०७

            युवं धेनुं शयवे नाधितायापिन्वतमश्विना पूर्व्याय।

            अमुञ्चतं वर्तिकामंहसो निः प्रति जङ्घां विश्पलाया अधत्तम्॥ १.११८.०८

            युवं श्वेतं पेदव इन्द्रजूतमहिहनमश्विनादत्तमश्वम्।

            जोहूत्रमर्यो अभिभूतिमुग्रं सहस्रसां वृषणं वीड्वङ्गम्॥ १.११८.०९

            ता वां नरा स्ववसे सुजाता हवामहे अश्विना नाधमानाः।

            आ न उप वसुमता रथेन गिरो जुषाणा सुविताय यातम्॥ १.११८.१०

            आ श्येनस्य जवसा नूतनेनास्मे यातं नासत्या सजोषाः।

            हवे हि वामश्विना रातहव्यः शश्वत्तमाया उषसो व्युष्टौ॥ १.११८.११


            आ वां रथं पुरुमायं मनोजुवं जीराश्वं यज्ञियं जीवसे हुवे।

            सहस्रकेतुं वनिनं शतद्वसुं श्रुष्टीवानं वरिवोधामभि प्रयः॥ १.११९.०१

            ऊर्ध्वा धीतिः प्रत्यस्य प्रयामन्यधायि शस्मन्समयन्त आ दिशः।

            स्वदामि घर्मं प्रति यन्त्यूतय आ वामूर्जानी रथमश्विनारुहत्॥ १.११९.०२

            सं यन्मिथः पस्पृधानासो अग्मत शुभे मखा अमिता जायवो रणे।

            युवोरह प्रवणे चेकिते रथो यदश्विना वहथः सूरिमा वरम्॥ १.११९.०३

            युवं भुज्युं भुरमाणं विभिर्गतं स्वयुक्तिभिर्निवहन्ता पितृभ्य आ।

            यासिष्टं वर्तिर्वृषणा विजेन्यं दिवोदासाय महि चेति वामवः॥ १.११९.०४

            युवोरश्विना वपुषे युवायुजं रथं वाणी येमतुरस्य शर्ध्यम्।

            आ वां पतित्वं सख्याय जग्मुषी योषावृणीत जेन्या युवां पती॥ १.११९.०५

            युवं रेभं परिषूतेरुरुष्यथो हिमेन घर्मं परितप्तमत्रये।

            युवं शयोरवसं पिप्यथुर्गवि प्र दीर्घेण वन्दनस्तार्यायुषा॥ १.११९.०६

            युवं वन्दनं निरृतं जरण्यया रथं न दस्रा करणा समिन्वथः।

            क्षेत्रादा विप्रं जनथो विपन्यया प्र वामत्र विधते दंसना भुवत्॥ १.११९.०७

            अगच्छतं कृपमाणं परावति पितुः स्वस्य त्यजसा निबाधितम्।

            स्वर्वतीरित ऊतीर्युवोरह चित्रा अभीके अभवन्नभिष्टयः॥ १.११९.०८

            उत स्या वां मधुमन्मक्षिकारपन्मदे सोमस्यौशिजो हुवन्यति।

            युवं दधीचो मन आ विवासथोऽथा शिरः प्रति वामश्व्यं वदत्॥ १.११९.०९

            युवं पेदवे पुरुवारमश्विना स्पृधां श्वेतं तरुतारं दुवस्यथः।

            शर्यैरभिद्युं पृतनासु दुष्टरं चर्कृत्यमिन्द्रमिव चर्षणीसहम्॥ १.११९.१०


            का राधद्धोत्राश्विना वां को वां जोष उभयोः।

            कथा विधात्यप्रचेताः॥ १.१२०.०१

            विद्वांसाविद्दुरः पृच्छेदविद्वानित्थापरो अचेताः।

            नू चिन्नु मर्ते अक्रौ॥ १.१२०.०२

            ता विद्वांसा हवामहे वां ता नो विद्वांसा मन्म वोचेतमद्य।

            प्रार्चद्दयमानो युवाकुः॥ १.१२०.०३

            वि पृच्छामि पाक्या न देवान्वषट्कृतस्याद्भुतस्य दस्रा।

            पातं च सह्यसो युवं च रभ्यसो नः॥ १.१२०.०४

            प्र या घोषे भृगवाणे न शोभे यया वाचा यजति पज्रियो वाम्।

            प्रैषयुर्न विद्वान्॥ १.१२०.०५

            श्रुतं गायत्रं तकवानस्याहं चिद्धि रिरेभाश्विना वाम्।

            आक्षी शुभस्पती दन्॥ १.१२०.०६

            युवं ह्यास्तं महो रन्युवं वा यन्निरततंसतम्।

            ता नो वसू सुगोपा स्यातं पातं नो वृकादघायोः॥ १.१२०.०७

            मा कस्मै धातमभ्यमित्रिणे नो माकुत्रा नो गृहेभ्यो धेनवो गुः।

            स्तनाभुजो अशिश्वीः॥ १.१२०.०८

            दुहीयन्मित्रधितये युवाकु राये च नो मिमीतं वाजवत्यै।

            इषे च नो मिमीतं धेनुमत्यै॥ १.१२०.०९

            अश्विनोरसनं रथमनश्वं वाजिनीवतोः।

            तेनाहं भूरि चाकन॥ १.१२०.१०

            अयं समह मा तनूह्याते जनाँ अनु।

            सोमपेयं सुखो रथः॥ १.१२०.११

            अध स्वप्नस्य निर्विदेऽभुञ्जतश्च रेवतः।

            उभा ता बस्रि नश्यतः॥ १.१२०.१२


            कदित्था नॄँः पात्रं देवयतां श्रवद्गिरो अङ्गिरसां तुरण्यन्।

            प्र यदानड्विश आ हर्म्यस्योरु क्रंसते अध्वरे यजत्रः॥ १.१२१.०१

            स्तम्भीद्ध द्यां स धरुणं प्रुषायदृभुर्वाजाय द्रविणं नरो गोः।

            अनु स्वजां महिषश्चक्षत व्रां मेनामश्वस्य परि मातरं गोः॥ १.१२१.०२

            नक्षद्धवमरुणीः पूर्व्यं राट् तुरो विशामङ्गिरसामनु द्यून्।

            तक्षद्वज्रं नियुतं तस्तम्भद्द्यां चतुष्पदे नर्याय द्विपादे॥ १.१२१.०३

            अस्य मदे स्वर्यं दा ऋतायापीवृतमुस्रियाणामनीकम्।

            यद्ध प्रसर्गे त्रिककुम्निवर्तदप द्रुहो मानुषस्य दुरो वः॥ १.१२१.०४

            तुभ्यं पयो यत्पितरावनीतां राधः सुरेतस्तुरणे भुरण्यू।

            शुचि यत्ते रेक्ण आयजन्त सबर्दुघायाः पय उस्रियायाः॥ १.१२१.०५

            अध प्र जज्ञे तरणिर्ममत्तु प्र रोच्यस्या उषसो न सूरः।

            इन्दुर्येभिराष्ट स्वेदुहव्यैः स्रुवेण सिञ्चञ्जरणाभि धाम॥ १.१२१.०६

            स्विध्मा यद्वनधितिरपस्यात्सूरो अध्वरे परि रोधना गोः।

            यद्ध प्रभासि कृत्व्याँ अनु द्यूननर्विशे पश्विषे तुराय॥ १.१२१.०७

            अष्टा महो दिव आदो हरी इह द्युम्नासाहमभि योधान उत्सम्।

            हरिं यत्ते मन्दिनं दुक्षन्वृधे गोरभसमद्रिभिर्वाताप्यम्॥ १.१२१.०८

            त्वमायसं प्रति वर्तयो गोर्दिवो अश्मानमुपनीतमृभ्वा।

            कुत्साय यत्र पुरुहूत वन्वञ्छुष्णमनन्तैः परियासि वधैः॥ १.१२१.०९

            पुरा यत्सूरस्तमसो अपीतेस्तमद्रिवः फलिगं हेतिमस्य।

            शुष्णस्य चित्परिहितं यदोजो दिवस्परि सुग्रथितं तदादः॥ १.१२१.१०

            अनु त्वा मही पाजसी अचक्रे द्यावाक्षामा मदतामिन्द्र कर्मन्।

            त्वं वृत्रमाशयानं सिरासु महो वज्रेण सिष्वपो वराहुम्॥ १.१२१.११

            त्वमिन्द्र नर्यो याँ अवो नॄन्तिष्ठा वातस्य सुयुजो वहिष्ठान्।

            यं ते काव्य उशना मन्दिनं दाद्वृत्रहणं पार्यं ततक्ष वज्रम्॥ १.१२१.१२

            त्वं सूरो हरितो रामयो नॄन्भरच्चक्रमेतशो नायमिन्द्र।

            प्रास्य पारं नवतिं नाव्यानामपि कर्तमवर्तयोऽयज्यून्॥ १.१२१.१३

            त्वं नो अस्या इन्द्र दुर्हणायाः पाहि वज्रिवो दुरितादभीके।

            प्र नो वाजान्रथ्यो अश्वबुध्यानिषे यन्धि श्रवसे सूनृतायै॥ १.१२१.१४

            मा सा ते अस्मत्सुमतिर्वि दसद्वाजप्रमहः समिषो वरन्त।

            आ नो भज मघवन्गोष्वर्यो मंहिष्ठास्ते सधमादः स्याम॥ १.१२१.१५


            प्र वः पान्तं रघुमन्यवोऽन्धो यज्ञं रुद्राय मीळ्हुषे भरध्वम्।

            दिवो अस्तोष्यसुरस्य वीरैरिषुध्येव मरुतो रोदस्योः॥ १.१२२.०१

            पत्नीव पूर्वहूतिं वावृधध्या उषासानक्ता पुरुधा विदाने।

            स्तरीर्नात्कं व्युतं वसाना सूर्यस्य श्रिया सुदृशी हिरण्यैः॥ १.१२२.०२

            ममत्तु नः परिज्मा वसर्हा ममत्तु वातो अपां वृषण्वान्।

            शिशीतमिन्द्रापर्वता युवं नस्तन्नो विश्वे वरिवस्यन्तु देवाः॥ १.१२२.०३

            उत त्या मे यशसा श्वेतनायै व्यन्ता पान्तौशिजो हुवध्यै।

            प्र वो नपातमपां कृणुध्वं प्र मातरा रास्पिनस्यायोः॥ १.१२२.०४

            आ वो रुवण्युमौशिजो हुवध्यै घोषेव शंसमर्जुनस्य नंशे।

            प्र वः पूष्णे दावन आँ अच्छा वोचेय वसुतातिमग्नेः॥ १.१२२.०५

            श्रुतं मे मित्रावरुणा हवेमोत श्रुतं सदने विश्वतः सीम्।

            श्रोतु नः श्रोतुरातिः सुश्रोतुः सुक्षेत्रा सिन्धुरद्भिः॥ १.१२२.०६

            स्तुषे सा वां वरुण मित्र रातिर्गवां शता पृक्षयामेषु पज्रे।

            श्रुतरथे प्रियरथे दधानाः सद्यः पुष्टिं निरुन्धानासो अग्मन्॥ १.१२२.०७

            अस्य स्तुषे महिमघस्य राधः सचा सनेम नहुषः सुवीराः।

            जनो यः पज्रेभ्यो वाजिनीवानश्वावतो रथिनो मह्यं सूरिः॥ १.१२२.०८

            जनो यो मित्रावरुणावभिध्रुगपो न वां सुनोत्यक्ष्णयाध्रुक्।

            स्वयं स यक्ष्मं हृदये नि धत्त आप यदीं होत्राभिरृतावा॥ १.१२२.०९

            स व्राधतो नहुषो दंसुजूतः शर्धस्तरो नरां गूर्तश्रवाः।

            विसृष्टरातिर्याति बाळ्हसृत्वा विश्वासु पृत्सु सदमिच्छूरः॥ १.१२२.१०

            अध ग्मन्ता नहुषो हवं सूरेः श्रोता राजानो अमृतस्य मन्द्राः।

            नभोजुवो यन्निरवस्य राधः प्रशस्तये महिना रथवते॥ १.१२२.११

            एतं शर्धं धाम यस्य सूरेरित्यवोचन्दशतयस्य नंशे।

            द्युम्नानि येषु वसुताती रारन्विश्वे सन्वन्तु प्रभृथेषु वाजम्॥ १.१२२.१२

            मन्दामहे दशतयस्य धासेर्द्विर्यत्पञ्च बिभ्रतो यन्त्यन्ना।

            किमिष्टाश्व इष्टरश्मिरेत ईशानासस्तरुष ऋञ्जते नॄन्॥ १.१२२.१३

            हिरण्यकर्णं मणिग्रीवमर्णस्तन्नो विश्वे वरिवस्यन्तु देवाः।

            अर्यो गिरः सद्य आ जग्मुषीरोस्राश्चाकन्तूभयेष्वस्मे॥ १.१२२.१४

            चत्वारो मा मशर्शारस्य शिश्वस्त्रयो राज्ञ आयवसस्य जिष्णोः।

            रथो वां मित्रावरुणा दीर्घाप्साः स्यूमगभस्तिः सूरो नाद्यौत्॥ १.१२२.१५


            पृथू रथो दक्षिणाया अयोज्यैनं देवासो अमृतासो अस्थुः।

            कृष्णादुदस्थादर्या विहायाश्चिकित्सन्ती मानुषाय क्षयाय॥ १.१२३.०१

            पूर्वा विश्वस्माद्भुवनादबोधि जयन्ती वाजं बृहती सनुत्री।

            उच्चा व्यख्यद्युवतिः पुनर्भूरोषा अगन्प्रथमा पूर्वहूतौ॥ १.१२३.०२

            यदद्य भागं विभजासि नृभ्य उषो देवि मर्त्यत्रा सुजाते।

            देवो नो अत्र सविता दमूना अनागसो वोचति सूर्याय॥ १.१२३.०३

            गृहंगृहमहना यात्यच्छा दिवेदिवे अधि नामा दधाना।

            सिषासन्ती द्योतना शश्वदागादग्रमग्रमिद्भजते वसूनाम्॥ १.१२३.०४

            भगस्य स्वसा वरुणस्य जामिरुषः सूनृते प्रथमा जरस्व।

            पश्चा स दघ्या यो अघस्य धाता जयेम तं दक्षिणया रथेन॥ १.१२३.०५

            उदीरतां सूनृता उत्पुरंधीरुदग्नयः शुशुचानासो अस्थुः।

            स्पार्हा वसूनि तमसापगूळ्हाविष्कृण्वन्त्युषसो विभातीः॥ १.१२३.०६

            अपान्यदेत्यभ्यन्यदेति विषुरूपे अहनी सं चरेते।

            परिक्षितोस्तमो अन्या गुहाकरद्यौदुषाः शोशुचता रथेन॥ १.१२३.०७

            सदृशीरद्य सदृशीरिदु श्वो दीर्घं सचन्ते वरुणस्य धाम।

            अनवद्यास्त्रिंशतं योजनान्येकैका क्रतुं परि यन्ति सद्यः॥ १.१२३.०८

            जानत्यह्नः प्रथमस्य नाम शुक्रा कृष्णादजनिष्ट श्वितीची।

            ऋतस्य योषा न मिनाति धामाहरहर्निष्कृतमाचरन्ती॥ १.१२३.०९

            कन्येव तन्वा शाशदानाँ एषि देवि देवमियक्षमाणम्।

            संस्मयमाना युवतिः पुरस्तादाविर्वक्षांसि कृणुषे विभाती॥ १.१२३.१०

            सुसंकाशा मातृमृष्टेव योषाविस्तन्वं कृणुषे दृशे कम्।

            भद्रा त्वमुषो वितरं व्युच्छ न तत्ते अन्या उषसो नशन्त॥ १.१२३.११

            अश्वावतीर्गोमतीर्विश्ववारा यतमाना रश्मिभिः सूर्यस्य।

            परा च यन्ति पुनरा च यन्ति भद्रा नाम वहमाना उषासः॥ १.१२३.१२

            ऋतस्य रश्मिमनुयच्छमाना भद्रम्भद्रं क्रतुमस्मासु धेहि।

            उषो नो अद्य सुहवा व्युच्छास्मासु रायो मघवत्सु च स्युः॥ १.१२३.१३


            उषा उच्छन्ती समिधाने अग्ना उद्यन्सूर्य उर्विया ज्योतिरश्रेत्।

            देवो नो अत्र सविता न्वर्थं प्रासावीद्द्विपत्प्र चतुष्पदित्यै॥ १.१२४.०१

            अमिनती दैव्यानि व्रतानि प्रमिनती मनुष्या युगानि।

            ईयुषीणामुपमा शश्वतीनामायतीनां प्रथमोषा व्यद्यौत्॥ १.१२४.०२

            एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि ज्योतिर्वसाना समना पुरस्तात्।

            ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति॥ १.१२४.०३

            उपो अदर्शि शुन्ध्युवो न वक्षो नोधा इवाविरकृत प्रियाणि।

            अद्मसन्न ससतो बोधयन्ती शश्वत्तमागात्पुनरेयुषीणाम्॥ १.१२४.०४

            पूर्वे अर्धे रजसो अप्त्यस्य गवां जनित्र्यकृत प्र केतुम्।

            व्यु प्रथते वितरं वरीय ओभा पृणन्ती पित्रोरुपस्था॥ १.१२४.०५

            एवेदेषा पुरुतमा दृशे कं नाजामिं न परि वृणक्ति जामिम्।

            अरेपसा तन्वा शाशदाना नार्भादीषते न महो विभाती॥ १.१२४.०६

            अभ्रातेव पुंस एति प्रतीची गर्तारुगिव सनये धनानाम्।

            जायेव पत्य उशती सुवासा उषा हस्रेव नि रिणीते अप्सः॥ १.१२४.०७

            स्वसा स्वस्रे ज्यायस्यै योनिमारैगपैत्यस्याः प्रतिचक्ष्येव।

            व्युच्छन्ती रश्मिभिः सूर्यस्याञ्ज्यङ्क्ते समनगा इव व्राः॥ १.१२४.०८

            आसां पूर्वासामहसु स्वसॄणामपरा पूर्वामभ्येति पश्चात्।

            ताः प्रत्नवन्नव्यसीर्नूनमस्मे रेवदुच्छन्तु सुदिना उषासः॥ १.१२४.०९

            प्र बोधयोषः पृणतो मघोन्यबुध्यमानाः पणयः ससन्तु।

            रेवदुच्छ मघवद्भ्यो मघोनि रेवत्स्तोत्रे सूनृते जारयन्ती॥ १.१२४.१०

            अवेयमश्वैद्युवतिः पुरस्ताद्युङ्क्ते गवामरुणानामनीकम्।

            वि नूनमुच्छादसति प्र केतुर्गृहंगृहमुप तिष्ठाते अग्निः॥ १.१२४.११

            उत्ते वयश्चिद्वसतेरपप्तन्नरश्च ये पितुभाजो व्युष्टौ।

            अमा सते वहसि भूरि वाममुषो देवि दाशुषे मर्त्याय॥ १.१२४.१२

            अस्तोढ्वं स्तोम्या ब्रह्मणा मेऽवीवृधध्वमुशतीरुषासः।

            युष्माकं देवीरवसा सनेम सहस्रिणं च शतिनं च वाजम्॥ १.१२४.१३


            प्राता रत्नं प्रातरित्वा दधाति तं चिकित्वान्प्रतिगृह्या नि धत्ते।

            तेन प्रजां वर्धयमान आयू रायस्पोषेण सचते सुवीरः॥ १.१२५.०१

            सुगुरसत्सुहिरण्यः स्वश्वो बृहदस्मै वय इन्द्रो दधाति।

            यस्त्वायन्तं वसुना प्रातरित्वो मुक्षीजयेव पदिमुत्सिनाति॥ १.१२५.०२

            आयमद्य सुकृतं प्रातरिच्छन्निष्टेः पुत्रं वसुमता रथेन।

            अंशोः सुतं पायय मत्सरस्य क्षयद्वीरं वर्धय सूनृताभिः॥ १.१२५.०३

            उप क्षरन्ति सिन्धवो मयोभुव ईजानं च यक्ष्यमाणं च धेनवः।

            पृणन्तं च पपुरिं च श्रवस्यवो घृतस्य धारा उप यन्ति विश्वतः॥ १.१२५.०४

            नाकस्य पृष्ठे अधि तिष्ठति श्रितो यः पृणाति स ह देवेषु गच्छति।

            तस्मा आपो घृतमर्षन्ति सिन्धवस्तस्मा इयं दक्षिणा पिन्वते सदा॥ १.१२५.०५

            दक्षिणावतामिदिमानि चित्रा दक्षिणावतां दिवि सूर्यासः।

            दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते दक्षिणावन्तः प्र तिरन्त आयुः॥ १.१२५.०६

            मा पृणन्तो दुरितमेन आरन्मा जारिषुः सूरयः सुव्रतासः।

            अन्यस्तेषां परिधिरस्तु कश्चिदपृणन्तमभि सं यन्तु शोकाः॥ १.१२५.०७


            अमन्दान्स्तोमान्प्र भरे मनीषा सिन्धावधि क्षियतो भाव्यस्य।

            यो मे सहस्रममिमीत सवानतूर्तो राजा श्रव इच्छमानः॥ १.१२६.०१

            शतं राज्ञो नाधमानस्य निष्काञ्छतमश्वान्प्रयतान्सद्य आदम्।

            शतं कक्षीवाँ असुरस्य गोनां दिवि श्रवोऽजरमा ततान॥ १.१२६.०२

            उप मा श्यावाः स्वनयेन दत्ता वधूमन्तो दश रथासो अस्थुः।

            षष्टिः सहस्रमनु गव्यमागात्सनत्कक्षीवाँ अभिपित्वे अह्नाम्॥ १.१२६.०३

            चत्वारिंशद्दशरथस्य शोणाः सहस्रस्याग्रे श्रेणिं नयन्ति।

            मदच्युतः कृशनावतो अत्यान्कक्षीवन्त उदमृक्षन्त पज्राः॥ १.१२६.०४

            पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन्युक्ताँ अष्टावरिधायसो गाः।

            सुबन्धवो ये विश्या इव व्रा अनस्वन्तः श्रव ऐषन्त पज्राः॥ १.१२६.०५

            आगधिता परिगधिता या कशीकेव जङ्गहे।

            ददाति मह्यं यादुरी याशूनां भोज्या शता॥ १.१२६.०६

            उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथाः।

            सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका॥ १.१२६.०७


            अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो जातवेदसं विप्रं न जातवेदसम्।

            य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा।

            घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाजुह्वानस्य सर्पिषः॥ १.१२७.०१

            यजिष्ठं त्वा यजमाना हुवेम ज्येष्ठमङ्गिरसां विप्र मन्मभिर्विप्रेभिः शुक्र मन्मभिः।

            परिज्मानमिव द्यां होतारं चर्षणीनाम्।

            शोचिष्केशं वृषणं यमिमा विशः प्रावन्तु जूतये विशः॥ १.१२७.०२

            स हि पुरू चिदोजसा विरुक्मता दीद्यानो भवति द्रुहंतरः परशुर्न द्रुहंतरः।

            वीळु चिद्यस्य समृतौ श्रुवद्वनेव यत्स्थिरम्।

            निःषहमाणो यमते नायते धन्वासहा नायते॥ १.१२७.०३

            दृळ्हा चिदस्मा अनु दुर्यथा विदे तेजिष्ठाभिररणिभिर्दाष्ट्यवसेऽग्नये दाष्ट्यवसे।

            प्र यः पुरूणि गाहते तक्षद्वनेव शोचिषा।

            स्थिरा चिदन्ना नि रिणात्योजसा नि स्थिराणि चिदोजसा॥ १.१२७.०४

            तमस्य पृक्षमुपरासु धीमहि नक्तं यः सुदर्शतरो दिवातरादप्रायुषे दिवातरात्।

            आदस्यायुर्ग्रभणवद्वीळु शर्म न सूनवे।

            भक्तमभक्तमवो व्यन्तो अजरा अग्नयो व्यन्तो अजराः॥ १.१२७.०५

            स हि शर्धो न मारुतं तुविष्वणिरप्नस्वतीषूर्वरास्विष्टनिरार्तनास्विष्टनिः।

            आदद्धव्यान्याददिर्यज्ञस्य केतुरर्हणा।

            अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो विश्वे जुषन्त पन्थां नरः शुभे न पन्थाम्॥ १.१२७.०६

            द्विता यदीं कीस्तासो अभिद्यवो नमस्यन्त उपवोचन्त भृगवो मथ्नन्तो दाशा भृगवः।

            अग्निरीशे वसूनां शुचिर्यो धर्णिरेषाम्।

            प्रियाँ अपिधीँर्वनिषीष्ट मेधिर आ वनिषीष्ट मेधिरः॥ १.१२७.०७

            विश्वासां त्वा विशां पतिं हवामहे सर्वासां समानं दम्पतिं भुजे सत्यगिर्वाहसं भुजे।

            अतिथिं मानुषाणां पितुर्न यस्यासया।

            अमी च विश्वे अमृतास आ वयो हव्या देवेष्वा वयः॥ १.१२७.०८

            त्वमग्ने सहसा सहन्तमः शुष्मिन्तमो जायसे देवतातये रयिर्न देवतातये।

            शुष्मिन्तमो हि ते मदो द्युम्निन्तम उत क्रतुः।

            अध स्मा ते परि चरन्त्यजर श्रुष्टीवानो नाजर॥ १.१२७.०९

            प्र वो महे सहसा सहस्वत उषर्बुधे पशुषे नाग्नये स्तोमो बभूत्वग्नये।

            प्रति यदीं हविष्मान्विश्वासु क्षासु जोगुवे।

            अग्रे रेभो न जरत ऋषूणां जूर्णिर्होत ऋषूणाम्॥ १.१२७.१०

            स नो नेदिष्ठं ददृशान आ भराग्ने देवेभिः सचनाः सुचेतुना महो रायः सुचेतुना।

            महि शविष्ठ नस्कृधि संचक्षे भुजे अस्यै।

            महि स्तोतृभ्यो मघवन्सुवीर्यं मथीरुग्रो न शवसा॥ १.१२७.११


            अयं जायत मनुषो धरीमणि होता यजिष्ठ उशिजामनु व्रतमग्निः स्वमनु व्रतम्।

            विश्वश्रुष्टिः सखीयते रयिरिव श्रवस्यते।

            अदब्धो होता नि षददिळस्पदे परिवीत इळस्पदे॥ १.१२८.०१

            तं यज्ञसाधमपि वातयामस्यृतस्य पथा नमसा हविष्मता देवताता हविष्मता।

            स न ऊर्जामुपाभृत्यया कृपा न जूर्यति।

            यं मातरिश्वा मनवे परावतो देवं भाः परावतः॥ १.१२८.०२

            एवेन सद्यः पर्येति पार्थिवं मुहुर्गी रेतो वृषभः कनिक्रदद्दधद्रेतः कनिक्रदत्।

            शतं चक्षाणो अक्षभिर्देवो वनेषु तुर्वणिः।

            सदो दधान उपरेषु सानुष्वग्निः परेषु सानुषु॥ १.१२८.०३

            स सुक्रतुः पुरोहितो दमेदमेऽग्निर्यज्ञस्याध्वरस्य चेतति क्रत्वा यज्ञस्य चेतति।

            क्रत्वा वेधा इषूयते विश्वा जातानि पस्पशे।

            यतो घृतश्रीरतिथिरजायत वह्निर्वेधा अजायत॥ १.१२८.०४

            क्रत्वा यदस्य तविषीषु पृञ्चतेऽग्नेरवेण मरुतां न भोज्येषिराय न भोज्या।

            स हि ष्मा दानमिन्वति वसूनां च मज्मना।

            स नस्त्रासते दुरितादभिह्रुतः शंसादघादभिह्रुतः॥ १.१२८.०५

            विश्वो विहाया अरतिर्वसुर्दधे हस्ते दक्षिणे तरणिर्न शिश्रथच्छ्रवस्यया न शिश्रथत्।

            विश्वस्मा इदिषुध्यते देवत्रा हव्यमोहिषे।

            विश्वस्मा इत्सुकृते वारमृण्वत्यग्निर्द्वारा व्यृण्वति॥ १.१२८.०६

            स मानुषे वृजने शंतमो हितोऽग्निर्यज्ञेषु जेन्यो न विश्पतिः प्रियो यज्ञेषु विश्पतिः।

            स हव्या मानुषाणामिळा कृतानि पत्यते।

            स नस्त्रासते वरुणस्य धूर्तेर्महो देवस्य धूर्तेः॥ १.१२८.०७

            अग्निं होतारमीळते वसुधितिं प्रियं चेतिष्ठमरतिं न्येरिरे हव्यवाहं न्येरिरे।

            विश्वायुं विश्ववेदसं होतारं यजतं कविम्।

            देवासो रण्वमवसे वसूयवो गीर्भी रण्वं वसूयवः॥ १.१२८.०८


            यं त्वं रथमिन्द्र मेधसातयेऽपाका सन्तमिषिर प्रणयसि प्रानवद्य नयसि।

            सद्यश्चित्तमभिष्टये करो वशश्च वाजिनम्।

            सास्माकमनवद्य तूतुजान वेधसामिमां वाचं न वेधसाम्॥ १.१२९.०१

            स श्रुधि यः स्मा पृतनासु कासु चिद्दक्षाय्य इन्द्र भरहूतये नृभिरसि प्रतूर्तये नृभिः।

            यः शूरैः स्वः सनिता यो विप्रैर्वाजं तरुता।

            तमीशानास इरधन्त वाजिनं पृक्षमत्यं न वाजिनम्॥ १.१२९.०२

            दस्मो हि ष्मा वृषणं पिन्वसि त्वचं कं चिद्यावीरररुं शूर मर्त्यं परिवृणक्षि मर्त्यम्।

            इन्द्रोत तुभ्यं तद्दिवे तद्रुद्राय स्वयशसे।

            मित्राय वोचं वरुणाय सप्रथः सुमृळीकाय सप्रथः॥ १.१२९.०३

            अस्माकं व इन्द्रमुश्मसीष्टये सखायं विश्वायुं प्रासहं युजं वाजेषु प्रासहं युजम्।

            अस्माकं ब्रह्मोतयेऽवा पृत्सुषु कासु चित्।

            नहि त्वा शत्रुः स्तरते स्तृणोषि यं विश्वं शत्रुं स्तृणोषि यम्॥ १.१२९.०४

            नि षू नमातिमतिं कयस्य चित्तेजिष्ठाभिररणिभिर्नोतिभिरुग्राभिरुग्रोतिभिः।

            नेषि णो यथा पुरानेनाः शूर मन्यसे।

            विश्वानि पूरोरप पर्षि वह्निरासा वह्निर्नो अच्छ॥ १.१२९.०५

            प्र तद्वोचेयं भव्यायेन्दवे हव्यो न य इषवान्मन्म रेजति रक्षोहा मन्म रेजति।

            स्वयं सो अस्मदा निदो वधैरजेत दुर्मतिम्।

            अव स्रवेदघशंसोऽवतरमव क्षुद्रमिव स्रवेत्॥ १.१२९.०६

            वनेम तद्धोत्रया चितन्त्या वनेम रयिं रयिवः सुवीर्यं रण्वं सन्तं सुवीर्यम्।

            दुर्मन्मानं सुमन्तुभिरेमिषा पृचीमहि।

            आ सत्याभिरिन्द्रं द्युम्नहूतिभिर्यजत्रं द्युम्नहूतिभिः॥ १.१२९.०७

            प्रप्रा वो अस्मे स्वयशोभिरूती परिवर्ग इन्द्रो दुर्मतीनां दरीमन्दुर्मतीनाम्।

            स्वयं सा रिषयध्यै या न उपेषे अत्रैः।

            हतेमसन्न वक्षति क्षिप्ता जूर्णिर्न वक्षति॥ १.१२९.०८

            त्वं न इन्द्र राया परीणसा याहि पथाँ अनेहसा पुरो याह्यरक्षसा।

            सचस्व नः पराक आ सचस्वास्तमीक आ।

            पाहि नो दूरादारादभिष्टिभिः सदा पाह्यभिष्टिभिः॥ १.१२९.०९

            त्वं न इन्द्र राया तरूषसोग्रं चित्त्वा महिमा सक्षदवसे महे मित्रं नावसे।

            ओजिष्ठ त्रातरविता रथं कं चिदमर्त्य।

            अन्यमस्मद्रिरिषेः कं चिदद्रिवो रिरिक्षन्तं चिदद्रिवः॥ १.१२९.१०

            पाहि न इन्द्र सुष्टुत स्रिधोऽवयाता सदमिद्दुर्मतीनां देवः सन्दुर्मतीनाम्।

            हन्ता पापस्य रक्षसस्त्राता विप्रस्य मावतः।

            अधा हि त्वा जनिता जीजनद्वसो रक्षोहणं त्वा जीजनद्वसो॥ १.१२९.११


            एन्द्र याह्युप नः परावतो नायमच्छा विदथानीव सत्पतिरस्तं राजेव सत्पतिः।

            हवामहे त्वा वयं प्रयस्वन्तः सुते सचा।

            पुत्रासो न पितरं वाजसातये मंहिष्ठं वाजसातये॥ १.१३०.०१

            पिबा सोममिन्द्र सुवानमद्रिभिः कोशेन सिक्तमवतं न वंसगस्तातृषाणो न वंसगः।

            मदाय हर्यताय ते तुविष्टमाय धायसे।

            आ त्वा यच्छन्तु हरितो न सूर्यमहा विश्वेव सूर्यम्॥ १.१३०.०२

            अविन्दद्दिवो निहितं गुहा निधिं वेर्न गर्भं परिवीतमश्मन्यनन्ते अन्तरश्मनि।

            व्रजं वज्री गवामिव सिषासन्नङ्गिरस्तमः।

            अपावृणोदिष इन्द्रः परीवृता द्वार इषः परीवृताः॥ १.१३०.०३

            दादृहाणो वज्रमिन्द्रो गभस्त्योः क्षद्मेव तिग्ममसनाय सं श्यदहिहत्याय सं श्यत्।

            संविव्यान ओजसा शवोभिरिन्द्र मज्मना।

            तष्टेव वृक्षं वनिनो नि वृश्चसि परश्वेव नि वृश्चसि॥ १.१३०.०४

            त्वं वृथा नद्य इन्द्र सर्तवेऽच्छा समुद्रमसृजो रथाँ इव वाजयतो रथाँ इव।

            इत ऊतीरयुञ्जत समानमर्थमक्षितम्।

            धेनूरिव मनवे विश्वदोहसो जनाय विश्वदोहसः॥ १.१३०.०५

            इमां ते वाचं वसूयन्त आयवो रथं न धीरः स्वपा अतक्षिषुः सुम्नाय त्वामतक्षिषुः।

            शुम्भन्तो जेन्यं यथा वाजेषु विप्र वाजिनम्।

            अत्यमिव शवसे सातये धना विश्वा धनानि सातये॥ १.१३०.०६

            भिनत्पुरो नवतिमिन्द्र पूरवे दिवोदासाय महि दाशुषे नृतो वज्रेण दाशुषे नृतो।

            अतिथिग्वाय शम्बरं गिरेरुग्रो अवाभरत्।

            महो धनानि दयमान ओजसा विश्वा धनान्योजसा॥ १.१३०.०७

            इन्द्रः समत्सु यजमानमार्यं प्रावद्विश्वेषु शतमूतिराजिषु स्वर्मीळ्हेष्वाजिषु।

            मनवे शासदव्रतान्त्वचं कृष्णामरन्धयत्।

            दक्षन्न विश्वं ततृषाणमोषति न्यर्शसानमोषति॥ १.१३०.०८

            सूरश्चक्रं प्र वृहज्जात ओजसा प्रपित्वे वाचमरुणो मुषायतीशान आ मुषायति।

            उशना यत्परावतोऽजगन्नूतये कवे।

            सुम्नानि विश्वा मनुषेव तुर्वणिरहा विश्वेव तुर्वणिः॥ १.१३०.०९

            स नो नव्येभिर्वृषकर्मन्नुक्थैः पुरां दर्तः पायुभिः पाहि शग्मैः।

            दिवोदासेभिरिन्द्र स्तवानो वावृधीथा अहोभिरिव द्यौः॥ १.१३०.१०


            इन्द्राय हि द्यौरसुरो अनम्नतेन्द्राय मही पृथिवी वरीमभिर्द्युम्नसाता वरीमभिः।

            इन्द्रं विश्वे सजोषसो देवासो दधिरे पुरः।

            इन्द्राय विश्वा सवनानि मानुषा रातानि सन्तु मानुषा॥ १.१३१.०१

            विश्वेषु हि त्वा सवनेषु तुञ्जते समानमेकं वृषमण्यवः पृथक्स्वः सनिष्यवः पृथक्।

            तं त्वा नावं न पर्षणिं शूषस्य धुरि धीमहि।

            इन्द्रं न यज्ञैश्चितयन्त आयवः स्तोमेभिरिन्द्रमायवः॥ १.१३१.०२

            वि त्वा ततस्रे मिथुना अवस्यवो व्रजस्य साता गव्यस्य निःसृजः सक्षन्त इन्द्र निःसृजः।

            यद्गव्यन्ता द्वा जना स्वर्यन्ता समूहसि।

            आविष्करिक्रद्वृषणं सचाभुवं वज्रमिन्द्र सचाभुवम्॥ १.१३१.०३

            विदुष्टे अस्य वीर्यस्य पूरवः पुरो यदिन्द्र शारदीरवातिरः सासहानो अवातिरः।

            शासस्तमिन्द्र मर्त्यमयज्युं शवसस्पते।

            महीममुष्णाः पृथिवीमिमा अपो मन्दसान इमा अपः॥ १.१३१.०४

            आदित्ते अस्य वीर्यस्य चर्किरन्मदेषु वृषन्नुशिजो यदाविथ सखीयतो यदाविथ।

            चकर्थ कारमेभ्यः पृतनासु प्रवन्तवे।

            ते अन्यामन्यां नद्यं सनिष्णत श्रवस्यन्तः सनिष्णत॥ १.१३१.०५

            उतो नो अस्या उषसो जुषेत ह्यर्कस्य बोधि हविषो हवीमभिः स्वर्षाता हवीमभिः।

            यदिन्द्र हन्तवे मृधो वृषा वज्रिञ्चिकेतसि।

            आ मे अस्य वेधसो नवीयसो मन्म श्रुधि नवीयसः॥ १.१३१.०६

            त्वं तमिन्द्र वावृधानो अस्मयुरमित्रयन्तं तुविजात मर्त्यं वज्रेण शूर मर्त्यम्।

            जहि यो नो अघायति शृणुष्व सुश्रवस्तमः।

            रिष्टं न यामन्नप भूतु दुर्मतिर्विश्वाप भूतु दुर्मतिः॥ १.१३१.०७


            त्वया वयं मघवन्पूर्व्ये धन इन्द्रत्वोताः सासह्याम पृतन्यतो वनुयाम वनुष्यतः।

            नेदिष्ठे अस्मिन्नहन्यधि वोचा नु सुन्वते।

            अस्मिन्यज्ञे वि चयेमा भरे कृतं वाजयन्तो भरे कृतम्॥ १.१३२.०१

            स्वर्जेषे भर आप्रस्य वक्मन्युषर्बुधः स्वस्मिन्नञ्जसि क्राणस्य स्वस्मिन्नञ्जसि।

            अहन्निन्द्रो यथा विदे शीर्ष्णाशीर्ष्णोपवाच्यः।

            अस्मत्रा ते सध्र्यक्सन्तु रातयो भद्रा भद्रस्य रातयः॥ १.१३२.०२

            तत्तु प्रयः प्रत्नथा ते शुशुक्वनं यस्मिन्यज्ञे वारमकृण्वत क्षयमृतस्य वारसि क्षयम्।

            वि तद्वोचेरध द्वितान्तः पश्यन्ति रश्मिभिः।

            स घा विदे अन्विन्द्रो गवेषणो बन्धुक्षिद्भ्यो गवेषणः॥ १.१३२.०३

            नू इत्था ते पूर्वथा च प्रवाच्यं यदङ्गिरोभ्योऽवृणोरप व्रजमिन्द्र शिक्षन्नप व्रजम्।

            ऐभ्यः समान्या दिशास्मभ्यं जेषि योत्सि च।

            सुन्वद्भ्यो रन्धया कं चिदव्रतं हृणायन्तं चिदव्रतम्॥ १.१३२.०४

            सं यज्जनान्क्रतुभिः शूर ईक्षयद्धने हिते तरुषन्त श्रवस्यवः प्र यक्षन्त श्रवस्यवः।

            तस्मा आयुः प्रजावदिद्बाधे अर्चन्त्योजसा।

            इन्द्र ओक्यं दिधिषन्त धीतयो देवाँ अच्छा न धीतयः॥ १.१३२.०५

            युवं तमिन्द्रापर्वता पुरोयुधा यो नः पृतन्यादप तंतमिद्धतं वज्रेण तंतमिद्धतम्।

            दूरे चत्ताय च्छन्त्सद्गहनं यदिनक्षत्।

            अस्माकं शत्रून्परि शूर विश्वतो दर्मा दर्षीष्ट विश्वतः॥ १.१३२.०६


            उभे पुनामि रोदसी ऋतेन द्रुहो दहामि सं महीरनिन्द्राः।

            अभिव्लग्य यत्र हता अमित्रा वैलस्थानं परि तृळ्हा अशेरन्॥ १.१३३.०१

            अभिव्लग्या चिदद्रिवः शीर्षा यातुमतीनाम्।

            छिन्धि वटूरिणा पदा महावटूरिणा पदा॥ १.१३३.०२

            अवासां मघवञ्जहि शर्धो यातुमतीनाम्।

            वैलस्थानके अर्मके महावैलस्थे अर्मके॥ १.१३३.०३

            यासां तिस्रः पञ्चाशतोऽभिव्लङ्गैरपावपः।

            तत्सु ते मनायति तकत्सु ते मनायति॥ १.१३३.०४

            पिशङ्गभृष्टिमम्भृणं पिशाचिमिन्द्र सं मृण।

            सर्वं रक्षो नि बर्हय॥ १.१३३.०५

            अवर्मह इन्द्र दादृहि श्रुधी नः शुशोच हि द्यौः क्षा न भीषाँ अद्रिवो घृणान्न भीषाँ अद्रिवः।

            शुष्मिन्तमो हि शुष्मिभिर्वधैरुग्रेभिरीयसे।

            अपूरुषघ्नो अप्रतीत शूर सत्वभिस्त्रिसप्तैः शूर सत्वभिः॥ १.१३३.०६

            वनोति हि सुन्वन्क्षयं परीणसः सुन्वानो हि ष्मा यजत्यव द्विषो देवानामव द्विषः।

            सुन्वान इत्सिषासति सहस्रा वाज्यवृतः।

            सुन्वानायेन्द्रो ददात्याभुवं रयिं ददात्याभुवम्॥ १.१३३.०७


            आ त्वा जुवो रारहाणा अभि प्रयो वायो वहन्त्विह पूर्वपीतये सोमस्य पूर्वपीतये।

            ऊर्ध्वा ते अनु सूनृता मनस्तिष्ठतु जानती।

            नियुत्वता रथेना याहि दावने वायो मखस्य दावने॥ १.१३४.०१

            मन्दन्तु त्वा मन्दिनो वायविन्दवोऽस्मत्क्राणासः सुकृता अभिद्यवो गोभिः क्राणा अभिद्यवः।

            यद्ध क्राणा इरध्यै दक्षं सचन्त ऊतयः।

            सध्रीचीना नियुतो दावने धिय उप ब्रुवत ईं धियः॥ १.१३४.०२

            वायुर्युङ्क्ते रोहिता वायुररुणा वायू रथे अजिरा धुरि वोळ्हवे वहिष्ठा धुरि वोळ्हवे।

            प्र बोधया पुरंधिं जार आ ससतीमिव।

            प्र चक्षय रोदसी वासयोषसः श्रवसे वासयोषसः॥ १.१३४.०३

            तुभ्यमुषासः शुचयः परावति भद्रा वस्त्रा तन्वते दंसु रश्मिषु चित्रा नव्येषु रश्मिषु।

            तुभ्यं धेनुः सबर्दुघा विश्वा वसूनि दोहते।

            अजनयो मरुतो वक्षणाभ्यो दिव आ वक्षणाभ्यः॥ १.१३४.०४

            तुभ्यं शुक्रासः शुचयस्तुरण्यवो मदेषूग्रा इषणन्त भुर्वण्यपामिषन्त भुर्वणि।

            त्वां त्सारी दसमानो भगमीट्टे तक्ववीये।

            त्वं विश्वस्माद्भुवनात्पासि धर्मणासुर्यात्पासि धर्मणा॥ १.१३४.०५

            त्वं नो वायवेषामपूर्व्यः सोमानां प्रथमः पीतिमर्हसि सुतानां पीतिमर्हसि।

            उतो विहुत्मतीनां विशां ववर्जुषीणाम्।

            विश्वा इत्ते धेनवो दुह्र आशिरं घृतं दुह्रत आशिरम्॥ १.१३४.०६


            स्तीर्णं बर्हिरुप नो याहि वीतये सहस्रेण नियुता नियुत्वते शतिनीभिर्नियुत्वते।

            तुभ्यं हि पूर्वपीतये देवा देवाय येमिरे।

            प्र ते सुतासो मधुमन्तो अस्थिरन्मदाय क्रत्वे अस्थिरन्॥ १.१३५.०१

            तुभ्यायं सोमः परिपूतो अद्रिभिः स्पार्हा वसानः परि कोशमर्षति शुक्रा वसानो अर्षति।

            तवायं भाग आयुषु सोमो देवेषु हूयते।

            वह वायो नियुतो याह्यस्मयुर्जुषाणो याह्यस्मयुः॥ १.१३५.०२

            आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वरं सहस्रिणीभिरुप याहि वीतये वायो हव्यानि वीतये।

            तवायं भाग ऋत्वियः सरश्मिः सूर्ये सचा।

            अध्वर्युभिर्भरमाणा अयंसत वायो शुक्रा अयंसत॥ १.१३५.०३

            आ वां रथो नियुत्वान्वक्षदवसेऽभि प्रयांसि सुधितानि वीतये वायो हव्यानि वीतये।

            पिबतं मध्वो अन्धसः पूर्वपेयं हि वां हितम्।

            वायवा चन्द्रेण राधसा गतमिन्द्रश्च राधसा गतम्॥ १.१३५.०४

            आ वां धियो ववृत्युरध्वराँ उपेममिन्दुं मर्मृजन्त वाजिनमाशुमत्यं न वाजिनम्।

            तेषां पिबतमस्मयू आ नो गन्तमिहोत्या।

            इन्द्रवायू सुतानामद्रिभिर्युवं मदाय वाजदा युवम्॥ १.१३५.०५

            इमे वां सोमा अप्स्वा सुता इहाध्वर्युभिर्भरमाणा अयंसत वायो शुक्रा अयंसत।

            एते वामभ्यसृक्षत तिरः पवित्रमाशवः।

            युवायवोऽति रोमाण्यव्यया सोमासो अत्यव्यया॥ १.१३५.०६

            अति वायो ससतो याहि शश्वतो यत्र ग्रावा वदति तत्र गच्छतं गृहमिन्द्रश्च गच्छतम्।

            वि सूनृता ददृशे रीयते घृतमा पूर्णया नियुता याथो अध्वरमिन्द्रश्च याथो अध्वरम्॥ १.१३५.०७

            अत्राह तद्वहेथे मध्व आहुतिं यमश्वत्थमुपतिष्ठन्त जायवोऽस्मे ते सन्तु जायवः।

            साकं गावः सुवते पच्यते यवो न ते वाय उप दस्यन्ति धेनवो नाप दस्यन्ति धेनवः॥ १.१३५.०८

            इमे ये ते सु वायो बाह्वोजसोऽन्तर्नदी ते पतयन्त्युक्षणो महि व्राधन्त उक्षणः।

            धन्वञ्चिद्ये अनाशवो जीराश्चिदगिरौकसः।

            सूर्यस्येव रश्मयो दुर्नियन्तवो हस्तयोर्दुर्नियन्तवः॥ १.१३५.०९


            प्र सु ज्येष्ठं निचिराभ्यां बृहन्नमो हव्यं मतिं भरता मृळयद्भ्यां स्वादिष्ठं मृळयद्भ्याम्।

            ता सम्राजा घृतासुती यज्ञेयज्ञ उपस्तुता।

            अथैनोः क्षत्रं न कुतश्चनाधृषे देवत्वं नू चिदाधृषे॥ १.१३६.०१

            अदर्शि गातुरुरवे वरीयसी पन्था ऋतस्य समयंस्त रश्मिभिश्चक्षुर्भगस्य रश्मिभिः।

            द्युक्षं मित्रस्य सादनमर्यम्णो वरुणस्य च।

            अथा दधाते बृहदुक्थ्यं वय उपस्तुत्यं बृहद्वयः॥ १.१३६.०२

            ज्योतिष्मतीमदितिं धारयत्क्षितिं स्वर्वतीमा सचेते दिवेदिवे जागृवांसा दिवेदिवे।

            ज्योतिष्मत्क्षत्रमाशाते आदित्या दानुनस्पती।

            मित्रस्तयोर्वरुणो यातयज्जनोऽर्यमा यातयज्जनः॥ १.१३६.०३

            अयं मित्राय वरुणाय शंतमः सोमो भूत्ववपानेष्वाभगो देवो देवेष्वाभगः।

            तं देवासो जुषेरत विश्वे अद्य सजोषसः।

            तथा राजाना करथो यदीमह ऋतावाना यदीमहे॥ १.१३६.०४

            यो मित्राय वरुणायाविधज्जनोऽनर्वाणं तं परि पातो अंहसो दाश्वांसं मर्तमंहसः।

            तमर्यमाभि रक्षत्यृजूयन्तमनु व्रतम्।

            उक्थैर्य एनोः परिभूषति व्रतं स्तोमैराभूषति व्रतम्॥ १.१३६.०५

            नमो दिवे बृहते रोदसीभ्यां मित्राय वोचं वरुणाय मीळ्हुषे सुमृळीकाय मीळ्हुषे।

            इन्द्रमग्निमुप स्तुहि द्युक्षमर्यमणं भगम्।

            ज्योग्जीवन्तः प्रजया सचेमहि सोमस्योती सचेमहि॥ १.१३६.०६

            ऊती देवानां वयमिन्द्रवन्तो मंसीमहि स्वयशसो मरुद्भिः।

            अग्निर्मित्रो वरुणः शर्म यंसन्तदश्याम मघवानो वयं च॥ १.१३६.०७


            सुषुमा यातमद्रिभिर्गोश्रीता मत्सरा इमे सोमासो मत्सरा इमे।

            आ राजाना दिविस्पृशास्मत्रा गन्तमुप नः।

            इमे वां मित्रावरुणा गवाशिरः सोमाः शुक्रा गवाशिरः॥ १.१३७.०१

            इम आ यातमिन्दवः सोमासो दध्याशिरः सुतासो दध्याशिरः।

            उत वामुषसो बुधि साकं सूर्यस्य रश्मिभिः।

            सुतो मित्राय वरुणाय पीतये चारुरृताय पीतये॥ १.१३७.०२

            तां वां धेनुं न वासरीमंशुं दुहन्त्यद्रिभिः सोमं दुहन्त्यद्रिभिः।

            अस्मत्रा गन्तमुप नोऽर्वाञ्चा सोमपीतये।

            अयं वां मित्रावरुणा नृभिः सुतः सोम आ पीतये सुतः॥ १.१३७.०३


            प्रप्र पूष्णस्तुविजातस्य शस्यते महित्वमस्य तवसो न तन्दते स्तोत्रमस्य न तन्दते।

            अर्चामि सुम्नयन्नहमन्त्यूतिं मयोभुवम्।

            विश्वस्य यो मन आयुयुवे मखो देव आयुयुवे मखः॥ १.१३८.०१

            प्र हि त्वा पूषन्नजिरं न यामनि स्तोमेभिः कृण्व ऋणवो यथा मृध उष्ट्रो न पीपरो मृधः।

            हुवे यत्त्वा मयोभुवं देवं सख्याय मर्त्यः।

            अस्माकमाङ्गूषान्द्युम्निनस्कृधि वाजेषु द्युम्निनस्कृधि॥ १.१३८.०२

            यस्य ते पूषन्सख्ये विपन्यवः क्रत्वा चित्सन्तोऽवसा बुभुज्रिर इति क्रत्वा बुभुज्रिरे।

            तामनु त्वा नवीयसीं नियुतं राय ईमहे।

            अहेळमान उरुशंस सरी भव वाजेवाजे सरी भव॥ १.१३८.०३

            अस्या ऊ षु ण उप सातये भुवोऽहेळमानो ररिवाँ अजाश्व श्रवस्यतामजाश्व।

            ओ षु त्वा ववृतीमहि स्तोमेभिर्दस्म साधुभिः।

            नहि त्वा पूषन्नतिमन्य आघृणे न ते सख्यमपह्नुवे॥ १.१३८.०४


            अस्तु श्रौषट् पुरो अग्निं धिया दध आ नु तच्छर्धो दिव्यं वृणीमह इन्द्रवायू वृणीमहे।

            यद्ध क्राणा विवस्वति नाभा संदायि नव्यसी।

            अध प्र सू न उप यन्तु धीतयो देवाँ अच्छा न धीतयः॥ १.१३९.०१

            यद्ध त्यन्मित्रावरुणावृतादध्याददाथे अनृतं स्वेन मन्युना दक्षस्य स्वेन मन्युना।

            युवोरित्थाधि सद्मस्वपश्याम हिरण्ययम्।

            धीभिश्चन मनसा स्वेभिरक्षभिः सोमस्य स्वेभिरक्षभिः॥ १.१३९.०२

            युवां स्तोमेभिर्देवयन्तो अश्विनाश्रावयन्त इव श्लोकमायवो युवां हव्याभ्यायवः।

            युवोर्विश्वा अधि श्रियः पृक्षश्च विश्ववेदसा।

            प्रुषायन्ते वां पवयो हिरण्यये रथे दस्रा हिरण्यये॥ १.१३९.०३

            अचेति दस्रा व्यु नाकमृण्वथो युञ्जते वां रथयुजो दिविष्टिष्वध्वस्मानो दिविष्टिषु।

            अधि वां स्थाम वन्धुरे रथे दस्रा हिरण्यये।

            पथेव यन्तावनुशासता रजोऽञ्जसा शासता रजः॥ १.१३९.०४

            शचीभिर्नः शचीवसू दिवा नक्तं दशस्यतम्।

            मा वां रातिरुप दसत्कदा चनास्मद्रातिः कदा चन॥ १.१३९.०५

            वृषन्निन्द्र वृषपाणास इन्दव इमे सुता अद्रिषुतास उद्भिदस्तुभ्यं सुतास उद्भिदः।

            ते त्वा मन्दन्तु दावने महे चित्राय राधसे।

            गीर्भिर्गिर्वाहः स्तवमान आ गहि सुमृळीको न आ गहि॥ १.१३९.०६

            ओ षू णो अग्ने शृणुहि त्वमीळितो देवेभ्यो ब्रवसि यज्ञियेभ्यो राजभ्यो यज्ञियेभ्यः।

            यद्ध त्यामङ्गिरोभ्यो धेनुं देवा अदत्तन।

            वि तां दुह्रे अर्यमा कर्तरी सचाँ एष तां वेद मे सचा॥ १.१३९.०७

            मो षु वो अस्मदभि तानि पौंस्या सना भूवन्द्युम्नानि मोत जारिषुरस्मत्पुरोत जारिषुः।

            यद्वश्चित्रं युगेयुगे नव्यं घोषादमर्त्यम्।

            अस्मासु तन्मरुतो यच्च दुष्टरं दिधृता यच्च दुष्टरम्॥ १.१३९.०८

            दध्यङ्ह मे जनुषं पूर्वो अङ्गिराः प्रियमेधः कण्वो अत्रिर्मनुर्विदुस्ते मे पूर्वे मनुर्विदुः।

            तेषां देवेष्वायतिरस्माकं तेषु नाभयः।

            तेषां पदेन मह्या नमे गिरेन्द्राग्नी आ नमे गिरा॥ १.१३९.०९

            होता यक्षद्वनिनो वन्त वार्यं बृहस्पतिर्यजति वेन उक्षभिः पुरुवारेभिरुक्षभिः।

            जगृभ्मा दूरआदिशं श्लोकमद्रेरध त्मना।

            अधारयदररिन्दानि सुक्रतुः पुरू सद्मानि सुक्रतुः॥ १.१३९.१०

            ये देवासो दिव्येकादश स्थ पृथिव्यामध्येकादश स्थ।

            अप्सुक्षितो महिनैकादश स्थ ते देवासो यज्ञमिमं जुषध्वम्॥ १.१३९.११


            वेदिषदे प्रियधामाय सुद्युते धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये।

            वस्त्रेणेव वासया मन्मना शुचिं ज्योतीरथं शुक्रवर्णं तमोहनम्॥ १.१४०.०१

            अभि द्विजन्मा त्रिवृदन्नमृज्यते संवत्सरे वावृधे जग्धमी पुनः।

            अन्यस्यासा जिह्वया जेन्यो वृषा न्यन्येन वनिनो मृष्ट वारणः॥ १.१४०.०२

            कृष्णप्रुतौ वेविजे अस्य सक्षिता उभा तरेते अभि मातरा शिशुम्।

            प्राचाजिह्वं ध्वसयन्तं तृषुच्युतमा साच्यं कुपयं वर्धनं पितुः॥ १.१४०.०३

            मुमुक्ष्वो मनवे मानवस्यते रघुद्रुवः कृष्णसीतास ऊ जुवः।

            असमना अजिरासो रघुष्यदो वातजूता उप युज्यन्त आशवः॥ १.१४०.०४

            आदस्य ते ध्वसयन्तो वृथेरते कृष्णमभ्वं महि वर्पः करिक्रतः।

            यत्सीं महीमवनिं प्राभि मर्मृशदभिश्वसन्स्तनयन्नेति नानदत्॥ १.१४०.०५

            भूषन्न योऽधि बभ्रूषु नम्नते वृषेव पत्नीरभ्येति रोरुवत्।

            ओजायमानस्तन्वश्च शुम्भते भीमो न शृङ्गा दविधाव दुर्गृभिः॥ १.१४०.०६

            स संस्तिरो विष्टिरः सं गृभायति जानन्नेव जानतीर्नित्य आ शये।

            पुनर्वर्धन्ते अपि यन्ति देव्यमन्यद्वर्पः पित्रोः कृण्वते सचा॥ १.१४०.०७

            तमग्रुवः केशिनीः सं हि रेभिर ऊर्ध्वास्तस्थुर्मम्रुषीः प्रायवे पुनः।

            तासां जरां प्रमुञ्चन्नेति नानददसुं परं जनयञ्जीवमस्तृतम्॥ १.१४०.०८

            अधीवासं परि मातू रिहन्नह तुविग्रेभिः सत्वभिर्याति वि ज्रयः।

            वयो दधत्पद्वते रेरिहत्सदानु श्येनी सचते वर्तनीरह॥ १.१४०.०९

            अस्माकमग्ने मघवत्सु दीदिह्यध श्वसीवान्वृषभो दमूनाः।

            अवास्या शिशुमतीरदीदेर्वर्मेव युत्सु परिजर्भुराणः॥ १.१४०.१०

            इदमग्ने सुधितं दुर्धितादधि प्रियादु चिन्मन्मनः प्रेयो अस्तु ते।

            यत्ते शुक्रं तन्वो रोचते शुचि तेनास्मभ्यं वनसे रत्नमा त्वम्॥ १.१४०.११

            रथाय नावमुत नो गृहाय नित्यारित्रां पद्वतीं रास्यग्ने।

            अस्माकं वीराँ उत नो मघोनो जनाँश्च या पारयाच्छर्म या च॥ १.१४०.१२

            अभी नो अग्न उक्थमिज्जुगुर्या द्यावाक्षामा सिन्धवश्च स्वगूर्ताः।

            गव्यं यव्यं यन्तो दीर्घाहेषं वरमरुण्यो वरन्त॥ १.१४०.१३


            बळित्था तद्वपुषे धायि दर्शतं देवस्य भर्गः सहसो यतो जनि।

            यदीमुप ह्वरते साधते मतिरृतस्य धेना अनयन्त सस्रुतः॥ १.१४१.०१

            पृक्षो वपुः पितुमान्नित्य आ शये द्वितीयमा सप्तशिवासु मातृषु।

            तृतीयमस्य वृषभस्य दोहसे दशप्रमतिं जनयन्त योषणः॥ १.१४१.०२

            निर्यदीं बुध्नान्महिषस्य वर्पस ईशानासः शवसा क्रन्त सूरयः।

            यदीमनु प्रदिवो मध्व आधवे गुहा सन्तं मातरिश्वा मथायति॥ १.१४१.०३

            प्र यत्पितुः परमान्नीयते पर्या पृक्षुधो वीरुधो दंसु रोहति।

            उभा यदस्य जनुषं यदिन्वत आदिद्यविष्ठो अभवद्घृणा शुचिः॥ १.१४१.०४

            आदिन्मातॄराविशद्यास्वा शुचिरहिंस्यमान उर्विया वि वावृधे।

            अनु यत्पूर्वा अरुहत्सनाजुवो नि नव्यसीष्ववरासु धावते॥ १.१४१.०५

            आदिद्धोतारं वृणते दिविष्टिषु भगमिव पपृचानास ऋञ्जते।

            देवान्यत्क्रत्वा मज्मना पुरुष्टुतो मर्तं शंसं विश्वधा वेति धायसे॥ १.१४१.०६

            वि यदस्थाद्यजतो वातचोदितो ह्वारो न वक्वा जरणा अनाकृतः।

            तस्य पत्मन्दक्षुषः कृष्णजंहसः शुचिजन्मनो रज आ व्यध्वनः॥ १.१४१.०७

            रथो न यातः शिक्वभिः कृतो द्यामङ्गेभिररुषेभिरीयते।

            आदस्य ते कृष्णासो दक्षि सूरयः शूरस्येव त्वेषथादीषते वयः॥ १.१४१.०८

            त्वया ह्यग्ने वरुणो धृतव्रतो मित्रः शाशद्रे अर्यमा सुदानवः।

            यत्सीमनु क्रतुना विश्वथा विभुररान्न नेमिः परिभूरजायथाः॥ १.१४१.०९

            त्वमग्ने शशमानाय सुन्वते रत्नं यविष्ठ देवतातिमिन्वसि।

            तं त्वा नु नव्यं सहसो युवन्वयं भगं न कारे महिरत्न धीमहि॥ १.१४१.१०

            अस्मे रयिं न स्वर्थं दमूनसं भगं दक्षं न पपृचासि धर्णसिम्।

            रश्मीँरिव यो यमति जन्मनी उभे देवानां शंसमृत आ च सुक्रतुः॥ १.१४१.११

            उत नः सुद्योत्मा जीराश्वो होता मन्द्रः शृणवच्चन्द्ररथः।

            स नो नेषन्नेषतमैरमूरोऽग्निर्वामं सुवितं वस्यो अच्छ॥ १.१४१.१२

            अस्ताव्यग्निः शिमीवद्भिरर्कैः साम्राज्याय प्रतरं दधानः।

            अमी च ये मघवानो वयं च मिहं न सूरो अति निष्टतन्युः॥ १.१४१.१३


            समिद्धो अग्न आ वह देवाँ अद्य यतस्रुचे।

            तन्तुं तनुष्व पूर्व्यं सुतसोमाय दाशुषे॥ १.१४२.०१

            घृतवन्तमुप मासि मधुमन्तं तनूनपात्।

            यज्ञं विप्रस्य मावतः शशमानस्य दाशुषः॥ १.१४२.०२

            शुचिः पावको अद्भुतो मध्वा यज्ञं मिमिक्षति।

            नराशंसस्त्रिरा दिवो देवो देवेषु यज्ञियः॥ १.१४२.०३

            ईळितो अग्न आ वहेन्द्रं चित्रमिह प्रियम्।

            इयं हि त्वा मतिर्ममाच्छा सुजिह्व वच्यते॥ १.१४२.०४

            स्तृणानासो यतस्रुचो बर्हिर्यज्ञे स्वध्वरे।

            वृञ्जे देवव्यचस्तममिन्द्राय शर्म सप्रथः॥ १.१४२.०५

            वि श्रयन्तामृतावृधः प्रयै देवेभ्यो महीः।

            पावकासः पुरुस्पृहो द्वारो देवीरसश्चतः॥ १.१४२.०६

            आ भन्दमाने उपाके नक्तोषासा सुपेशसा।

            यह्वी ऋतस्य मातरा सीदतां बर्हिरा सुमत्॥ १.१४२.०७

            मन्द्रजिह्वा जुगुर्वणी होतारा दैव्या कवी।

            यज्ञं नो यक्षतामिमं सिध्रमद्य दिविस्पृशम्॥ १.१४२.०८

            शुचिर्देवेष्वर्पिता होत्रा मरुत्सु भारती।

            इळा सरस्वती मही बर्हिः सीदन्तु यज्ञियाः॥ १.१४२.०९

            तन्नस्तुरीपमद्भुतं पुरु वारं पुरु त्मना।

            त्वष्टा पोषाय वि ष्यतु राये नाभा नो अस्मयुः॥ १.१४२.१०

            अवसृजन्नुप त्मना देवान्यक्षि वनस्पते।

            अग्निर्हव्या सुषूदति देवो देवेषु मेधिरः॥ १.१४२.११

            पूषण्वते मरुत्वते विश्वदेवाय वायवे।

            स्वाहा गायत्रवेपसे हव्यमिन्द्राय कर्तन॥ १.१४२.१२

            स्वाहाकृतान्या गह्युप हव्यानि वीतये।

            इन्द्रा गहि श्रुधी हवं त्वां हवन्ते अध्वरे॥ १.१४२.१३


            प्र तव्यसीं नव्यसीं धीतिमग्नये वाचो मतिं सहसः सूनवे भरे।

            अपां नपाद्यो वसुभिः सह प्रियो होता पृथिव्यां न्यसीददृत्वियः॥ १.१४३.०१

            स जायमानः परमे व्योमन्याविरग्निरभवन्मातरिश्वने।

            अस्य क्रत्वा समिधानस्य मज्मना प्र द्यावा शोचिः पृथिवी अरोचयत्॥ १.१४३.०२

            अस्य त्वेषा अजरा अस्य भानवः सुसंदृशः सुप्रतीकस्य सुद्युतः।

            भात्वक्षसो अत्यक्तुर्न सिन्धवोऽग्ने रेजन्ते अससन्तो अजराः॥ १.१४३.०३

            यमेरिरे भृगवो विश्ववेदसं नाभा पृथिव्या भुवनस्य मज्मना।

            अग्निं तं गीर्भिर्हिनुहि स्व आ दमे य एको वस्वो वरुणो न राजति॥ १.१४३.०४

            न यो वराय मरुतामिव स्वनः सेनेव सृष्टा दिव्या यथाशनिः।

            अग्निर्जम्भैस्तिगितैरत्ति भर्वति योधो न शत्रून्स वना न्यृञ्जते॥ १.१४३.०५

            कुविन्नो अग्निरुचथस्य वीरसद्वसुष्कुविद्वसुभिः काममावरत्।

            चोदः कुवित्तुतुज्यात्सातये धियः शुचिप्रतीकं तमया धिया गृणे॥ १.१४३.०६

            घृतप्रतीकं व ऋतस्य धूर्षदमग्निं मित्रं न समिधान ऋञ्जते।

            इन्धानो अक्रो विदथेषु दीद्यच्छुक्रवर्णामुदु नो यंसते धियम्॥ १.१४३.०७

            अप्रयुच्छन्नप्रयुच्छद्भिरग्ने शिवेभिर्नः पायुभिः पाहि शग्मैः।

            अदब्धेभिरदृपितेभिरिष्टेऽनिमिषद्भिः परि पाहि नो जाः॥ १.१४३.०८


            एति प्र होता व्रतमस्य माययोर्ध्वां दधानः शुचिपेशसं धियम्।

            अभि स्रुचः क्रमते दक्षिणावृतो या अस्य धाम प्रथमं ह निंसते॥ १.१४४.०१

            अभीमृतस्य दोहना अनूषत योनौ देवस्य सदने परीवृताः।

            अपामुपस्थे विभृतो यदावसदध स्वधा अधयद्याभिरीयते॥ १.१४४.०२

            युयूषतः सवयसा तदिद्वपुः समानमर्थं वितरित्रता मिथः।

            आदीं भगो न हव्यः समस्मदा वोळ्हुर्न रश्मीन्समयंस्त सारथिः॥ १.१४४.०३

            यमीं द्वा सवयसा सपर्यतः समाने योना मिथुना समोकसा।

            दिवा न नक्तं पलितो युवाजनि पुरू चरन्नजरो मानुषा युगा॥ १.१४४.०४

            तमीं हिन्वन्ति धीतयो दश व्रिशो देवं मर्तास ऊतये हवामहे।

            धनोरधि प्रवत आ स ऋण्वत्यभिव्रजद्भिर्वयुना नवाधित॥ १.१४४.०५

            त्वं ह्यग्ने दिव्यस्य राजसि त्वं पार्थिवस्य पशुपा इव त्मना।

            एनी त एते बृहती अभिश्रिया हिरण्ययी वक्वरी बर्हिराशाते॥ १.१४४.०६

            अग्ने जुषस्व प्रति हर्य तद्वचो मन्द्र स्वधाव ऋतजात सुक्रतो।

            यो विश्वतः प्रत्यङ्ङसि दर्शतो रण्वः संदृष्टौ पितुमाँ इव क्षयः॥ १.१४४.०७


            तं पृच्छता स जगामा स वेद स चिकित्वाँ ईयते सा न्वीयते।

            तस्मिन्सन्ति प्रशिषस्तस्मिन्निष्टयः स वाजस्य शवसः शुष्मिणस्पतिः॥ १.१४५.०१

            तमित्पृच्छन्ति न सिमो वि पृच्छति स्वेनेव धीरो मनसा यदग्रभीत्।

            न मृष्यते प्रथमं नापरं वचोऽस्य क्रत्वा सचते अप्रदृपितः॥ १.१४५.०२

            तमिद्गच्छन्ति जुह्वस्तमर्वतीर्विश्वान्येकः शृणवद्वचांसि मे।

            पुरुप्रैषस्ततुरिर्यज्ञसाधनोऽच्छिद्रोतिः शिशुरादत्त सं रभः॥ १.१४५.०३

            उपस्थायं चरति यत्समारत सद्यो जातस्तत्सार युज्येभिः।

            अभि श्वान्तं मृशते नान्द्ये मुदे यदीं गच्छन्त्युशतीरपिष्ठितम्॥ १.१४५.०४

            स ईं मृगो अप्यो वनर्गुरुप त्वच्युपमस्यां नि धायि।

            व्यब्रवीद्वयुना मर्त्येभ्योऽग्निर्विद्वाँ ऋतचिद्धि सत्यः॥ १.१४५.०५


            त्रिमूर्धानं सप्तरश्मिं गृणीषेऽनूनमग्निं पित्रोरुपस्थे।

            निषत्तमस्य चरतो ध्रुवस्य विश्वा दिवो रोचनापप्रिवांसम्॥ १.१४६.०१

            उक्षा महाँ अभि ववक्ष एने अजरस्तस्थावितऊतिरृष्वः।

            उर्व्याः पदो नि दधाति सानौ रिहन्त्यूधो अरुषासो अस्य॥ १.१४६.०२

            समानं वत्समभि संचरन्ती विष्वग्धेनू वि चरतः सुमेके।

            अनपवृज्याँ अध्वनो मिमाने विश्वान्केताँ अधि महो दधाने॥ १.१४६.०३

            धीरासः पदं कवयो नयन्ति नाना हृदा रक्षमाणा अजुर्यम्।

            सिषासन्तः पर्यपश्यन्त सिन्धुमाविरेभ्यो अभवत्सूर्यो नॄन्॥ १.१४६.०४

            दिदृक्षेण्यः परि काष्ठासु जेन्य ईळेन्यो महो अर्भाय जीवसे।

            पुरुत्रा यदभवत्सूरहैभ्यो गर्भेभ्यो मघवा विश्वदर्शतः॥ १.१४६.०५


            कथा ते अग्ने शुचयन्त आयोर्ददाशुर्वाजेभिराशुषाणाः।

            उभे यत्तोके तनये दधाना ऋतस्य सामन्रणयन्त देवाः॥ १.१४७.०१

            बोधा मे अस्य वचसो यविष्ठ मंहिष्ठस्य प्रभृतस्य स्वधावः।

            पीयति त्वो अनु त्वो गृणाति वन्दारुस्ते तन्वं वन्दे अग्ने॥ १.१४७.०२

            ये पायवो मामतेयं ते अग्ने पश्यन्तो अन्धं दुरितादरक्षन्।

            ररक्ष तान्सुकृतो विश्ववेदा दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः॥ १.१४७.०३

            यो नो अग्ने अररिवाँ अघायुररातीवा मर्चयति द्वयेन।

            मन्त्रो गुरुः पुनरस्तु सो अस्मा अनु मृक्षीष्ट तन्वं दुरुक्तैः॥ १.१४७.०४

            उत वा यः सहस्य प्रविद्वान्मर्तो मर्तं मर्चयति द्वयेन।

            अतः पाहि स्तवमान स्तुवन्तमग्ने माकिर्नो दुरिताय धायीः॥ १.१४७.०५


            मथीद्यदीं विष्टो मातरिश्वा होतारं विश्वाप्सुं विश्वदेव्यम्।

            नि यं दधुर्मनुष्यासु विक्षु स्वर्ण चित्रं वपुषे विभावम्॥ १.१४८.०१

            ददानमिन्न ददभन्त मन्माग्निर्वरूथं मम तस्य चाकन्।

            जुषन्त विश्वान्यस्य कर्मोपस्तुतिं भरमाणस्य कारोः॥ १.१४८.०२

            नित्ये चिन्नु यं सदने जगृभ्रे प्रशस्तिभिर्दधिरे यज्ञियासः।

            प्र सू नयन्त गृभयन्त इष्टावश्वासो न रथ्यो रारहाणाः॥ १.१४८.०३

            पुरूणि दस्मो नि रिणाति जम्भैराद्रोचते वन आ विभावा।

            आदस्य वातो अनु वाति शोचिरस्तुर्न शर्यामसनामनु द्यून्॥ १.१४८.०४

            न यं रिपवो न रिषण्यवो गर्भे सन्तं रेषणा रेषयन्ति।

            अन्धा अपश्या न दभन्नभिख्या नित्यास ईं प्रेतारो अरक्षन्॥ १.१४८.०५


            महः स राय एषते पतिर्दन्निन इनस्य वसुनः पद आ।

            उप ध्रजन्तमद्रयो विधन्नित्॥ १.१४९.०१

            स यो वृषा नरां न रोदस्योः श्रवोभिरस्ति जीवपीतसर्गः।

            प्र यः सस्राणः शिश्रीत योनौ॥ १.१४९.०२

            आ यः पुरं नार्मिणीमदीदेदत्यः कविर्नभन्यो नार्वा।

            सूरो न रुरुक्वाञ्छतात्मा॥ १.१४९.०३

            अभि द्विजन्मा त्री रोचनानि विश्वा रजांसि शुशुचानो अस्थात्।

            होता यजिष्ठो अपां सधस्थे॥ १.१४९.०४

            अयं स होता यो द्विजन्मा विश्वा दधे वार्याणि श्रवस्या।

            मर्तो यो अस्मै सुतुको ददाश॥ १.१४९.०५


            पुरु त्वा दाश्वान्वोचेऽरिरग्ने तव स्विदा।

            तोदस्येव शरण आ महस्य॥ १.१५०.०१

            व्यनिनस्य धनिनः प्रहोषे चिदररुषः।

            कदा चन प्रजिगतो अदेवयोः॥ १.१५०.०२

            स चन्द्रो विप्र मर्त्यो महो व्राधन्तमो दिवि।

            प्रप्रेत्ते अग्ने वनुषः स्याम॥ १.१५०.०३


            मित्रं न यं शिम्या गोषु गव्यवः स्वाध्यो विदथे अप्सु जीजनन्।

            अरेजेतां रोदसी पाजसा गिरा प्रति प्रियं यजतं जनुषामवः॥ १.१५१.०१

            यद्ध त्यद्वां पुरुमीळ्हस्य सोमिनः प्र मित्रासो न दधिरे स्वाभुवः।

            अध क्रतुं विदतं गातुमर्चत उत श्रुतं वृषणा पस्त्यावतः॥ १.१५१.०२

            आ वां भूषन्क्षितयो जन्म रोदस्योः प्रवाच्यं वृषणा दक्षसे महे।

            यदीमृताय भरथो यदर्वते प्र होत्रया शिम्या वीथो अध्वरम्॥ १.१५१.०३

            प्र सा क्षितिरसुर या महि प्रिय ऋतावानावृतमा घोषथो बृहत्।

            युवं दिवो बृहतो दक्षमाभुवं गां न धुर्युप युञ्जाथे अपः॥ १.१५१.०४

            मही अत्र महिना वारमृण्वथोऽरेणवस्तुज आ सद्मन्धेनवः।

            स्वरन्ति ता उपरताति सूर्यमा निम्रुच उषसस्तक्ववीरिव॥ १.१५१.०५

            आ वामृताय केशिनीरनूषत मित्र यत्र वरुण गातुमर्चथः।

            अव त्मना सृजतं पिन्वतं धियो युवं विप्रस्य मन्मनामिरज्यथः॥ १.१५१.०६

            यो वां यज्ञैः शशमानो ह दाशति कविर्होता यजति मन्मसाधनः।

            उपाह तं गच्छथो वीथो अध्वरमच्छा गिरः सुमतिं गन्तमस्मयू॥ १.१५१.०७

            युवां यज्ञैः प्रथमा गोभिरञ्जत ऋतावाना मनसो न प्रयुक्तिषु।

            भरन्ति वां मन्मना संयता गिरोऽदृप्यता मनसा रेवदाशाथे॥ १.१५१.०८

            रेवद्वयो दधाथे रेवदाशाथे नरा मायाभिरितऊति माहिनम्।

            न वां द्यावोऽहभिर्नोत सिन्धवो न देवत्वं पणयो नानशुर्मघम्॥ १.१५१.०९


            युवं वस्त्राणि पीवसा वसाथे युवोरच्छिद्रा मन्तवो ह सर्गाः।

            अवातिरतमनृतानि विश्व ऋतेन मित्रावरुणा सचेथे॥ १.१५२.०१

            एतच्चन त्वो वि चिकेतदेषां सत्यो मन्त्रः कविशस्त ऋघावान्।

            त्रिरश्रिं हन्ति चतुरश्रिरुग्रो देवनिदो ह प्रथमा अजूर्यन्॥ १.१५२.०२

            अपादेति प्रथमा पद्वतीनां कस्तद्वां मित्रावरुणा चिकेत।

            गर्भो भारं भरत्या चिदस्य ऋतं पिपर्त्यनृतं नि तारीत्॥ १.१५२.०३

            प्रयन्तमित्परि जारं कनीनां पश्यामसि नोपनिपद्यमानम्।

            अनवपृग्णा वितता वसानं प्रियं मित्रस्य वरुणस्य धाम॥ १.१५२.०४

            अनश्वो जातो अनभीशुरर्वा कनिक्रदत्पतयदूर्ध्वसानुः।

            अचित्तं ब्रह्म जुजुषुर्युवानः प्र मित्रे धाम वरुणे गृणन्तः॥ १.१५२.०५

            आ धेनवो मामतेयमवन्तीर्ब्रह्मप्रियं पीपयन्सस्मिन्नूधन्।

            पित्वो भिक्षेत वयुनानि विद्वानासाविवासन्नदितिमुरुष्येत्॥ १.१५२.०६

            आ वां मित्रावरुणा हव्यजुष्टिं नमसा देवाववसा ववृत्याम्।

            अस्माकं ब्रह्म पृतनासु सह्या अस्माकं वृष्टिर्दिव्या सुपारा॥ १.१५२.०७


            यजामहे वां महः सजोषा हव्येभिर्मित्रावरुणा नमोभिः।

            घृतैर्घृतस्नू अध यद्वामस्मे अध्वर्यवो न धीतिभिर्भरन्ति॥ १.१५३.०१

            प्रस्तुतिर्वां धाम न प्रयुक्तिरयामि मित्रावरुणा सुवृक्तिः।

            अनक्ति यद्वां विदथेषु होता सुम्नं वां सूरिर्वृषणावियक्षन्॥ १.१५३.०२

            पीपाय धेनुरदितिरृताय जनाय मित्रावरुणा हविर्दे।

            हिनोति यद्वां विदथे सपर्यन्स रातहव्यो मानुषो न होता॥ १.१५३.०३

            उत वां विक्षु मद्यास्वन्धो गाव आपश्च पीपयन्त देवीः।

            उतो नो अस्य पूर्व्यः पतिर्दन्वीतं पातं पयस उस्रियायाः॥ १.१५३.०४


            विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि।

            यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः॥ १.१५४.०१

            प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः।

            यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा॥ १.१५४.०२

            प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म गिरिक्षित उरुगायाय वृष्णे।

            य इदं दीर्घं प्रयतं सधस्थमेको विममे त्रिभिरित्पदेभिः॥ १.१५४.०३

            यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्यक्षीयमाणा स्वधया मदन्ति।

            य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा॥ १.१५४.०४

            तदस्य प्रियमभि पाथो अश्यां नरो यत्र देवयवो मदन्ति।

            उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः॥ १.१५४.०५

            ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।

            अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि॥ १.१५४.०६


            प्र वः पान्तमन्धसो धियायते महे शूराय विष्णवे चार्चत।

            या सानुनि पर्वतानामदाभ्या महस्तस्थतुरर्वतेव साधुना॥ १.१५५.०१

            त्वेषमित्था समरणं शिमीवतोरिन्द्राविष्णू सुतपा वामुरुष्यति।

            या मर्त्याय प्रतिधीयमानमित्कृशानोरस्तुरसनामुरुष्यथः॥ १.१५५.०२

            ता ईं वर्धन्ति मह्यस्य पौंस्यं नि मातरा नयति रेतसे भुजे।

            दधाति पुत्रोऽवरं परं पितुर्नाम तृतीयमधि रोचने दिवः॥ १.१५५.०३

            तत्तदिदस्य पौंस्यं गृणीमसीनस्य त्रातुरवृकस्य मीळ्हुषः।

            यः पार्थिवानि त्रिभिरिद्विगामभिरुरु क्रमिष्टोरुगायाय जीवसे॥ १.१५५.०४

            द्वे इदस्य क्रमणे स्वर्दृशोऽभिख्याय मर्त्यो भुरण्यति।

            तृतीयमस्य नकिरा दधर्षति वयश्चन पतयन्तः पतत्रिणः॥ १.१५५.०५

            चतुर्भिः साकं नवतिं च नामभिश्चक्रं न वृत्तं व्यतीँरवीविपत्।

            बृहच्छरीरो विमिमान ऋक्वभिर्युवाकुमारः प्रत्येत्याहवम्॥ १.१५५.०६


            भवा मित्रो न शेव्यो घृतासुतिर्विभूतद्युम्न एवया उ सप्रथाः।

            अधा ते विष्णो विदुषा चिदर्ध्यः स्तोमो यज्ञश्च राध्यो हविष्मता॥ १.१५६.०१

            यः पूर्व्याय वेधसे नवीयसे सुमज्जानये विष्णवे ददाशति।

            यो जातमस्य महतो महि ब्रवत्सेदु श्रवोभिर्युज्यं चिदभ्यसत्॥ १.१५६.०२

            तमु स्तोतारः पूर्व्यं यथा विद ऋतस्य गर्भं जनुषा पिपर्तन।

            आस्य जानन्तो नाम चिद्विवक्तन महस्ते विष्णो सुमतिं भजामहे॥ १.१५६.०३

            तमस्य राजा वरुणस्तमश्विना क्रतुं सचन्त मारुतस्य वेधसः।

            दाधार दक्षमुत्तममहर्विदं व्रजं च विष्णुः सखिवाँ अपोर्णुते॥ १.१५६.०४

            आ यो विवाय सचथाय दैव्य इन्द्राय विष्णुः सुकृते सुकृत्तरः।

            वेधा अजिन्वत्त्रिषधस्थ आर्यमृतस्य भागे यजमानमाभजत्॥ १.१५६.०५


            अबोध्यग्निर्ज्म उदेति सूर्यो व्युषाश्चन्द्रा मह्यावो अर्चिषा।

            आयुक्षातामश्विना यातवे रथं प्रासावीद्देवः सविता जगत्पृथक्॥ १.१५७.०१

            यद्युञ्जाथे वृषणमश्विना रथं घृतेन नो मधुना क्षत्रमुक्षतम्।

            अस्माकं ब्रह्म पृतनासु जिन्वतं वयं धना शूरसाता भजेमहि॥ १.१५७.०२

            अर्वाङ्त्रिचक्रो मधुवाहनो रथो जीराश्वो अश्विनोर्यातु सुष्टुतः।

            त्रिवन्धुरो मघवा विश्वसौभगः शं न आ वक्षद्द्विपदे चतुष्पदे॥ १.१५७.०३

            आ न ऊर्जं वहतमश्विना युवं मधुमत्या नः कशया मिमिक्षतम्।

            प्रायुस्तारिष्टं नी रपांसि मृक्षतं सेधतं द्वेषो भवतं सचाभुवा॥ १.१५७.०४

            युवं ह गर्भं जगतीषु धत्थो युवं विश्वेषु भुवनेष्वन्तः।

            युवमग्निं च वृषणावपश्च वनस्पतीँरश्विनावैरयेथाम्॥ १.१५७.०५

            युवं ह स्थो भिषजा भेषजेभिरथो ह स्थो रथ्या राथ्येभिः।

            अथो ह क्षत्रमधि धत्थ उग्रा यो वां हविष्मान्मनसा ददाश॥ १.१५७.०६


            वसू रुद्रा पुरुमन्तू वृधन्ता दशस्यतं नो वृषणावभिष्टौ।

            दस्रा ह यद्रेक्ण औचथ्यो वां प्र यत्सस्राथे अकवाभिरूती॥ १.१५८.०१

            को वां दाशत्सुमतये चिदस्यै वसू यद्धेथे नमसा पदे गोः।

            जिगृतमस्मे रेवतीः पुरंधीः कामप्रेणेव मनसा चरन्ता॥ १.१५८.०२

            युक्तो ह यद्वां तौग्र्याय पेरुर्वि मध्ये अर्णसो धायि पज्रः।

            उप वामवः शरणं गमेयं शूरो नाज्म पतयद्भिरेवैः॥ १.१५८.०३

            उपस्तुतिरौचथ्यमुरुष्येन्मा मामिमे पतत्रिणी वि दुग्धाम्।

            मा मामेधो दशतयश्चितो धाक्प्र यद्वां बद्धस्त्मनि खादति क्षाम्॥ १.१५८.०४

            न मा गरन्नद्यो मातृतमा दासा यदीं सुसमुब्धमवाधुः।

            शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत्स्वयं दास उरो अंसावपि ग्ध॥ १.१५८.०५

            दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे।

            अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः॥ १.१५८.०६


            प्र द्यावा यज्ञैः पृथिवी ऋतावृधा मही स्तुषे विदथेषु प्रचेतसा।

            देवेभिर्ये देवपुत्रे सुदंससेत्था धिया वार्याणि प्रभूषतः॥ १.१५९.०१

            उत मन्ये पितुरद्रुहो मनो मातुर्महि स्वतवस्तद्धवीमभिः।

            सुरेतसा पितरा भूम चक्रतुरुरु प्रजाया अमृतं वरीमभिः॥ १.१५९.०२

            ते सूनवः स्वपसः सुदंससो मही जज्ञुर्मातरा पूर्वचित्तये।

            स्थातुश्च सत्यं जगतश्च धर्मणि पुत्रस्य पाथः पदमद्वयाविनः॥ १.१५९.०३

            ते मायिनो ममिरे सुप्रचेतसो जामी सयोनी मिथुना समोकसा।

            नव्यंनव्यं तन्तुमा तन्वते दिवि समुद्रे अन्तः कवयः सुदीतयः॥ १.१५९.०४

            तद्राधो अद्य सवितुर्वरेण्यं वयं देवस्य प्रसवे मनामहे।

            अस्मभ्यं द्यावापृथिवी सुचेतुना रयिं धत्तं वसुमन्तं शतग्विनम्॥ १.१५९.०५


            ते हि द्यावापृथिवी विश्वशम्भुव ऋतावरी रजसो धारयत्कवी।

            सुजन्मनी धिषणे अन्तरीयते देवो देवी धर्मणा सूर्यः शुचिः॥ १.१६०.०१

            उरुव्यचसा महिनी असश्चता पिता माता च भुवनानि रक्षतः।

            सुधृष्टमे वपुष्ये न रोदसी पिता यत्सीमभि रूपैरवासयत्॥ १.१६०.०२

            स वह्निः पुत्रः पित्रोः पवित्रवान्पुनाति धीरो भुवनानि मायया।

            धेनुं च पृश्निं वृषभं सुरेतसं विश्वाहा शुक्रं पयो अस्य दुक्षत॥ १.१६०.०३

            अयं देवानामपसामपस्तमो यो जजान रोदसी विश्वशम्भुवा।

            वि यो ममे रजसी सुक्रतूययाजरेभिः स्कम्भनेभिः समानृचे॥ १.१६०.०४

            ते नो गृणाने महिनी महि श्रवः क्षत्रं द्यावापृथिवी धासथो बृहत्।

            येनाभि कृष्टीस्ततनाम विश्वहा पनाय्यमोजो अस्मे समिन्वतम्॥ १.१६०.०५


            किमु श्रेष्ठः किं यविष्ठो न आजगन्किमीयते दूत्यं कद्यदूचिम।

            न निन्दिम चमसं यो महाकुलोऽग्ने भ्रातर्द्रुण इद्भूतिमूदिम॥ १.१६१.०१

            एकं चमसं चतुरः कृणोतन तद्वो देवा अब्रुवन्तद्व आगमम्।

            सौधन्वना यद्येवा करिष्यथ साकं देवैर्यज्ञियासो भविष्यथ॥ १.१६१.०२

            अग्निं दूतं प्रति यदब्रवीतनाश्वः कर्त्वो रथ उतेह कर्त्वः।

            धेनुः कर्त्वा युवशा कर्त्वा द्वा तानि भ्रातरनु वः कृत्व्येमसि॥ १.१६१.०३

            चकृवांस ऋभवस्तदपृच्छत क्वेदभूद्यः स्य दूतो न आजगन्।

            यदावाख्यच्चमसाञ्चतुरः कृतानादित्त्वष्टा ग्नास्वन्तर्न्यानजे॥ १.१६१.०४

            हनामैनाँ इति त्वष्टा यदब्रवीच्चमसं ये देवपानमनिन्दिषुः।

            अन्या नामानि कृण्वते सुते सचाँ अन्यैरेनान्कन्या नामभिः स्परत्॥ १.१६१.०५

            इन्द्रो हरी युयुजे अश्विना रथं बृहस्पतिर्विश्वरूपामुपाजत।

            ऋभुर्विभ्वा वाजो देवाँ अगच्छत स्वपसो यज्ञियं भागमैतन॥ १.१६१.०६

            निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभिर्या जरन्ता युवशा ताकृणोतन।

            सौधन्वना अश्वादश्वमतक्षत युक्त्वा रथमुप देवाँ अयातन॥ १.१६१.०७

            इदमुदकं पिबतेत्यब्रवीतनेदं वा घा पिबता मुञ्जनेजनम्।

            सौधन्वना यदि तन्नेव हर्यथ तृतीये घा सवने मादयाध्वै॥ १.१६१.०८

            आपो भूयिष्ठा इत्येको अब्रवीदग्निर्भूयिष्ठ इत्यन्यो अब्रवीत्।

            वधर्यन्तीं बहुभ्यः प्रैको अब्रवीदृता वदन्तश्चमसाँ अपिंशत॥ १.१६१.०९

            श्रोणामेक उदकं गामवाजति मांसमेकः पिंशति सूनयाभृतम्।

            आ निम्रुचः शकृदेको अपाभरत्किं स्वित्पुत्रेभ्यः पितरा उपावतुः॥ १.१६१.१०

            उद्वत्स्वस्मा अकृणोतना तृणं निवत्स्वपः स्वपस्यया नरः।

            अगोह्यस्य यदसस्तना गृहे तदद्येदमृभवो नानु गच्छथ॥ १.१६१.११

            सम्मील्य यद्भुवना पर्यसर्पत क्व स्वित्तात्या पितरा व आसतुः।

            अशपत यः करस्नं व आददे यः प्राब्रवीत्प्रो तस्मा अब्रवीतन॥ १.१६१.१२

            सुषुप्वांस ऋभवस्तदपृच्छतागोह्य क इदं नो अबूबुधत्।

            श्वानं बस्तो बोधयितारमब्रवीत्संवत्सर इदमद्या व्यख्यत॥ १.१६१.१३

            दिवा यान्ति मरुतो भूम्याग्निरयं वातो अन्तरिक्षेण याति।

            अद्भिर्याति वरुणः समुद्रैर्युष्माँ इच्छन्तः शवसो नपातः॥ १.१६१.१४


            मा नो मित्रो वरुणो अर्यमायुरिन्द्र ऋभुक्षा मरुतः परि ख्यन्।

            यद्वाजिनो देवजातस्य सप्तेः प्रवक्ष्यामो विदथे वीर्याणि॥ १.१६२.०१

            यन्निर्णिजा रेक्णसा प्रावृतस्य रातिं गृभीतां मुखतो नयन्ति।

            सुप्राङजो मेम्यद्विश्वरूप इन्द्रापूष्णोः प्रियमप्येति पाथः॥ १.१६२.०२

            एष च्छागः पुरो अश्वेन वाजिना पूष्णो भागो नीयते विश्वदेव्यः।

            अभिप्रियं यत्पुरोळाशमर्वता त्वष्टेदेनं सौश्रवसाय जिन्वति॥ १.१६२.०३

            यद्धविष्यमृतुशो देवयानं त्रिर्मानुषाः पर्यश्वं नयन्ति।

            अत्रा पूष्णः प्रथमो भाग एति यज्ञं देवेभ्यः प्रतिवेदयन्नजः॥ १.१६२.०४

            होताध्वर्युरावया अग्निमिन्धो ग्रावग्राभ उत शंस्ता सुविप्रः।

            तेन यज्ञेन स्वरंकृतेन स्विष्टेन वक्षणा आ पृणध्वम्॥ १.१६२.०५

            यूपव्रस्का उत ये यूपवाहाश्चषालं ये अश्वयूपाय तक्षति।

            ये चार्वते पचनं सम्भरन्त्युतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु॥ १.१६२.०६

            उप प्रागात्सुमन्मेऽधायि मन्म देवानामाशा उप वीतपृष्ठः।

            अन्वेनं विप्रा ऋषयो मदन्ति देवानां पुष्टे चकृमा सुबन्धुम्॥ १.१६२.०७

            यद्वाजिनो दाम संदानमर्वतो या शीर्षण्या रशना रज्जुरस्य।

            यद्वा घास्य प्रभृतमास्ये तृणं सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु॥ १.१६२.०८

            यदश्वस्य क्रविषो मक्षिकाश यद्वा स्वरौ स्वधितौ रिप्तमस्ति।

            यद्धस्तयोः शमितुर्यन्नखेषु सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु॥ १.१६२.०९

            यदूवध्यमुदरस्यापवाति य आमस्य क्रविषो गन्धो अस्ति।

            सुकृता तच्छमितारः कृण्वन्तूत मेधं शृतपाकं पचन्तु॥ १.१६२.१०

            यत्ते गात्रादग्निना पच्यमानादभि शूलं निहतस्यावधावति।

            मा तद्भूम्यामा श्रिषन्मा तृणेषु देवेभ्यस्तदुशद्भ्यो रातमस्तु॥ १.१६२.११

            ये वाजिनं परिपश्यन्ति पक्वं य ईमाहुः सुरभिर्निर्हरेति।

            ये चार्वतो मांसभिक्षामुपासत उतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु॥ १.१६२.१२

            यन्नीक्षणं माँस्पचन्या उखाया या पात्राणि यूष्ण आसेचनानि।

            ऊष्मण्यापिधाना चरूणामङ्काः सूनाः परि भूषन्त्यश्वम्॥ १.१६२.१३

            निक्रमणं निषदनं विवर्तनं यच्च पड्बीशमर्वतः।

            यच्च पपौ यच्च घासिं जघास सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु॥ १.१६२.१४

            मा त्वाग्निर्ध्वनयीद्धूमगन्धिर्मोखा भ्राजन्त्यभि विक्त जघ्रिः।

            इष्टं वीतमभिगूर्तं वषट्कृतं तं देवासः प्रति गृभ्णन्त्यश्वम्॥ १.१६२.१५

            यदश्वाय वास उपस्तृणन्त्यधीवासं या हिरण्यान्यस्मै।

            संदानमर्वन्तं पड्बीशं प्रिया देवेष्वा यामयन्ति॥ १.१६२.१६

            यत्ते सादे महसा शूकृतस्य पार्ष्ण्या वा कशया वा तुतोद।

            स्रुचेव ता हविषो अध्वरेषु सर्वा ता ते ब्रह्मणा सूदयामि॥ १.१६२.१७

            चतुस्त्रिंशद्वाजिनो देवबन्धोर्वङ्क्रीरश्वस्य स्वधितिः समेति।

            अच्छिद्रा गात्रा वयुना कृणोत परुष्परुरनुघुष्या वि शस्त॥ १.१६२.१८

            एकस्त्वष्टुरश्वस्या विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथ ऋतुः।

            या ते गात्राणामृतुथा कृणोमि ताता पिण्डानां प्र जुहोम्यग्नौ॥ १.१६२.१९

            मा त्वा तपत्प्रिय आत्मापियन्तं मा स्वधितिस्तन्व आ तिष्ठिपत्ते।

            मा ते गृध्नुरविशस्तातिहाय छिद्रा गात्राण्यसिना मिथू कः॥ १.१६२.२०

            न वा उ एतन्म्रियसे न रिष्यसि देवाँ इदेषि पथिभिः सुगेभिः।

            हरी ते युञ्जा पृषती अभूतामुपास्थाद्वाजी धुरि रासभस्य॥ १.१६२.२१

            सुगव्यं नो वाजी स्वश्व्यं पुंसः पुत्राँ उत विश्वापुषं रयिम्।

            अनागास्त्वं नो अदितिः कृणोतु क्षत्रं नो अश्वो वनतां हविष्मान्॥ १.१६२.२२


            यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्समुद्रादुत वा पुरीषात्।

            श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन्॥ १.१६३.०१

            यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत्।

            गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात्सूरादश्वं वसवो निरतष्ट॥ १.१६३.०२

            असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन।

            असि सोमेन समया विपृक्त आहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि॥ १.१६३.०३

            त्रीणि त आहुर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रे।

            उतेव मे वरुणश्छन्त्स्यर्वन्यत्रा त आहुः परमं जनित्रम्॥ १.१६३.०४

            इमा ते वाजिन्नवमार्जनानीमा शफानां सनितुर्निधाना।

            अत्रा ते भद्रा रशना अपश्यमृतस्य या अभिरक्षन्ति गोपाः॥ १.१६३.०५

            आत्मानं ते मनसारादजानामवो दिवा पतयन्तं पतंगम्।

            शिरो अपश्यं पथिभिः सुगेभिररेणुभिर्जेहमानं पतत्रि॥ १.१६३.०६

            अत्रा ते रूपमुत्तममपश्यं जिगीषमाणमिष आ पदे गोः।

            यदा ते मर्तो अनु भोगमानळादिद्ग्रसिष्ठ ओषधीरजीगः॥ १.१६३.०७

            अनु त्वा रथो अनु मर्यो अर्वन्ननु गावोऽनु भगः कनीनाम्।

            अनु व्रातासस्तव सख्यमीयुरनु देवा ममिरे वीर्यं ते॥ १.१६३.०८

            हिरण्यशृङ्गोऽयो अस्य पादा मनोजवा अवर इन्द्र आसीत्।

            देवा इदस्य हविरद्यमायन्यो अर्वन्तं प्रथमो अध्यतिष्ठत्॥ १.१६३.०९

            ईर्मान्तासः सिलिकमध्यमासः सं शूरणासो दिव्यासो अत्याः।

            हंसा इव श्रेणिशो यतन्ते यदाक्षिषुर्दिव्यमज्ममश्वाः॥ १.१६३.१०

            तव शरीरं पतयिष्ण्वर्वन्तव चित्तं वात इव ध्रजीमान्।

            तव शृङ्गाणि विष्ठिता पुरुत्रारण्येषु जर्भुराणा चरन्ति॥ १.१६३.११

            उप प्रागाच्छसनं वाज्यर्वा देवद्रीचा मनसा दीध्यानः।

            अजः पुरो नीयते नाभिरस्यानु पश्चात्कवयो यन्ति रेभाः॥ १.१६३.१२

            उप प्रागात्परमं यत्सधस्थमर्वाँ अच्छा पितरं मातरं च।

            अद्या देवाञ्जुष्टतमो हि गम्या अथा शास्ते दाशुषे वार्याणि॥ १.१६३.१३


            अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः।

            तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम्॥ १.१६४.०१

            सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा।

            त्रिनाभि चक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः॥ १.१६४.०२

            इमं रथमधि ये सप्त तस्थुः सप्तचक्रं सप्त वहन्त्यश्वाः।

            सप्त स्वसारो अभि सं नवन्ते यत्र गवां निहिता सप्त नाम॥ १.१६४.०३

            को ददर्श प्रथमं जायमानमस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति।

            भूम्या असुरसृगात्मा क्व स्वित्को विद्वांसमुप गात्प्रष्टुमेतत्॥ १.१६४.०४

            पाकः पृच्छामि मनसाविजानन्देवानामेना निहिता पदानि।

            वत्से बष्कयेऽधि सप्त तन्तून्वि तत्निरे कवय ओतवा उ॥ १.१६४.०५

            अचिकित्वाञ्चिकितुषश्चिदत्र कवीन्पृच्छामि विद्मने न विद्वान्।

            वि यस्तस्तम्भ षळिमा रजांस्यजस्य रूपे किमपि स्विदेकम्॥ १.१६४.०६

            इह ब्रवीतु य ईमङ्ग वेदास्य वामस्य निहितं पदं वेः।

            शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य वव्रिं वसाना उदकं पदापुः॥ १.१६४.०७

            माता पितरमृत आ बभाज धीत्यग्रे मनसा सं हि जग्मे।

            सा बीभत्सुर्गर्भरसा निविद्धा नमस्वन्त इदुपवाकमीयुः॥ १.१६४.०८

            युक्ता मातासीद्धुरि दक्षिणाया अतिष्ठद्गर्भो वृजनीष्वन्तः।

            अमीमेद्वत्सो अनु गामपश्यद्विश्वरूप्यं त्रिषु योजनेषु॥ १.१६४.०९

            तिस्रो मातॄस्त्रीन्पितॄन्बिभ्रदेक ऊर्ध्वस्तस्थौ नेमव ग्लापयन्ति।

            मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वविदं वाचमविश्वमिन्वाम्॥ १.१६४.१०

            द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य।

            आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विंशतिश्च तस्थुः॥ १.१६४.११

            पञ्चपादं पितरं द्वादशाकृतिं दिव आहुः परे अर्धे पुरीषिणम्।

            अथेमे अन्य उपरे विचक्षणं सप्तचक्रे षळर आहुरर्पितम्॥ १.१६४.१२

            पञ्चारे चक्रे परिवर्तमाने तस्मिन्ना तस्थुर्भुवनानि विश्वा।

            तस्य नाक्षस्तप्यते भूरिभारः सनादेव न शीर्यते सनाभिः॥ १.१६४.१३

            सनेमि चक्रमजरं वि वावृत उत्तानायां दश युक्ता वहन्ति।

            सूर्यस्य चक्षू रजसैत्यावृतं तस्मिन्नार्पिता भुवनानि विश्वा॥ १.१६४.१४

            साकंजानां सप्तथमाहुरेकजं षळिद्यमा ऋषयो देवजा इति।

            तेषामिष्टानि विहितानि धामशः स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः॥ १.१६४.१५

            स्त्रियः सतीस्ताँ उ मे पुंस आहुः पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः।

            कविर्यः पुत्रः स ईमा चिकेत यस्ता विजानात्स पितुष्पितासत्॥ १.१६४.१६

            अवः परेण पर एनावरेण पदा वत्सं बिभ्रती गौरुदस्थात्।

            सा कद्रीची कं स्विदर्धं परागात्क्व स्वित्सूते नहि यूथे अन्तः॥ १.१६४.१७

            अवः परेण पितरं यो अस्यानुवेद पर एनावरेण।

            कवीयमानः क इह प्र वोचद्देवं मनः कुतो अधि प्रजातम्॥ १.१६४.१८

            ये अर्वाञ्चस्ताँ उ पराच आहुर्ये पराञ्चस्ताँ उ अर्वाच आहुः।

            इन्द्रश्च या चक्रथुः सोम तानि धुरा न युक्ता रजसो वहन्ति॥ १.१६४.१९

            द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।

            तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥ १.१६४.२०

            यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति।

            इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश॥ १.१६४.२१

            यस्मिन्वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाधि विश्वे।

            तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद॥ १.१६४.२२

            यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभाद्वा त्रैष्टुभं निरतक्षत।

            यद्वा जगज्जगत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः॥ १.१६४.२३

            गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम्।

            वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाक्षरेण मिमते सप्त वाणीः॥ १.१६४.२४

            जगता सिन्धुं दिव्यस्तभायद्रथंतरे सूर्यं पर्यपश्यत्।

            गायत्रस्य समिधस्तिस्र आहुस्ततो मह्ना प्र रिरिचे महित्वा॥ १.१६४.२५

            उप ह्वये सुदुघां धेनुमेतां सुहस्तो गोधुगुत दोहदेनाम्।

            श्रेष्ठं सवं सविता साविषन्नोऽभीद्धो घर्मस्तदु षु प्र वोचम्॥ १.१६४.२६

            हिङ्कृण्वती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात्।

            दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय॥ १.१६४.२७

            गौरमीमेदनु वत्सं मिषन्तं मूर्धानं हिङ्ङकृणोन्मातवा उ।

            सृक्वाणं घर्ममभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः॥ १.१६४.२८

            अयं स शिङ्क्ते येन गौरभीवृता मिमाति मायुं ध्वसनावधि श्रिता।

            सा चित्तिभिर्नि हि चकार मर्त्यं विद्युद्भवन्ती प्रति वव्रिमौहत॥ १.१६४.२९

            अनच्छये तुरगातु जीवमेजद्ध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम्।

            जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः॥ १.१६४.३०

            अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम्।

            स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः॥ १.१६४.३१

            य ईं चकार न सो अस्य वेद य ईं ददर्श हिरुगिन्नु तस्मात्।

            स मातुर्योना परिवीतो अन्तर्बहुप्रजा निरृतिमा विवेश॥ १.१६४.३२

            द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्।

            उत्तानयोश्चम्वोर्योनिरन्तरत्रा पिता दुहितुर्गर्भमाधात्॥ १.१६४.३३

            पृच्छामि त्वा परमन्तं पृथिव्याः पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः।

            पृच्छामि त्वा वृष्णो अश्वस्य रेतः पृच्छामि वाचः परमं व्योम॥ १.१६४.३४

            इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्या अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः।

            अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतो ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम॥ १.१६४.३५

            सप्तार्धगर्भा भुवनस्य रेतो विष्णोस्तिष्ठन्ति प्रदिशा विधर्मणि।

            ते धीतिभिर्मनसा ते विपश्चितः परिभुवः परि भवन्ति विश्वतः॥ १.१६४.३६

            न वि जानामि यदिवेदमस्मि निण्यः संनद्धो मनसा चरामि।

            यदा मागन्प्रथमजा ऋतस्यादिद्वाचो अश्नुवे भागमस्याः॥ १.१६४.३७

            अपाङ्प्राङेति स्वधया गृभीतोऽमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः।

            ता शश्वन्ता विषूचीना वियन्ता न्यन्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम्॥ १.१६४.३८

            ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।

            यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते॥ १.१६४.३९

            सूयवसाद्भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम।

            अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती॥ १.१६४.४०

            गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी।

            अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्॥ १.१६४.४१

            तस्याः समुद्रा अधि वि क्षरन्ति तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्रः।

            ततः क्षरत्यक्षरं तद्विश्वमुप जीवति॥ १.१६४.४२

            शकमयं धूममारादपश्यं विषूवता पर एनावरेण।

            उक्षाणं पृश्निमपचन्त वीरास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्॥ १.१६४.४३

            त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम्।

            विश्वमेको अभि चष्टे शचीभिर्ध्राजिरेकस्य ददृशे न रूपम्॥ १.१६४.४४

            चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।

            गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥ १.१६४.४५

            इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।

            एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥ १.१६४.४६

            कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति।

            त आववृत्रन्सदनादृतस्यादिद्घृतेन पृथिवी व्युद्यते॥ १.१६४.४७

            द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत।

            तस्मिन्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः॥ १.१६४.४८

            यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि।

            यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः सरस्वति तमिह धातवे कः॥ १.१६४.४९

            यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

            ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ १.१६४.५०

            समानमेतदुदकमुच्चैत्यव चाहभिः।

            भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः॥ १.१६४.५१

            दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तमपां गर्भं दर्शतमोषधीनाम्।

            अभीपतो वृष्टिभिस्तर्पयन्तं सरस्वन्तमवसे जोहवीमि॥ १.१६४.५२


            कया शुभा सवयसः सनीळाः समान्या मरुतः सं मिमिक्षुः।

            कया मती कुत एतास एतेऽर्चन्ति शुष्मं वृषणो वसूया॥ १.१६५.०१

            कस्य ब्रह्माणि जुजुषुर्युवानः को अध्वरे मरुत आ ववर्त।

            श्येनाँ इव ध्रजतो अन्तरिक्षे केन महा मनसा रीरमाम॥ १.१६५.०२

            कुतस्त्वमिन्द्र माहिनः सन्नेको यासि सत्पते किं त इत्था।

            सं पृच्छसे समराणः शुभानैर्वोचेस्तन्नो हरिवो यत्ते अस्मे॥ १.१६५.०३

            ब्रह्माणि मे मतयः शं सुतासः शुष्म इयर्ति प्रभृतो मे अद्रिः।

            आ शासते प्रति हर्यन्त्युक्थेमा हरी वहतस्ता नो अच्छ॥ १.१६५.०४

            अतो वयमन्तमेभिर्युजानाः स्वक्षत्रेभिस्तन्वः शुम्भमानाः।

            महोभिरेताँ उप युज्महे न्विन्द्र स्वधामनु हि नो बभूथ॥ १.१६५.०५

            क्व स्या वो मरुतः स्वधासीद्यन्मामेकं समधत्ताहिहत्ये।

            अहं ह्युग्रस्तविषस्तुविष्मान्विश्वस्य शत्रोरनमं वधस्नैः॥ १.१६५.०६

            भूरि चकर्थ युज्येभिरस्मे समानेभिर्वृषभ पौंस्येभिः।

            भूरीणि हि कृणवामा शविष्ठेन्द्र क्रत्वा मरुतो यद्वशाम॥ १.१६५.०७

            वधीं वृत्रं मरुत इन्द्रियेण स्वेन भामेन तविषो बभूवान्।

            अहमेता मनवे विश्वश्चन्द्राः सुगा अपश्चकर वज्रबाहुः॥ १.१६५.०८

            अनुत्तमा ते मघवन्नकिर्नु न त्वावाँ अस्ति देवता विदानः।

            न जायमानो नशते न जातो यानि करिष्या कृणुहि प्रवृद्ध॥ १.१६५.०९

            एकस्य चिन्मे विभ्वस्त्वोजो या नु दधृष्वान्कृणवै मनीषा।

            अहं ह्युग्रो मरुतो विदानो यानि च्यवमिन्द्र इदीश एषाम्॥ १.१६५.१०

            अमन्दन्मा मरुतः स्तोमो अत्र यन्मे नरः श्रुत्यं ब्रह्म चक्र।

            इन्द्राय वृष्णे सुमखाय मह्यं सख्ये सखायस्तन्वे तनूभिः॥ १.१६५.११

            एवेदेते प्रति मा रोचमाना अनेद्यः श्रव एषो दधानाः।

            संचक्ष्या मरुतश्चन्द्रवर्णा अच्छान्त मे छदयाथा च नूनम्॥ १.१६५.१२

            को न्वत्र मरुतो मामहे वः प्र यातन सखीँरच्छा सखायः।

            मन्मानि चित्रा अपिवातयन्त एषां भूत नवेदा म ऋतानाम्॥ १.१६५.१३

            आ यद्दुवस्याद्दुवसे न कारुरस्माञ्चक्रे मान्यस्य मेधा।

            ओ षु वर्त्त मरुतो विप्रमच्छेमा ब्रह्माणि जरिता वो अर्चत्॥ १.१६५.१४

            एष वः स्तोमो मरुत इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः।

            एषा यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१६५.१५


            तन्नु वोचाम रभसाय जन्मने पूर्वं महित्वं वृषभस्य केतवे।

            ऐधेव यामन्मरुतस्तुविष्वणो युधेव शक्रास्तविषाणि कर्तन॥ १.१६६.०१

            नित्यं न सूनुं मधु बिभ्रत उप क्रीळन्ति क्रीळा विदथेषु घृष्वयः।

            नक्षन्ति रुद्रा अवसा नमस्विनं न मर्धन्ति स्वतवसो हविष्कृतम्॥ १.१६६.०२

            यस्मा ऊमासो अमृता अरासत रायस्पोषं च हविषा ददाशुषे।

            उक्षन्त्यस्मै मरुतो हिता इव पुरू रजांसि पयसा मयोभुवः॥ १.१६६.०३

            आ ये रजांसि तविषीभिरव्यत प्र व एवासः स्वयतासो अध्रजन्।

            भयन्ते विश्वा भुवनानि हर्म्या चित्रो वो यामः प्रयतास्वृष्टिषु॥ १.१६६.०४

            यत्त्वेषयामा नदयन्त पर्वतान्दिवो वा पृष्ठं नर्या अचुच्यवुः।

            विश्वो वो अज्मन्भयते वनस्पती रथीयन्तीव प्र जिहीत ओषधिः॥ १.१६६.०५

            यूयं न उग्रा मरुतः सुचेतुनारिष्टग्रामाः सुमतिं पिपर्तन।

            यत्रा वो दिद्युद्रदति क्रिविर्दती रिणाति पश्वः सुधितेव बर्हणा॥ १.१६६.०६

            प्र स्कम्भदेष्णा अनवभ्रराधसोऽलातृणासो विदथेषु सुष्टुताः।

            अर्चन्त्यर्कं मदिरस्य पीतये विदुर्वीरस्य प्रथमानि पौंस्या॥ १.१६६.०७

            शतभुजिभिस्तमभिह्रुतेरघात्पूर्भी रक्षता मरुतो यमावत।

            जनं यमुग्रास्तवसो विरप्शिनः पाथना शंसात्तनयस्य पुष्टिषु॥ १.१६६.०८

            विश्वानि भद्रा मरुतो रथेषु वो मिथस्पृध्येव तविषाण्याहिता।

            अंसेष्वा वः प्रपथेषु खादयोऽक्षो वश्चक्रा समया वि वावृते॥ १.१६६.०९

            भूरीणि भद्रा नर्येषु बाहुषु वक्षस्सु रुक्मा रभसासो अञ्जयः।

            अंसेष्वेताः पविषु क्षुरा अधि वयो न पक्षान्व्यनु श्रियो धिरे॥ १.१६६.१०

            महान्तो मह्ना विभ्वो विभूतयो दूरेदृशो ये दिव्या इव स्तृभिः।

            मन्द्राः सुजिह्वाः स्वरितार आसभिः सम्मिश्ला इन्द्रे मरुतः परिष्टुभः॥ १.१६६.११

            तद्वः सुजाता मरुतो महित्वनं दीर्घं वो दात्रमदितेरिव व्रतम्।

            इन्द्रश्चन त्यजसा वि ह्रुणाति तज्जनाय यस्मै सुकृते अराध्वम्॥ १.१६६.१२

            तद्वो जामित्वं मरुतः परे युगे पुरू यच्छंसममृतास आवत।

            अया धिया मनवे श्रुष्टिमाव्या साकं नरो दंसनैरा चिकित्रिरे॥ १.१६६.१३

            येन दीर्घं मरुतः शूशवाम युष्माकेन परीणसा तुरासः।

            आ यत्ततनन्वृजने जनास एभिर्यज्ञेभिस्तदभीष्टिमश्याम्॥ १.१६६.१४

            एष वः स्तोमो मरुत इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः।

            एषा यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१६६.१५


            सहस्रं त इन्द्रोतयो नः सहस्रमिषो हरिवो गूर्ततमाः।

            सहस्रं रायो मादयध्यै सहस्रिण उप नो यन्तु वाजाः॥ १.१६७.०१

            आ नोऽवोभिर्मरुतो यान्त्वच्छा ज्येष्ठेभिर्वा बृहद्दिवैः सुमायाः।

            अध यदेषां नियुतः परमाः समुद्रस्य चिद्धनयन्त पारे॥ १.१६७.०२

            मिम्यक्ष येषु सुधिता घृताची हिरण्यनिर्णिगुपरा न ऋष्टिः।

            गुहा चरन्ती मनुषो न योषा सभावती विदथ्येव सं वाक्॥ १.१६७.०३

            परा शुभ्रा अयासो यव्या साधारण्येव मरुतो मिमिक्षुः।

            न रोदसी अप नुदन्त घोरा जुषन्त वृधं सख्याय देवाः॥ १.१६७.०४

            जोषद्यदीमसुर्या सचध्यै विषितस्तुका रोदसी नृमणाः।

            आ सूर्येव विधतो रथं गात्त्वेषप्रतीका नभसो नेत्या॥ १.१६७.०५

            आस्थापयन्त युवतिं युवानः शुभे निमिश्लां विदथेषु पज्राम्।

            अर्को यद्वो मरुतो हविष्मान्गायद्गाथं सुतसोमो दुवस्यन्॥ १.१६७.०६

            प्र तं विवक्मि वक्म्यो य एषां मरुतां महिमा सत्यो अस्ति।

            सचा यदीं वृषमणा अहंयुः स्थिरा चिज्जनीर्वहते सुभागाः॥ १.१६७.०७

            पान्ति मित्रावरुणाववद्याच्चयत ईमर्यमो अप्रशस्तान्।

            उत च्यवन्ते अच्युता ध्रुवाणि वावृध ईं मरुतो दातिवारः॥ १.१६७.०८

            नही नु वो मरुतो अन्त्यस्मे आरात्ताच्चिच्छवसो अन्तमापुः।

            ते धृष्णुना शवसा शूशुवांसोऽर्णो न द्वेषो धृषता परि ष्ठुः॥ १.१६७.०९

            वयमद्येन्द्रस्य प्रेष्ठा वयं श्वो वोचेमहि समर्ये।

            वयं पुरा महि च नो अनु द्यून्तन्न ऋभुक्षा नरामनु ष्यात्॥ १.१६७.१०

            एष वः स्तोमो मरुत इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः।

            एषा यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१६७.११


            यज्ञायज्ञा वः समना तुतुर्वणिर्धियंधियं वो देवया उ दधिध्वे।

            आ वोऽर्वाचः सुविताय रोदस्योर्महे ववृत्यामवसे सुवृक्तिभिः॥ १.१६८.०१

            वव्रासो न ये स्वजाः स्वतवस इषं स्वरभिजायन्त धूतयः।

            सहस्रियासो अपां नोर्मय आसा गावो वन्द्यासो नोक्षणः॥ १.१६८.०२

            सोमासो न ये सुतास्तृप्तांशवो हृत्सु पीतासो दुवसो नासते।

            ऐषामंसेषु रम्भिणीव रारभे हस्तेषु खादिश्च कृतिश्च सं दधे॥ १.१६८.०३

            अव स्वयुक्ता दिव आ वृथा ययुरमर्त्याः कशया चोदत त्मना।

            अरेणवस्तुविजाता अचुच्यवुर्दृळ्हानि चिन्मरुतो भ्राजदृष्टयः॥ १.१६८.०४

            को वोऽन्तर्मरुत ऋष्टिविद्युतो रेजति त्मना हन्वेव जिह्वया।

            धन्वच्युत इषां न यामनि पुरुप्रैषा अहन्यो नैतशः॥ १.१६८.०५

            क्व स्विदस्य रजसो महस्परं क्वावरं मरुतो यस्मिन्नायय।

            यच्च्यावयथ विथुरेव संहितं व्यद्रिणा पतथ त्वेषमर्णवम्॥ १.१६८.०६

            सातिर्न वोऽमवती स्वर्वती त्वेषा विपाका मरुतः पिपिष्वती।

            भद्रा वो रातिः पृणतो न दक्षिणा पृथुज्रयी असुर्येव जञ्जती॥ १.१६८.०७

            प्रति ष्टोभन्ति सिन्धवः पविभ्यो यदभ्रियां वाचमुदीरयन्ति।

            अव स्मयन्त विद्युतः पृथिव्यां यदी घृतं मरुतः प्रुष्णुवन्ति॥ १.१६८.०८

            असूत पृश्निर्महते रणाय त्वेषमयासां मरुतामनीकम्।

            ते सप्सरासोऽजनयन्ताभ्वमादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन्॥ १.१६८.०९

            एष वः स्तोमो मरुत इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः।

            एषा यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१६८.१०


            महश्चित्त्वमिन्द्र यत एतान्महश्चिदसि त्यजसो वरूता।

            स नो वेधो मरुतां चिकित्वान्सुम्ना वनुष्व तव हि प्रेष्ठा॥ १.१६९.०१

            अयुज्रन्त इन्द्र विश्वकृष्टीर्विदानासो निष्षिधो मर्त्यत्रा।

            मरुतां पृत्सुतिर्हासमाना स्वर्मीळ्हस्य प्रधनस्य सातौ॥ १.१६९.०२

            अम्यक्सा त इन्द्र ऋष्टिरस्मे सनेम्यभ्वं मरुतो जुनन्ति।

            अग्निश्चिद्धि ष्मातसे शुशुक्वानापो न द्वीपं दधति प्रयांसि॥ १.१६९.०३

            त्वं तू न इन्द्र तं रयिं दा ओजिष्ठया दक्षिणयेव रातिम्।

            स्तुतश्च यास्ते चकनन्त वायोः स्तनं न मध्वः पीपयन्त वाजैः॥ १.१६९.०४

            त्वे राय इन्द्र तोशतमाः प्रणेतारः कस्य चिदृतायोः।

            ते षु णो मरुतो मृळयन्तु ये स्मा पुरा गातूयन्तीव देवाः॥ १.१६९.०५

            प्रति प्र याहीन्द्र मीळ्हुषो नॄन्महः पार्थिवे सदने यतस्व।

            अध यदेषां पृथुबुध्नास एतास्तीर्थे नार्यः पौंस्यानि तस्थुः॥ १.१६९.०६

            प्रति घोराणामेतानामयासां मरुतां शृण्व आयतामुपब्दिः।

            ये मर्त्यं पृतनायन्तमूमैरृणावानं न पतयन्त सर्गैः॥ १.१६९.०७

            त्वं मानेभ्य इन्द्र विश्वजन्या रदा मरुद्भिः शुरुधो गोअग्राः।

            स्तवानेभिः स्तवसे देव देवैर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१६९.०८


            न नूनमस्ति नो श्वः कस्तद्वेद यदद्भुतम्।

            अन्यस्य चित्तमभि संचरेण्यमुताधीतं वि नश्यति॥ १.१७०.०१

            किं न इन्द्र जिघांससि भ्रातरो मरुतस्तव।

            तेभिः कल्पस्व साधुया मा नः समरणे वधीः॥ १.१७०.०२

            किं नो भ्रातरगस्त्य सखा सन्नति मन्यसे।

            विद्मा हि ते यथा मनोऽस्मभ्यमिन्न दित्ससि॥ १.१७०.०३

            अरं कृण्वन्तु वेदिं समग्निमिन्धतां पुरः।

            तत्रामृतस्य चेतनं यज्ञं ते तनवावहै॥ १.१७०.०४

            त्वमीशिषे वसुपते वसूनां त्वं मित्राणां मित्रपते धेष्ठः।

            इन्द्र त्वं मरुद्भिः सं वदस्वाध प्राशान ऋतुथा हवींषि॥ १.१७०.०५


            प्रति व एना नमसाहमेमि सूक्तेन भिक्षे सुमतिं तुराणाम्।

            रराणता मरुतो वेद्याभिर्नि हेळो धत्त वि मुचध्वमश्वान्॥ १.१७१.०१

            एष वः स्तोमो मरुतो नमस्वान्हृदा तष्टो मनसा धायि देवाः।

            उपेमा यात मनसा जुषाणा यूयं हि ष्ठा नमस इद्वृधासः॥ १.१७१.०२

            स्तुतासो नो मरुतो मृळयन्तूत स्तुतो मघवा शम्भविष्ठः।

            ऊर्ध्वा नः सन्तु कोम्या वनान्यहानि विश्वा मरुतो जिगीषा॥ १.१७१.०३

            अस्मादहं तविषादीषमाण इन्द्राद्भिया मरुतो रेजमानः।

            युष्मभ्यं हव्या निशितान्यासन्तान्यारे चकृमा मृळता नः॥ १.१७१.०४

            येन मानासश्चितयन्त उस्रा व्युष्टिषु शवसा शश्वतीनाम्।

            स नो मरुद्भिर्वृषभ श्रवो धा उग्र उग्रेभिः स्थविरः सहोदाः॥ १.१७१.०५

            त्वं पाहीन्द्र सहीयसो नॄन्भवा मरुद्भिरवयातहेळाः।

            सुप्रकेतेभिः सासहिर्दधानो विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१७१.०६


            चित्रो वोऽस्तु यामश्चित्र ऊती सुदानवः।

            मरुतो अहिभानवः॥ १.१७२.०१

            आरे सा वः सुदानवो मरुत ऋञ्जती शरुः।

            आरे अश्मा यमस्यथ॥ १.१७२.०२

            तृणस्कन्दस्य नु विशः परि वृङ्क्त सुदानवः।

            ऊर्ध्वान्नः कर्त जीवसे॥ १.१७२.०३


            गायत्साम नभन्यं यथा वेरर्चाम तद्वावृधानं स्वर्वत्।

            गावो धेनवो बर्हिष्यदब्धा आ यत्सद्मानं दिव्यं विवासान्॥ १.१७३.०१

            अर्चद्वृषा वृषभिः स्वेदुहव्यैर्मृगो नाश्नो अति यज्जुगुर्यात्।

            प्र मन्दयुर्मनां गूर्त होता भरते मर्यो मिथुना यजत्रः॥ १.१७३.०२

            नक्षद्धोता परि सद्म मिता यन्भरद्गर्भमा शरदः पृथिव्याः।

            क्रन्ददश्वो नयमानो रुवद्गौरन्तर्दूतो न रोदसी चरद्वाक्॥ १.१७३.०३

            ता कर्माषतरास्मै प्र च्यौत्नानि देवयन्तो भरन्ते।

            जुजोषदिन्द्रो दस्मवर्चा नासत्येव सुग्म्यो रथेष्ठाः॥ १.१७३.०४

            तमु ष्टुहीन्द्रं यो ह सत्वा यः शूरो मघवा यो रथेष्ठाः।

            प्रतीचश्चिद्योधीयान्वृषण्वान्ववव्रुषश्चित्तमसो विहन्ता॥ १.१७३.०५

            प्र यदित्था महिना नृभ्यो अस्त्यरं रोदसी कक्ष्ये नास्मै।

            सं विव्य इन्द्रो वृजनं न भूमा भर्ति स्वधावाँ ओपशमिव द्याम्॥ १.१७३.०६

            समत्सु त्वा शूर सतामुराणं प्रपथिन्तमं परितंसयध्यै।

            सजोषस इन्द्रं मदे क्षोणीः सूरिं चिद्ये अनुमदन्ति वाजैः॥ १.१७३.०७

            एवा हि ते शं सवना समुद्र आपो यत्त आसु मदन्ति देवीः।

            विश्वा ते अनु जोष्या भूद्गौः सूरीँश्चिद्यदि धिषा वेषि जनान्॥ १.१७३.०८

            असाम यथा सुषखाय एन स्वभिष्टयो नरां न शंसैः।

            असद्यथा न इन्द्रो वन्दनेष्ठास्तुरो न कर्म नयमान उक्था॥ १.१७३.०९

            विष्पर्धसो नरां न शंसैरस्माकासदिन्द्रो वज्रहस्तः।

            मित्रायुवो न पूर्पतिं सुशिष्टौ मध्यायुव उप शिक्षन्ति यज्ञैः॥ १.१७३.१०

            यज्ञो हि ष्मेन्द्रं कश्चिदृन्धञ्जुहुराणश्चिन्मनसा परियन्।

            तीर्थे नाच्छा तातृषाणमोको दीर्घो न सिध्रमा कृणोत्यध्वा॥ १.१७३.११

            मो षू ण इन्द्रात्र पृत्सु देवैरस्ति हि ष्मा ते शुष्मिन्नवयाः।

            महश्चिद्यस्य मीळ्हुषो यव्या हविष्मतो मरुतो वन्दते गीः॥ १.१७३.१२

            एष स्तोम इन्द्र तुभ्यमस्मे एतेन गातुं हरिवो विदो नः।

            आ नो ववृत्याः सुविताय देव विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१७३.१३


            त्वं राजेन्द्र ये च देवा रक्षा नॄन्पाह्यसुर त्वमस्मान्।

            त्वं सत्पतिर्मघवा नस्तरुत्रस्त्वं सत्यो वसवानः सहोदाः॥ १.१७४.०१

            दनो विश इन्द्र मृध्रवाचः सप्त यत्पुरः शर्म शारदीर्दर्त्।

            ऋणोरपो अनवद्यार्णा यूने वृत्रं पुरुकुत्साय रन्धीः॥ १.१७४.०२

            अजा वृत इन्द्र शूरपत्नीर्द्यां च येभिः पुरुहूत नूनम्।

            रक्षो अग्निमशुषं तूर्वयाणं सिंहो न दमे अपांसि वस्तोः॥ १.१७४.०३

            शेषन्नु त इन्द्र सस्मिन्योनौ प्रशस्तये पवीरवस्य मह्ना।

            सृजदर्णांस्यव यद्युधा गास्तिष्ठद्धरी धृषता मृष्ट वाजान्॥ १.१७४.०४

            वह कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्स्यूमन्यू ऋज्रा वातस्याश्वा।

            प्र सूरश्चक्रं वृहतादभीकेऽभि स्पृधो यासिषद्वज्रबाहुः॥ १.१७४.०५

            जघन्वाँ इन्द्र मित्रेरूञ्चोदप्रवृद्धो हरिवो अदाशून्।

            प्र ये पश्यन्नर्यमणं सचायोस्त्वया शूर्ता वहमाना अपत्यम्॥ १.१७४.०६

            रपत्कविरिन्द्रार्कसातौ क्षां दासायोपबर्हणीं कः।

            करत्तिस्रो मघवा दानुचित्रा नि दुर्योणे कुयवाचं मृधि श्रेत्॥ १.१७४.०७

            सना ता त इन्द्र नव्या आगुः सहो नभोऽविरणाय पूर्वीः।

            भिनत्पुरो न भिदो अदेवीर्ननमो वधरदेवस्य पीयोः॥ १.१७४.०८

            त्वं धुनिरिन्द्र धुनिमतीरृणोरपः सीरा न स्रवन्तीः।

            प्र यत्समुद्रमति शूर पर्षि पारया तुर्वशं यदुं स्वस्ति॥ १.१७४.०९

            त्वमस्माकमिन्द्र विश्वध स्या अवृकतमो नरां नृपाता।

            स नो विश्वासां स्पृधां सहोदा विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१७४.१०


            मत्स्यपायि ते महः पात्रस्येव हरिवो मत्सरो मदः।

            वृषा ते वृष्ण इन्दुर्वाजी सहस्रसातमः॥ १.१७५.०१

            आ नस्ते गन्तु मत्सरो वृषा मदो वरेण्यः।

            सहावाँ इन्द्र सानसिः पृतनाषाळमर्त्यः॥ १.१७५.०२

            त्वं हि शूरः सनिता चोदयो मनुषो रथम्।

            सहावान्दस्युमव्रतमोषः पात्रं न शोचिषा॥ १.१७५.०३

            मुषाय सूर्यं कवे चक्रमीशान ओजसा।

            वह शुष्णाय वधं कुत्सं वातस्याश्वैः॥ १.१७५.०४

            शुष्मिन्तमो हि ते मदो द्युम्निन्तम उत क्रतुः।

            वृत्रघ्ना वरिवोविदा मंसीष्ठा अश्वसातमः॥ १.१७५.०५

            यथा पूर्वेभ्यो जरितृभ्य इन्द्र मय इवापो न तृष्यते बभूथ।

            तामनु त्वा निविदं जोहवीमि विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१७५.०६


            मत्सि नो वस्य‍इष्टय इन्द्रमिन्दो वृषा विश।

            ऋघायमाण इन्वसि शत्रुमन्ति न विन्दसि॥ १.१७६.०१

            तस्मिन्ना वेशया गिरो य एकश्चर्षणीनाम्।

            अनु स्वधा यमुप्यते यवं न चर्कृषद्वृषा॥ १.१७६.०२

            यस्य विश्वानि हस्तयोः पञ्च क्षितीनां वसु।

            स्पाशयस्व यो अस्मध्रुग्दिव्येवाशनिर्जहि॥ १.१७६.०३

            असुन्वन्तं समं जहि दूणाशं यो न ते मयः।

            अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदोहते॥ १.१७६.०४

            आवो यस्य द्विबर्हसोऽर्केषु सानुषगसत्।

            आजाविन्द्रस्येन्दो प्रावो वाजेषु वाजिनम्॥ १.१७६.०५

            यथा पूर्वेभ्यो जरितृभ्य इन्द्र मय इवापो न तृष्यते बभूथ।

            तामनु त्वा निविदं जोहवीमि विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१७६.०६


            आ चर्षणिप्रा वृषभो जनानां राजा कृष्टीनां पुरुहूत इन्द्रः।

            स्तुतः श्रवस्यन्नवसोप मद्रिग्युक्त्वा हरी वृषणा याह्यर्वाङ्॥ १.१७७.०१

            ये ते वृषणो वृषभास इन्द्र ब्रह्मयुजो वृषरथासो अत्याः।

            ताँ आ तिष्ठ तेभिरा याह्यर्वाङ्हवामहे त्वा सुत इन्द्र सोमे॥ १.१७७.०२

            आ तिष्ठ रथं वृषणं वृषा ते सुतः सोमः परिषिक्ता मधूनि।

            युक्त्वा वृषभ्यां वृषभ क्षितीनां हरिभ्यां याहि प्रवतोप मद्रिक्॥ १.१७७.०३

            अयं यज्ञो देवया अयं मियेध इमा ब्रह्माण्ययमिन्द्र सोमः।

            स्तीर्णं बर्हिरा तु शक्र प्र याहि पिबा निषद्य वि मुचा हरी इह॥ १.१७७.०४

            ओ सुष्टुत इन्द्र याह्यर्वाङुप ब्रह्माणि मान्यस्य कारोः।

            विद्याम वस्तोरवसा गृणन्तो विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१७७.०५


            यद्ध स्या त इन्द्र श्रुष्टिरस्ति यया बभूथ जरितृभ्य ऊती।

            मा नः कामं महयन्तमा धग्विश्वा ते अश्यां पर्याप आयोः॥ १.१७८.०१

            न घा राजेन्द्र आ दभन्नो या नु स्वसारा कृणवन्त योनौ।

            आपश्चिदस्मै सुतुका अवेषन्गमन्न इन्द्रः सख्या वयश्च॥ १.१७८.०२

            जेता नृभिरिन्द्रः पृत्सु शूरः श्रोता हवं नाधमानस्य कारोः।

            प्रभर्ता रथं दाशुष उपाक उद्यन्ता गिरो यदि च त्मना भूत्॥ १.१७८.०३

            एवा नृभिरिन्द्रः सुश्रवस्या प्रखादः पृक्षो अभि मित्रिणो भूत्।

            समर्य इषः स्तवते विवाचि सत्राकरो यजमानस्य शंसः॥ १.१७८.०४

            त्वया वयं मघवन्निन्द्र शत्रूनभि ष्याम महतो मन्यमानान्।

            त्वं त्राता त्वमु नो वृधे भूर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१७८.०५


            पूर्वीरहं शरदः शश्रमाणा दोषा वस्तोरुषसो जरयन्तीः।

            मिनाति श्रियं जरिमा तनूनामप्यू नु पत्नीर्वृषणो जगम्युः॥ १.१७९.०१

            ये चिद्धि पूर्व ऋतसाप आसन्साकं देवेभिरवदन्नृतानि।

            ते चिदवासुर्नह्यन्तमापुः समू नु पत्नीर्वृषभिर्जगम्युः॥ १.१७९.०२

            न मृषा श्रान्तं यदवन्ति देवा विश्वा इत्स्पृधो अभ्यश्नवाव।

            जयावेदत्र शतनीथमाजिं यत्सम्यञ्चा मिथुनावभ्यजाव॥ १.१७९.०३

            नदस्य मा रुधतः काम आगन्नित आजातो अमुतः कुतश्चित्।

            लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा धयति श्वसन्तम्॥ १.१७९.०४

            इमं नु सोममन्तितो हृत्सु पीतमुप ब्रुवे।

            यत्सीमागश्चकृमा तत्सु मृळतु पुलुकामो हि मर्त्यः॥ १.१७९.०५

            अगस्त्यः खनमानः खनित्रैः प्रजामपत्यं बलमिच्छमानः।

            उभौ वर्णावृषिरुग्रः पुपोष सत्या देवेष्वाशिषो जगाम॥ १.१७९.०६


            युवो रजांसि सुयमासो अश्वा रथो यद्वां पर्यर्णांसि दीयत्।

            हिरण्यया वां पवयः प्रुषायन्मध्वः पिबन्ता उषसः सचेथे॥ १.१८०.०१

            युवमत्यस्याव नक्षथो यद्विपत्मनो नर्यस्य प्रयज्योः।

            स्वसा यद्वां विश्वगूर्ती भराति वाजायेट्टे मधुपाविषे च॥ १.१८०.०२

            युवं पय उस्रियायामधत्तं पक्वमामायामव पूर्व्यं गोः।

            अन्तर्यद्वनिनो वामृतप्सू ह्वारो न शुचिर्यजते हविष्मान्॥ १.१८०.०३

            युवं ह घर्मं मधुमन्तमत्रयेऽपो न क्षोदोऽवृणीतमेषे।

            तद्वां नरावश्विना पश्व‍इष्टी रथ्येव चक्रा प्रति यन्ति मध्वः॥ १.१८०.०४

            आ वां दानाय ववृतीय दस्रा गोरोहेण तौग्र्यो न जिव्रिः।

            अपः क्षोणी सचते माहिना वां जूर्णो वामक्षुरंहसो यजत्रा॥ १.१८०.०५

            नि यद्युवेथे नियुतः सुदानू उप स्वधाभिः सृजथः पुरंधिम्।

            प्रेषद्वेषद्वातो न सूरिरा महे ददे सुव्रतो न वाजम्॥ १.१८०.०६

            वयं चिद्धि वां जरितारः सत्या विपन्यामहे वि पणिर्हितावान्।

            अधा चिद्धि ष्माश्विनावनिन्द्या पाथो हि ष्मा वृषणावन्तिदेवम्॥ १.१८०.०७

            युवां चिद्धि ष्माश्विनावनु द्यून्विरुद्रस्य प्रस्रवणस्य सातौ।

            अगस्त्यो नरां नृषु प्रशस्तः काराधुनीव चितयत्सहस्रैः॥ १.१८०.०८

            प्र यद्वहेथे महिना रथस्य प्र स्यन्द्रा याथो मनुषो न होता।

            धत्तं सूरिभ्य उत वा स्वश्व्यं नासत्या रयिषाचः स्याम॥ १.१८०.०९

            तं वां रथं वयमद्या हुवेम स्तोमैरश्विना सुविताय नव्यम्।

            अरिष्टनेमिं परि द्यामियानं विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१८०.१०


            कदु प्रेष्टाविषां रयीणामध्वर्यन्ता यदुन्निनीथो अपाम्।

            अयं वां यज्ञो अकृत प्रशस्तिं वसुधिती अवितारा जनानाम्॥ १.१८१.०१

            आ वामश्वासः शुचयः पयस्पा वातरंहसो दिव्यासो अत्याः।

            मनोजुवो वृषणो वीतपृष्ठा एह स्वराजो अश्विना वहन्तु॥ १.१८१.०२

            आ वां रथोऽवनिर्न प्रवत्वान्सृप्रवन्धुरः सुविताय गम्याः।

            वृष्णः स्थातारा मनसो जवीयानहम्पूर्वो यजतो धिष्ण्या यः॥ १.१८१.०३

            इहेह जाता समवावशीतामरेपसा तन्वा नामभिः स्वैः।

            जिष्णुर्वामन्यः सुमखस्य सूरिर्दिवो अन्यः सुभगः पुत्र ऊहे॥ १.१८१.०४

            प्र वां निचेरुः ककुहो वशाँ अनु पिशङ्गरूपः सदनानि गम्याः।

            हरी अन्यस्य पीपयन्त वाजैर्मथ्रा रजांस्यश्विना वि घोषैः॥ १.१८१.०५

            प्र वां शरद्वान्वृषभो न निष्षाट् पूर्वीरिषश्चरति मध्व इष्णन्।

            एवैरन्यस्य पीपयन्त वाजैर्वेषन्तीरूर्ध्वा नद्यो न आगुः॥ १.१८१.०६

            असर्जि वां स्थविरा वेधसा गीर्बाळ्हे अश्विना त्रेधा क्षरन्ती।

            उपस्तुताववतं नाधमानं यामन्नयामञ्छृणुतं हवं मे॥ १.१८१.०७

            उत स्या वां रुशतो वप्ससो गीस्त्रिबर्हिषि सदसि पिन्वते नॄन्।

            वृषा वां मेघो वृषणा पीपाय गोर्न सेके मनुषो दशस्यन्॥ १.१८१.०८

            युवां पूषेवाश्विना पुरंधिरग्निमुषां न जरते हविष्मान्।

            हुवे यद्वां वरिवस्या गृणानो विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१८१.०९


            अभूदिदं वयुनमो षु भूषता रथो वृषण्वान्मदता मनीषिणः।

            धियंजिन्वा धिष्ण्या विश्पलावसू दिवो नपाता सुकृते शुचिव्रता॥ १.१८२.०१

            इन्द्रतमा हि धिष्ण्या मरुत्तमा दस्रा दंसिष्ठा रथ्या रथीतमा।

            पूर्णं रथं वहेथे मध्व आचितं तेन दाश्वांसमुप याथो अश्विना॥ १.१८२.०२

            किमत्र दस्रा कृणुथः किमासाथे जनो यः कश्चिदहविर्महीयते।

            अति क्रमिष्टं जुरतं पणेरसुं ज्योतिर्विप्राय कृणुतं वचस्यवे॥ १.१८२.०३

            जम्भयतमभितो रायतः शुनो हतं मृधो विदथुस्तान्यश्विना।

            वाचंवाचं जरितू रत्निनीं कृतमुभा शंसं नासत्यावतं मम॥ १.१८२.०४

            युवमेतं चक्रथुः सिन्धुषु प्लवमात्मन्वन्तं पक्षिणं तौग्र्याय कम्।

            येन देवत्रा मनसा निरूहथुः सुपप्तनी पेतथुः क्षोदसो महः॥ १.१८२.०५

            अवविद्धं तौग्र्यमप्स्वन्तरनारम्भणे तमसि प्रविद्धम्।

            चतस्रो नावो जठलस्य जुष्टा उदश्विभ्यामिषिताः पारयन्ति॥ १.१८२.०६

            कः स्विद्वृक्षो निष्ठितो मध्ये अर्णसो यं तौग्र्यो नाधितः पर्यषस्वजत्।

            पर्णा मृगस्य पतरोरिवारभ उदश्विना ऊहथुः श्रोमताय कम्॥ १.१८२.०७

            तद्वां नरा नासत्यावनु ष्याद्यद्वां मानास उचथमवोचन्।

            अस्मादद्य सदसः सोम्यादा विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१८२.०८


            तं युञ्जाथां मनसो यो जवीयान्त्रिवन्धुरो वृषणा यस्त्रिचक्रः।

            येनोपयाथः सुकृतो दुरोणं त्रिधातुना पतथो विर्न पर्णैः॥ १.१८३.०१

            सुवृद्रथो वर्तते यन्नभि क्षां यत्तिष्ठथः क्रतुमन्तानु पृक्षे।

            वपुर्वपुष्या सचतामियं गीर्दिवो दुहित्रोषसा सचेथे॥ १.१८३.०२

            आ तिष्ठतं सुवृतं यो रथो वामनु व्रतानि वर्तते हविष्मान्।

            येन नरा नासत्येषयध्यै वर्तिर्याथस्तनयाय त्मने च॥ १.१८३.०३

            मा वां वृको मा वृकीरा दधर्षीन्मा परि वर्क्तमुत माति धक्तम्।

            अयं वां भागो निहित इयं गीर्दस्राविमे वां निधयो मधूनाम्॥ १.१८३.०४

            युवां गोतमः पुरुमीळ्हो अत्रिर्दस्रा हवतेऽवसे हविष्मान्।

            दिशं न दिष्टामृजूयेव यन्ता मे हवं नासत्योप यातम्॥ १.१८३.०५

            अतारिष्म तमसस्पारमस्य प्रति वां स्तोमो अश्विनावधायि।

            एह यातं पथिभिर्देवयानैर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१८३.०६


            ता वामद्य तावपरं हुवेमोच्छन्त्यामुषसि वह्निरुक्थैः।

            नासत्या कुह चित्सन्तावर्यो दिवो नपाता सुदास्तराय॥ १.१८४.०१

            अस्मे ऊ षु वृषणा मादयेथामुत्पणीँर्हतमूर्म्या मदन्ता।

            श्रुतं मे अच्छोक्तिभिर्मतीनामेष्टा नरा निचेतारा च कर्णैः॥ १.१८४.०२

            श्रिये पूषन्निषुकृतेव देवा नासत्या वहतुं सूर्यायाः।

            वच्यन्ते वां ककुहा अप्सु जाता युगा जूर्णेव वरुणस्य भूरेः॥ १.१८४.०३

            अस्मे सा वां माध्वी रातिरस्तु स्तोमं हिनोतं मान्यस्य कारोः।

            अनु यद्वां श्रवस्या सुदानू सुवीर्याय चर्षणयो मदन्ति॥ १.१८४.०४

            एष वां स्तोमो अश्विनावकारि मानेभिर्मघवाना सुवृक्ति।

            यातं वर्तिस्तनयाय त्मने चागस्त्ये नासत्या मदन्ता॥ १.१८४.०५

            अतारिष्म तमसस्पारमस्य प्रति वां स्तोमो अश्विनावधायि।

            एह यातं पथिभिर्देवयानैर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१८४.०६


            कतरा पूर्वा कतरापरायोः कथा जाते कवयः को वि वेद।

            विश्वं त्मना बिभृतो यद्ध नाम वि वर्तेते अहनी चक्रियेव॥ १.१८५.०१

            भूरिं द्वे अचरन्ती चरन्तं पद्वन्तं गर्भमपदी दधाते।

            नित्यं न सूनुं पित्रोरुपस्थे द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्॥ १.१८५.०२

            अनेहो दात्रमदितेरनर्वं हुवे स्वर्वदवधं नमस्वत्।

            तद्रोदसी जनयतं जरित्रे द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्॥ १.१८५.०३

            अतप्यमाने अवसावन्ती अनु ष्याम रोदसी देवपुत्रे।

            उभे देवानामुभयेभिरह्नां द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्॥ १.१८५.०४

            संगच्छमाने युवती समन्ते स्वसारा जामी पित्रोरुपस्थे।

            अभिजिघ्रन्ती भुवनस्य नाभिं द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्॥ १.१८५.०५

            उर्वी सद्मनी बृहती ऋतेन हुवे देवानामवसा जनित्री।

            दधाते ये अमृतं सुप्रतीके द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्॥ १.१८५.०६

            उर्वी पृथ्वी बहुले दूरेअन्ते उप ब्रुवे नमसा यज्ञे अस्मिन्।

            दधाते ये सुभगे सुप्रतूर्ती द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्॥ १.१८५.०७

            देवान्वा यच्चकृमा कच्चिदागः सखायं वा सदमिज्जास्पतिं वा।

            इयं धीर्भूया अवयानमेषां द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्॥ १.१८५.०८

            उभा शंसा नर्या मामविष्टामुभे मामूती अवसा सचेताम्।

            भूरि चिदर्यः सुदास्तरायेषा मदन्त इषयेम देवाः॥ १.१८५.०९

            ऋतं दिवे तदवोचं पृथिव्या अभिश्रावाय प्रथमं सुमेधाः।

            पातामवद्याद्दुरितादभीके पिता माता च रक्षतामवोभिः॥ १.१८५.१०

            इदं द्यावापृथिवी सत्यमस्तु पितर्मातर्यदिहोपब्रुवे वाम्।

            भूतं देवानामवमे अवोभिर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१८५.११


            आ न इळाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु।

            अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा॥ १.१८६.०१

            आ नो विश्व आस्क्रा गमन्तु देवा मित्रो अर्यमा वरुणः सजोषाः।

            भुवन्यथा नो विश्वे वृधासः करन्सुषाहा विथुरं न शवः॥ १.१८६.०२

            प्रेष्ठं वो अतिथिं गृणीषेऽग्निं शस्तिभिस्तुर्वणिः सजोषाः।

            असद्यथा नो वरुणः सुकीर्तिरिषश्च पर्षदरिगूर्तः सूरिः॥ १.१८६.०३

            उप व एषे नमसा जिगीषोषासानक्ता सुदुघेव धेनुः।

            समाने अहन्विमिमानो अर्कं विषुरूपे पयसि सस्मिन्नूधन्॥ १.१८६.०४

            उत नोऽहिर्बुध्न्यो मयस्कः शिशुं न पिप्युषीव वेति सिन्धुः।

            येन नपातमपां जुनाम मनोजुवो वृषणो यं वहन्ति॥ १.१८६.०५

            उत न ईं त्वष्टा गन्त्वच्छा स्मत्सूरिभिरभिपित्वे सजोषाः।

            आ वृत्रहेन्द्रश्चर्षणिप्रास्तुविष्टमो नरां न इह गम्याः॥ १.१८६.०६

            उत न ईं मतयोऽश्वयोगाः शिशुं न गावस्तरुणं रिहन्ति।

            तमीं गिरो जनयो न पत्नीः सुरभिष्टमं नरां नसन्त॥ १.१८६.०७

            उत न ईं मरुतो वृद्धसेनाः स्मद्रोदसी समनसः सदन्तु।

            पृषदश्वासोऽवनयो न रथा रिशादसो मित्रयुजो न देवाः॥ १.१८६.०८

            प्र नु यदेषां महिना चिकित्रे प्र युञ्जते प्रयुजस्ते सुवृक्ति।

            अध यदेषां सुदिने न शरुर्विश्वमेरिणं प्रुषायन्त सेनाः॥ १.१८६.०९

            प्रो अश्विनाववसे कृणुध्वं प्र पूषणं स्वतवसो हि सन्ति।

            अद्वेषो विष्णुर्वात ऋभुक्षा अच्छा सुम्नाय ववृतीय देवान्॥ १.१८६.१०

            इयं सा वो अस्मे दीधितिर्यजत्रा अपिप्राणी च सदनी च भूयाः।

            नि या देवेषु यतते वसूयुर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१८६.११


            पितुं नु स्तोषं महो धर्माणं तविषीम्।

            यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्दयत्॥ १.१८७.०१

            स्वादो पितो मधो पितो वयं त्वा ववृमहे।

            अस्माकमविता भव॥ १.१८७.०२

            उप नः पितवा चर शिवः शिवाभिरूतिभिः।

            मयोभुरद्विषेण्यः सखा सुशेवो अद्वयाः॥ १.१८७.०३

            तव त्ये पितो रसा रजांस्यनु विष्ठिताः।

            दिवि वाता इव श्रिताः॥ १.१८७.०४

            तव त्ये पितो ददतस्तव स्वादिष्ठ ते पितो।

            प्र स्वाद्मानो रसानां तुविग्रीवा इवेरते॥ १.१८७.०५

            त्वे पितो महानां देवानां मनो हितम्।

            अकारि चारु केतुना तवाहिमवसावधीत्॥ १.१८७.०६

            यददो पितो अजगन्विवस्व पर्वतानाम्।

            अत्रा चिन्नो मधो पितोऽरं भक्षाय गम्याः॥ १.१८७.०७

            यदपामोषधीनां परिंशमारिशामहे।

            वातापे पीव इद्भव॥ १.१८७.०८

            यत्ते सोम गवाशिरो यवाशिरो भजामहे।

            वातापे पीव इद्भव॥ १.१८७.०९

            करम्भ ओषधे भव पीवो वृक्क उदारथिः।

            वातापे पीव इद्भव॥ १.१८७.१०

            तं त्वा वयं पितो वचोभिर्गावो न हव्या सुषूदिम।

            देवेभ्यस्त्वा सधमादमस्मभ्यं त्वा सधमादम्॥ १.१८७.११


            समिद्धो अद्य राजसि देवो देवैः सहस्रजित्।

            दूतो हव्या कविर्वह॥ १.१८८.०१

            तनूनपादृतं यते मध्वा यज्ञः समज्यते।

            दधत्सहस्रिणीरिषः॥ १.१८८.०२

            आजुह्वानो न ईड्यो देवाँ आ वक्षि यज्ञियान्।

            अग्ने सहस्रसा असि॥ १.१८८.०३

            प्राचीनं बर्हिरोजसा सहस्रवीरमस्तृणन्।

            यत्रादित्या विराजथ॥ १.१८८.०४

            विराट् सम्राड्विभ्वीः प्रभ्वीर्बह्वीश्च भूयसीश्च याः।

            दुरो घृतान्यक्षरन्॥ १.१८८.०५

            सुरुक्मे हि सुपेशसाधि श्रिया विराजतः।

            उषासावेह सीदताम्॥ १.१८८.०६

            प्रथमा हि सुवाचसा होतारा दैव्या कवी।

            यज्ञं नो यक्षतामिमम्॥ १.१८८.०७

            भारतीळे सरस्वति या वः सर्वा उपब्रुवे।

            ता नश्चोदयत श्रिये॥ १.१८८.०८

            त्वष्टा रूपाणि हि प्रभुः पशून्विश्वान्समानजे।

            तेषां नः स्फातिमा यज॥ १.१८८.०९

            उप त्मन्या वनस्पते पाथो देवेभ्यः सृज।

            अग्निर्हव्यानि सिष्वदत्॥ १.१८८.१०

            पुरोगा अग्निर्देवानां गायत्रेण समज्यते।

            स्वाहाकृतीषु रोचते॥ १.१८८.११


            अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।

            युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम‍उक्तिं विधेम॥ १.१८९.०१

            अग्ने त्वं पारया नव्यो अस्मान्स्वस्तिभिरति दुर्गाणि विश्वा।

            पूश्च पृथ्वी बहुला न उर्वी भवा तोकाय तनयाय शं योः॥ १.१८९.०२

            अग्ने त्वमस्मद्युयोध्यमीवा अनग्नित्रा अभ्यमन्त कृष्टीः।

            पुनरस्मभ्यं सुविताय देव क्षां विश्वेभिरमृतेभिर्यजत्र॥ १.१८९.०३

            पाहि नो अग्ने पायुभिरजस्रैरुत प्रिये सदन आ शुशुक्वान्।

            मा ते भयं जरितारं यविष्ठ नूनं विदन्मापरं सहस्वः॥ १.१८९.०४

            मा नो अग्नेऽव सृजो अघायाविष्यवे रिपवे दुच्छुनायै।

            मा दत्वते दशते मादते नो मा रीषते सहसावन्परा दाः॥ १.१८९.०५

            वि घ त्वावाँ ऋतजात यंसद्गृणानो अग्ने तन्वे वरूथम्।

            विश्वाद्रिरिक्षोरुत वा निनित्सोरभिह्रुतामसि हि देव विष्पट्॥ १.१८९.०६

            त्वं ताँ अग्न उभयान्वि विद्वान्वेषि प्रपित्वे मनुषो यजत्र।

            अभिपित्वे मनवे शास्यो भूर्मर्मृजेन्य उशिग्भिर्नाक्रः॥ १.१८९.०७

            अवोचाम निवचनान्यस्मिन्मानस्य सूनुः सहसाने अग्नौ।

            वयं सहस्रमृषिभिः सनेम विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१८९.०८


            अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्वं बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्कैः।

            गाथान्यः सुरुचो यस्य देवा आशृण्वन्ति नवमानस्य मर्ताः॥ १.१९०.०१

            तमृत्विया उप वाचः सचन्ते सर्गो न यो देवयतामसर्जि।

            बृहस्पतिः स ह्यञ्जो वरांसि विभ्वाभवत्समृते मातरिश्वा॥ १.१९०.०२

            उपस्तुतिं नमस उद्यतिं च श्लोकं यंसत्सवितेव प्र बाहू।

            अस्य क्रत्वाहन्यो यो अस्ति मृगो न भीमो अरक्षसस्तुविष्मान्॥ १.१९०.०३

            अस्य श्लोको दिवीयते पृथिव्यामत्यो न यंसद्यक्षभृद्विचेताः।

            मृगाणां न हेतयो यन्ति चेमा बृहस्पतेरहिमायाँ अभि द्यून्॥ १.१९०.०४

            ये त्वा देवोस्रिकं मन्यमानाः पापा भद्रमुपजीवन्ति पज्राः।

            न दूढ्ये अनु ददासि वामं बृहस्पते चयस इत्पियारुम्॥ १.१९०.०५

            सुप्रैतुः सूयवसो न पन्था दुर्नियन्तुः परिप्रीतो न मित्रः।

            अनर्वाणो अभि ये चक्षते नोऽपीवृता अपोर्णुवन्तो अस्थुः॥ १.१९०.०६

            सं यं स्तुभोऽवनयो न यन्ति समुद्रं न स्रवतो रोधचक्राः।

            स विद्वाँ उभयं चष्टे अन्तर्बृहस्पतिस्तर आपश्च गृध्रः॥ १.१९०.०७

            एवा महस्तुविजातस्तुविष्मान्बृहस्पतिर्वृषभो धायि देवः।

            स नः स्तुतो वीरवद्धातु गोमद्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१९०.०८


            कङ्कतो न कङ्कतोऽथो सतीनकङ्कतः।

            द्वाविति प्लुषी इति न्यदृष्टा अलिप्सत॥ १.१९१.०१

            अदृष्टान्हन्त्यायत्यथो हन्ति परायती।

            अथो अवघ्नती हन्त्यथो पिनष्टि पिंषती॥ १.१९१.०२

            शरासः कुशरासो दर्भासः सैर्या उत।

            मौञ्जा अदृष्टा वैरिणाः सर्वे साकं न्यलिप्सत॥ १.१९१.०३

            नि गावो गोष्ठे असदन्नि मृगासो अविक्षत।

            नि केतवो जनानां न्यदृष्टा अलिप्सत॥ १.१९१.०४

            एत उ त्ये प्रत्यदृश्रन्प्रदोषं तस्करा इव।

            अदृष्टा विश्वदृष्टाः प्रतिबुद्धा अभूतन॥ १.१९१.०५

            द्यौर्वः पिता पृथिवी माता सोमो भ्रातादितिः स्वसा।

            अदृष्टा विश्वदृष्टास्तिष्ठतेलयता सु कम्॥ १.१९१.०६

            ये अंस्या ये अङ्ग्याः सूचीका ये प्रकङ्कताः।

            अदृष्टाः किं चनेह वः सर्वे साकं नि जस्यत॥ १.१९१.०७

            उत्पुरस्तात्सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा।

            अदृष्टान्सर्वाञ्जम्भयन्सर्वाश्च यातुधान्यः॥ १.१९१.०८

            उदपप्तदसौ सूर्यः पुरु विश्वानि जूर्वन्।

            आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा॥ १.१९१.०९

            सूर्ये विषमा सजामि दृतिं सुरावतो गृहे।

            सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार॥ १.१९१.१०

            इयत्तिका शकुन्तिका सका जघास ते विषम्।

            सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार॥ १.१९१.११

            त्रिः सप्त विष्पुलिङ्गका विषस्य पुष्यमक्षन्।

            ताश्चिन्नु न मरन्ति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार॥ १.१९१.१२

            नवानां नवतीनां विषस्य रोपुषीणाम्।

            सर्वासामग्रभं नामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार॥ १.१९१.१३

            त्रिः सप्त मयूर्यः सप्त स्वसारो अग्रुवः।

            तास्ते विषं वि जभ्रिर उदकं कुम्भिनीरिव॥ १.१९१.१४

            इयत्तकः कुषुम्भकस्तकं भिनद्म्यश्मना।

            ततो विषं प्र वावृते पराचीरनु संवतः॥ १.१९१.१५

            कुषुम्भकस्तदब्रवीद्गिरेः प्रवर्तमानकः।

            वृश्चिकस्यारसं विषमरसं वृश्चिक ते विषम्॥ १.१९१.१६.

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